Sunday, July 18, 2010


टूटे हुए आशियाने के अटूट रिश्ते


मेरे बच्चों की दादी, मेरी सास, जिन्हें मैं ‘अम्मा’ बुलाती थी, हांलाकि आज दुनिया में नहीं हैं, लेकिन दुःख, निराशा, हताशा के पलों में आज भी मेरा संबल बन, वह मेरे ज़हन में उतर आती हैं और मुझे हताशा के पलों से बाहर निकाल कर, प्यार से दुलार कर, एक लंबे समय के लिए स्फूर्ति व उत्साह से भर जाती हैं I हमारे घर में ’टूट कर’ भी ‘अटूट’ बने रहने वाले रिश्तों की कुछ ऎसी अनोखी परम्परा रही है जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रही I आज मैं उन्हीं अटूट रिश्तों की डोर में बंधी, उन्हें याद करती, अपनी प्यारी ‘अम्मा’ (सास) के बारे में बड़ी शिद्दत के साथ वो सब लिखने जा रही हूँ जो मेरे जीवन की कीमती पूंजी है I मुझे लगता है कि हर निश्छल इंसान ‘अपनों’ से, दिल से नही, वरन आत्मा से जुडा होता है क्योंकि किसी कारणवश चोट लगने पर, दिल के रिश्ते एकबारगी मिट सकते है, पर ‘आत्मा’ में बसे रिश्ते न कभी मरते है और न कभी मिटते है I कुछ ऐसा ही आत्मिक रिश्ता था मेरा ‘अपनी अम्मा’ के साथ I
अक्सर देखा गया है कि जीवन में चोट खाया, धोखा खाया इंसान इतनी कडुवाहट और प्रतिशोध से भर जाता है, इतनी अधिक नकारात्मकता उसमें घर कर जाती है कि वह दूसरों को सताने में आनंद लेने लगता है I लेकिन अम्मा ने इस मिथ को तोड़ कर एक ख़ूबसूरत मिसाल कायम की थी I
१९३८ में अम्मा और पापा का अंतर्जातीय विवाह हुआ था I पापा आर्मी में मेजर डाक्टर थे I उन दिनों वे हिम्मतनगर पोस्टेड थे I अम्मा की बड़ी बहन, जिन्हें हम सब ‘डा.मौसी’ बुलाते थे;वे भी हिम्मतनगर पोस्टेड थीI इन्ही ‘डा.मौसी’ के पास अम्मा उन दिनों रह रही थी I बंबई यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन करके, वे पढाने भी लगी थीं I पापा से अम्मा का परिचय एक परिवार के माध्यम से हुआ था I पापा, अम्मा और उनके परिवारजनों से अक्सर मिलने आते, खूब बातचीत, गाना, खाना होता I पापा और अम्मा में से किसी को भी यह एहसास नहीं था कि उनकी यह जान पहचान आने वाले समय में शीघ्र ही प्यार में बदल जाएगी I होनी
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को कौन टाल सकता है !! ‘आज’ ‘आने वाला कल’ बन जिस गति से आगे बढ़ रहा था, उस गति से ही अम्मा और पापा एक दूसरे के निकट आते जा रहे थे और एक दिन दोनों ने पाया कि वे अंतरंग मित्रता के घेरे में आ चुके हैं I पापा अम्मा के पीछे –पीछे छाया की तरह घूमते थे I अम्मा का लगाव भी कम सघन नहीं था किन्तु वह संस्कारों की शालीनता और सहज लज्जा भाव का झीना आवरण ओढ़े रहा I हिम्मतनगर से पापा की पोस्टिंग कहीं और होने का समय पास आ रहा था, सो दोंनो ने अंतत: शादी का फैसला लिया I दोनों विवाह के बंधन में ज़रूर बंधे, पर घर वालों की मर्ज़ी के खिलाफ जाकर I अम्मा के ‘आई-बाबा’ तो फिर भी एक दफे को तैयार से थे लेकिन‘आजी’ उनकी शादी मराठी परिवार में ही करना चाहती थीं I ऐसा नहीं कि ‘आजी’ को पापा मे कोई कमी नज़र आती थी I उनका आकर्षक व्यक्तित्व, सुख-सुविधाओं और सम्मान से भरा आर्मी में ‘मेजर डाक्टर’ का ओहदा, अति धनाढ्य व शिक्षित खानदान जिसमें पुश्तैनी ‘ज़मीन जायदाद’ के साथ ‘डाक्टरी’ का पेशा भी पुश्तैनी था, वे सब बातें उन्हें ‘सुयोग्य वर’ की श्रेणी में रखती थी I पापा, पापा के पिता, दादा, पडदादा सभी डाक्टर, सी.एम.ओ. रहे थे; एक ऐसा व्यवसाय, जिसमें आदमी रिटायर होकर भी, कभी रिटायर नहीं होता I ‘आजी’ को एतराज़ था तो बस इस बात पर कि लड़का ‘दूर देश’ का है यानी के उत्तर प्रदेश का I लेकिन ‘मियाँ बीवी राजी तो क्या करती आजी’’.......सो अम्मा-पापा ने पहले तो सबको मनाने की बहुत कोशिश की, लेकिन जब बात नहीं बनी तो कोर्ट मैरिज कर ली I
शादी करके जब डा. मेजर पति के साथ अम्मा आधुनिकता से अछूते १९३८ के उस युग में परम्पराओं और रीतिरिवाजों में सख्ती से बंधे उ.प्र. के छोटे से शहर में पहुंची तो, घर भर से लेकर बाहर तक के लोगों के लिए वे एक अजूबा थी क्योंकि वे सिर को पल्ले से नहीं ढकती थी I सास, ससुर, जेठ, जिठानी, ननद, ननदोई सबके आगे वे खुले सिर उठती बैठती, उनकी भरपूर आवभगत, सेवा टहल करती, लेकिन सिर पे पल्ला रखना या पर्दा करने जैसी परम्परा से वे कोसों दूर थी I उस ज़माने में उ.प्र. में शादी शुदा दुल्हिन बड़ों के आगे, खासतौर से बजुर्ग पुरुषों के सामने सिर न ढके तो यह उस घर, उस परिवेश की संस्कृति को मानो चुनौती देना था I पर सीधी, सरल अम्मा तो उस परिवेश,घर और वहाँ की संस्कृति, सभ्यता, रीति-रिवाज़ को चुनौती देने की सपने में भी नहीं सोच सकती थीं I क्योकि वे इस तरह के स्वभाव की थी ही
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नहीं I वे सिर पर पल्ला सिर्फ और सिर्फ इस भावना के कारण नहीं लेती थी क्योकि मराठी संस्कृति और मूल्यों से पोषित उनका मन ऐसा करने की गवाही नहीं देता था I जैसा कि महाराष्ट्र में विधवा स्त्री सिर ढकती है और सधवा सिर खुला रखती है; सो वे अपने पति को किसी भी तरह के अमंगल से बचाने की भावना से सिर पर पल्ला नहीं लेती थीं I आधुनिक या आर्मी आफिसर की पत्नी होने का थोथा भान अथवा नए परिवेश की संस्कृति, परम्पराओं और रीतिरिवाजों से मोर्चा लेने जैसा क्रूर इरादा उन्हें छू तक नहीं गया था I पति की लंबी उम्र, जीवन की सुरक्षा की मंगल कामना के कारण सिर ना ढकने की अम्मा की इस भावना का स्वागत किया उनकी सास यानी मेरी ददिया सास ने I उन्होंने सख्ती से सबका विरोध करके, अम्मा का पक्ष लिया और तब से अम्मा बिना किसी भय और कुंठा के सिर खुला रखा सकी I
महाराष्ट्र के देशस्थ ब्राहमण परिवार की सीधी - सरल, पढ़ी-लिखी अम्मा जब अपने मधुर कंठ से गाना गाती तो, सब सुनते न थकते I इसके अलावा उनका एक और रूप था I लान टेनिस, टेबिल टेनिस खेलना और यदा कदा, मौक़ा मिलने पर घुडसवारी भी करना I बीते ज़माने में कम ही महिलाएं लान टेनिस खेलती होगी और घुडसवारी करती होगी I ये सब उनके जीवन में सामान्य और सहज गतिविधियों के रूप में शामिल था I वे उलटे पल्ले की साडी पहनती और छोटे से पल्लू को टिपिकल मराठी अंदाज़ में दांए कंधे पर इस तरह टिकाती कि पल्लू कंधे से लटकते हुए भी ज़रा सा भी इधर से उधर न होता I रोली कुंकुम की बिंदी लगाती और उसी से थोड़ी सी मांग इस तरह भरती कि कुंकुम मांग से ज़रा सी बाहर माथे पे भी नज़र आती I रोली की मांग और बिंदी में ही उनका सोलह श्रृगार सिमटा था I मैंने उनको न कभी छोटा मोटा जेवर पहने देखा और न इससे अधिक श्रृगार करते देखा I अपनी सादगी में ही वह बड़ी मोहक और गरिमापूर्ण लगती थीं I

पापा की जहां-जहां पोस्टिंग होती, अम्मा हर पल हर कदम पे उनके साथ होती, यहाँ तक कि पापा के साथ उनके मरीजों की देखभाल में अक्सर शौकिया मदद भी करती I इसी बीच वे दो बेटों की माँ बनी I इसी दौरान कुछ घरेलू समस्याएँ भी उठ खडी होने के कारण, पापा ने अपनी

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माँ के (मेरी दादी सास) के कहने पर आर्मी से रिटायरमैंट ले लिया और अपने पुश्तैनी घर लौटकर, अपना एक ‘नर्सिंग होम’ खोला I
अम्मा को अपनी ससुराल में किसी भी तरह की समस्या नहीं थी सिवाय के ‘भाषा ‘ के I वे मराठी और अंग्रेजी तो धाराप्रवाह बोलती थीं, लेकिन हिन्दी उनकी कमजोर थी I अपने हिन्दी ज्ञान पर उन्हें कतई भरोसा नहीं था I जबकि संस्कृत के श्लोक बड़े अच्छे कंठस्थ थे उन्हें I हिन्दी कामचलाऊ बोल लेती थी लेकिन अपनी बात हिन्दी के शब्दों की जानकारी के अभाव में पूरी तरह ठीक से अभिव्यक्त नहीं कर पाती थीं I यों हिन्दी गाने वह बड़े अच्छे गाती थीं क्योकि गीत सुनकर उन्हें हूबहू वैसे ही कोई भी गा सकता है लेकिन जब अपने आप से हिन्दी के वाक्य बनाकर कहने की बात आती, तो अम्मा ठीक से अभिव्यक्त करने में असमर्थ ही रहतीं I हिन्दी लिखना तो बहुत दूर की बात थी I इसलिए उन्होंने जब भी मुझे खत लिखे तो हमेशा अंग्रेजी में क्योकि मुझे मराठी नही आती थी और उन्हें हिन्दी, सो पत्राचार की हम दोनों के बीच कामन भाषा अंग्रेजी रही I इस भाषा समस्या ने उनके जीवन का गणित ही बदल दिया I वो इस तरह कि पापा के समय से पहले रिटायरमेंट लेकर अपने पुश्तैनी घर में आकर बसने पर अम्मा की दोस्ती एक लेडी डाक्टर से हो गई जिनके साथ वे भाषा के बंधन से मुक्त होकर अपने मन की बातों का आदान प्रदान अंग्रेज़ी में करती और इस तरह घरेलू ज़िंदगी से कुछ पल फुर्सत के पाकर, उन्हें पास ही लेडीज़ अस्पताल में शाम को घूमते हुए जाकर अपनी नई- नई सहेली से थोड़ी देर गप शप करके अच्छा लगता I लेकिन न जाने कौन से दुष्ट नक्षत्र – शानी या राहू-केतु की सीधी और तीखी नज़र इस दोस्ती पर पडी कि लेडी डाक्टर से अम्मा की दोस्ती कम और पापा की ज़्यादा होती गई I उन दोंनो के बीच दोस्ती के उस विशिष्ट ‘’अधिकाँश’’ को अम्मा जान ही न पाई I फलत; समय के साथ पापा की यह नई दोस्ती एक बार फिर प्यार में उसी तरह बदल गई जैसे कुछ वर्ष पूर्व अम्मा के साथ प्यार में पनपी थी I लेकिन वह प्यार तो जायज़ था क्योंकि उससे किसी का भी घर उजडने का अंदेशा नहीं था, पर इस बार यह ‘दूसरा’ प्यार, समाज और क़ानून को तो मैं बाद में गिनती हूँ, सबसे अधिक ‘इंसानियत’ की दृष्टि से नाजायज़ था क्योंकि इससे अम्मा और पापा का वैवाहिक जीवन उजडने वाला था I प्यार का ज्वर ऐसा उन आंटी और पापा पर चढ़ा कि न तो अम्मा की एक मात्र सहेली
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‘आंटी’ ने और न ही प्रेमी-पति ‘पापा ने अम्मा से लेकर परिवार तक, किसी की भी परवाह नहीं की और बरेली जाकर चुपचाप १९४८ में कोर्ट मैरिज कर ली I हर दृष्टि से सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, वैधानिक, यह शादी गलत ही नहीं बल्कि एक अपराध थी, लेकिन एक बार फिर ‘होनी’ होकर रही I कोर्ट मैरिज करके पापा अपनी दूसरी पत्नी को लेकर घर वापिस आ गए I इस अनहोनी के समय अम्मा उसी ‘हिम्मत नगर’ गई हुई थी; जहां पापा और वे कभी दस साल पहले, प्यार के और फिर विवाह के बंधन में बंधे थे I यह अपशकुनी खबर तीर सी अम्मा तक पहुंची और उन्हें अंदर तक लकवे की तरह जकड कर बेजान बनाती चली गई I क्योंकि वे अपने पति और सहेली, दोंनो पर ही ज़रूरत से ज़्यादा विश्वास करती थीं I उनका प्यारा रिश्ता अतिविश्वास की बलि चढ़ गया था I दिल के टुकड़े कर देने वाली खबर पा के उनके शब्द कहीं खो गए थे, गला आघात से रुंध गया था I वे कुछ बोल लेती, बोल कर अपनी पीड़ा, अपना क्रोध निकाल लेती तो अच्छा होता, पर वे ऐसा कर नहीं पाई I वे कई दिनों तक भावनाशून्य, किसी भी तरह की प्रतिक्रया रहित ऐसी जड रहीं कि उनके घरवाले सब डर गए कि कहीं वह हमेशा के लिए अपनी चेतना न खो बैठें I ईश्वर कृपा से, धीरे धीरे किस तरह निर्जीवता के फंदो से पल पल जूझती, आत्मिक शक्ति से अपने अंदर प्राणों को फूंकती, बच्चों को हर समय प्यार से अपनी बांहों में समेट-समेट कर मानो जीने की हिम्मत बटोरती, कभी उनकी भोली आँखों में जीवन का सुकून पाने की आशा संजोती, वे किसी तरह अपने को सम्हाल पाई I इसके बाद अंदर से बुरी तरह टूटी,चिटकी हुई अम्मा ने एक दिन अपनी सास को आंसू बहाते बहाते किसी से हिन्दी में खत लिखवाया कि ‘’अब वे वहाँ आना नहीं चाहती I पापा, वह घर, वहाँ के दरों-दीवार उनके लिए बेगाने हो गए हैं I सब कुछ छिन गया, अपनों ने ही छीन लिया I अब वहाँ उनकी जगह ही मिट गई, इसलिए वह वहाँ आकर क्या करेगी...!’
इधर पापा से उनकी माँ, बहने, भाई, बहनोई सभी नाराज़ और आहत बैठे थे I वे सब अम्मा का ऐसा दर्द भरा खत पढ़ कर और भी दुःख में डूब गए I सबने सोच विचार किया I टूटे घर को जितना संभव हो सके, उतना जोडने के लिए, अम्मा को बच्चों सहित ससम्मान घर वापिस लाने का फैसला लिया गया और बुआ व फूफा जी अम्मा को वापिस घर लिवा लाए I उसी घर में वापिस आकर, फिर से दूसरी नई ज़िंदगी जीने के लिए अम्मा ने जैसे ही कदम
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रखा, उनकी सास ने आगे बढकर, उन्हें अपने से चिपटा लिया I १९४८ में उनके इस नए जीवन का मज़बूत सहारा बनी - उनकी सास, जिन्होंने बेटे की ममता और प्यार सबसे ऊपर उठ कर,अपनी बहू को गले लगाकर इज़्ज़त से घर में रखा और मरते दम तक चट्टान की तरह अम्मा का सहारा बनी रहीं I इस तरह भावनात्मक, पारिवारिक, सामाजिक, जंग लड़ती-लड़ती, अम्मा पतिविहीन हुई, सास और बच्चों के सहारे पतिगृह में बिना ‘उफ़’ किए, अपने को सहज बना कर पापा से तहे दिल से वाबस्तगी बनाए हुए जीती रहीं I एक बार आंटी (दूसरी सास) और पापा में किसी बात पर लंबा मनमुटाव हुआ और फलत: आंटी उलटी, पेट दर्द से बेहाल हो, पलंग से लग गई I उस ज़रूरत के समय में अम्मा का ही दम ख़म था कि उन्होंने सब कुछ भुलाकर आंटी की दिनरात तब तक सेवा की जब तक वे पूरी तरह ठीक नहीं हो गई I सारे रिश्तेदार अम्मा द्वारा आंटी की जी जान से कि गई सेवा को देखकर चकित ही नहीं वरन सोच में डूबे थे कि वे इंसान हैं या कोई ‘देवी’....!!!देखते ही देखते अम्मा के दोनों बेटे बड़े हो गए और एक दिन दोंनों की बहुए भी घर आ गईं I अम्मा की दो बहुओं में, मैं छोटी थी और घर भर में छोटी थी I तो भारतीय परम्परा के अनुसार घर में जब भी कोई मेहमान आते, किसी तरह का उत्सव या त्यौहार होता, तो ‘महाराजिन’ के साथ खाने पीने, नाश्ते आदि की खास तैयारी के लिए सबसे छोटी होने के कारण मुझे उठना पडता I मैं तो अपनी पाक कला कि धाक जमाने के लिए खुशी - खुशी रसोई में जाती, पर अम्मा मेरा ख्याल करती, मेरे पीछे पीछे रसोई में आ जाती I मैं उनसे बहुत कहती कि वे चिंता न करें - मैं ‘महाराजिन’ के साथ मिल कर सब सम्हाल लूंगी , पर वे कहाँ मानने वाली; साथ ही लगी रहती I ऐसे ही जब कभी मेरी तबियत ज़रा सी भी खराब होती जैसे बुखार, खांसी जुकाम हो जाता तो वह मुझे आराम करने की सख्त हिदायत देकर, मेरे हिस्से के कामों को खुद सम्हाल लेतीं I कुछ बचे हुए काम नौकर के सुपुर्द कर, मेरे सिरहाने बैठ कर, माथे पे विक्स लगाती, सिर दबाती I जैसे यह सब करना उनका धर्म था I उनके इस ख्याल प्यार पर कई बार मेरी आँखें छलछाला आतीं I
अम्मा हद से ज्यादा सहनशील थीं I उनकी सहनशीलता देखकर मुझे ताज्जुब होता था I मेरी दादी सास बाद के सालों में लगातार बीमार रहने के कारण थोड़ी चिडचिडी सी हो गई थीं, इसलिए कभी-कभी अम्मा से ऊंचा बोल जाती थीं I लेकिन अम्मा कभी भी, ज़रा भी उनकी

तुनकमिजाजी पे खीझती नहीं देखी मैंने I हमेशा खामोशी से उनका काम करती रहती थी I इसी तरह एक दो बार ऐसा हुआ कि परीक्षा पास होने के कारण, मैं पढाई में लगी हुई होती थी, साथ-साथ घडी पे भी नज़र रहती है कि सबके लिए चाय बनानी है, घडी देखती जाती और अन्तिम पेज खत्म करने के चक्कर में ४-५ मिनट की देर हो जाती तो अम्मा मेरी परीक्षा और पढाई की चिंता करती, मेरे उठने से पहले चाय बना लेती और इतना ही नहीं, मेरे लिए कमरे में चाय लेकर भी आ जाती I इस तरह चाय का कप हाथ में लिए खडा देख, मैं हडबडा कर उठ खडी होती और शर्म से गडती हुई बोलती – अरे, अम्मा आपने क्यों चाय बनाई, मैं तो बस बनाने आ ही रही थी.... I’’तो वे तुरंत कहतीं -‘’क्या हुआ...तुम्हें पढाई का कितना काम रहता है आजकल, परीक्षा पास है, तुम्हें भी थोड़ी मदद की ज़रूरत है, सो मैंने बना ली चाय अपनी भी और तुम्हारी भी I ‘भाभी जी’ (दादी सास) तो अभी सो रही हैं. ‘’उनके ऐसे ख्याल व प्यार पर, हमेशा मैं ऊपरवाले का शुक्रिया अदा करती कि उसने मुझे इतनी पुरखुलूस और नेकदिल सास दी कि जिसमें मैं अपनी माँ को देखती और सोचती कि ऐसी ममतामयी सास ज़रूर मेरे पिछले जनम के किन्हीं अच्छे कर्मों के कारण ही मिली है I
अम्मा की उदारता के आगे तो कायनात भी शरमा जाए, इतना बड़ा दिल रखती थी वे I चूंकि आंटी के कोई बच्चा नहीं था और संतान विहीनता उन्हें सताती भी बहुत थी, इसलिए अम्मा आंटी के अंदर की संतान विहीन माँ की वेदना को बखूबी समझते हुए, इस बारे में उनकी भावनाओं का बड़ा ख्याल रखती थीं I भले ही, आंटी ने, अम्मा के अंदर असीम सुख से साँस लेती ‘पत्नी’ की पीड़ा की परवाह किए बिना, पापा से शादी कर ली थी, पर संवेदनशील अम्मा हर छोटे बड़े त्यौहार पर बहू बेटों से मिलने वाले सुख को आंटी पर न्यौछावर करना न भूलती I इसलिए करवा चतुर्थी, बड अमावस, सकट, अहोई अष्टमी आदि पर जब भी मेरा और भाभी (मेरी जेठानी) का उपवास होता तो अम्मा हम में से किसी एक का बयाना आंटी को दिलवाने के लिए कहती - ‘उसके (आंटी के) बच्चा नहीं है, मेरे पास बच्चे तो हैं, इसलिए तुममें से कोई एक अपना बयाना आंटी को दे आओ’ I अम्मा के बड़प्पन और नरम दिली पे मन ही मन कुर्बान होती मैं, अपना बयाना आंटी को ऐसी भावना से अभिभूत होकर देती - जैसे कि लंबे समय से तरसे इंसान को थाली में सजे पकवान ही नहीं, वरन ढेर सारा प्यार, सम्मान और मीठा-मीठा अपनापन परोस कर दे रहीं हूँ I उनके पैर छूती, गले लगती

और वे भी प्यार से आशीर्वाद देती I वाकई मैं देखती कि आंटी की खुशी का पारावार न रहता I एक दिन बाद ही आंटी बायने की थाली मिठाई, फल, गिफ्ट पैकेट के साथ खुद लिए खुशी-खुशी आती I दो-तीन घंटे हमारे साथ बैठती, बातें करती, चाय वगैरा पीती और खूब आशीष देकर जाती I इसके अलावा भी आंटी का जब मन होता अम्मा के पास आकर बैठ जाती और पापा की शिकायतें करती I अम्मा खामोशी से उन्हें दिल की भड़ास निकाल लेने देती और अंत में समझाती कि ’यूं नॉ, ही इज लाइक देट. डोंट फील हर्ट. मोरोवर मेल्स आर केयरलैस. यू सी, आय एम ओवर एंड एबव आल दीज़ थिंग्स, सो यू आलसो टेक इट ईजी.’ यद्यपि आंटी के लिए अम्मा की यह उदारता और सद्भावना मुझे अम्मा के प्रति विशेष आदर भाव से भर देती, पर कभी कभी खल भी जाती I मै सोचती कभी तो अम्मा, आंटी से तीखा बोल सकती हैं, खासकर ऐसे मौकों पे जब वे पापा की शिकायतों का पुलिंदा लिए अम्मा के पास आती हैं जिससे आंटी को उनके खुद के द्वारा, अम्मा के प्रति हुए अन्याय का एहसास हो, उन्हें याद आए कि उन्होंने प्यार के जुनून में किस तरह और क्यों कर अम्मा का घर उजाड दिया था ? दूसरी ओर अम्मा थी कि उनके मुंह से कभी भी मैंने पापा के खिलाफ एक भी शब्द नहीं सुना I अम्मा न जाने कैसी संत सी थी कि उन्हें आंटी से ईर्ष्या, द्वेष, वैर भाव कुछ भी महसूस नहीं होता था I वे शायद इन सब विकारों से ऊपर उठ गई थीं I उन्हें जो कुछ भी महसूस होना था, वह बस तभी हुआ था, जब हिम्मतनगर में उन्हें दिल चीर देने वाली खबर मिली थी I लेकिन उसके बाद जब उन्होंने दोबारा ससुरालवालों के आग्रह और मिन्नतें करने पे, घर में कदम रखा था तो मानों धरती की सहनशीलता, चाँद की शीतलता, समुद्र की विशालता अपने में समेट कर साथ ले आईं थीं I टूटने के बाद मैंने किसी इंसान को इतना शांत, और आर्गेनाइज्ड नहीं देखा था !! अम्मा को झील की मानिंद ठहरा हुआ देख कर, कई बार मेरा अंतर्मन हिल हिल जाता I कभी वे मंदिर जैसी शांत और दिव्य लगती I जैसे पाक साफ़, स्तब्ध, शांत मंदिर में हर तरह का इंसान आकर अपना दुखडा कहता है, अपनी समस्याएँ बयान करता है - ठीक वैसे ही अम्मा के पास आंटी, आसपास रहने वाले रिश्तेदार आते, बैठते, अपनी घरेलू कलह, मानसिक अशांति, दुःख दर्द कहते और अम्मा असीम शांत भाव से सबकी बातें सुन कर,मुस्कुरा कर कुछ समझाती, बुदबुदाती सी सबका ताप हर लेती I उस क्षण तो वे मुझे मंदिर से भी

अधिक पवित्र, शांत और निश्छल लगती I इससे भी अधिक हैरत तो मुझे तब होती जब पापा भी रोज, बिना नागा ११ बजे के लगभग घर आते, अम्मा उन्हें महाराष्ट्र की फ्रेश काफी पिलाती, खुद भी पीती I दोनों मित्रों की तरह; बच्चों, घर के बाग बगीचे, दुनिया की ताज़ा खबरों की चर्चा करते चिडे चिड़िया की तरह चहचहाते बैठे रहते I काफी पीकर, तारो-ताज़ा होकर, एक घंटा बैठ कर, ठीक १२ बजे पापा क्लीनिक में चले जाते I मतलब कि पापा का लंच से पहले का ‘काफी ब्रेक’ पुश्तैनी घर में होता I हम लोगों को भी पापा पुकार-पुकार कर हाल चाल पूछते और मैं पलभर को उनसे मिलकर, बच्चों को समेटती अपने कमरे में ले आती, जिससे सिर्फ अम्मा और पापा, कम से कम सामान्य बातें ही करते हुए, कुछ समय एक दूसरे के साथ गुज़ार सकें I एक बार निकट रिश्ते की फुआ सास ने अम्मा से पापा की खूब आलोचना करी, यह सोच कर कि अम्मा को कुछ भी बुरा नहीं लगेगा क्योंकि वे तो खुद पापा के अन्याय के कारण उनके खिलाफ होगी I शांत,मृदु भाषी अम्मा, अपनी उस ननद से कुछ न बोल कर, चहरे पे मंद मुस्कान लिए पापा की आलोचना का गरल चुपचाप पीती रही I जब वे चलने को उठ खडी हुई तो - वही कम से कम शब्दों में अर्थपूर्ण बात कहना जैसे कि अम्मा की आदत थी; बोली –
‘’जीजी, आई डिड नौट लाइक योर बिटर कमैंट्स अबाउट हिम (पापा) ,नैकस्ट टाइम ट्राय टू स्पीक एबाउट हिज गुडनैस आल्सो . ‘’
यह सुनकर फुआ सास पहले तो मुंह बाए उन्हें देखती रह गई, फिर बेसाख्ता हंसने लगीं और उनकी पीठ पे हाथ फेरती बोली – ‘’ भई मान गए बहूरानी ! तुम जैसी पति भक्त तो तीन लोकों में भी खोजे नहीं मिलेगी I’’ अपने कमरे से निकलते हुए जब फुआ सास के अम्मा की तारीफ़ में ये शब्द मैंने सुने तो मैंने भी हाँ में हाँ मिलाई कि सच में अम्मा जैसी पति भक्त नहीं मिलेगी....!
अम्मा मेरी सास कम और सहेली ज़्यादा थीं I हमारा घर चारों ओर हरियाली से घिरा था I पडदादा की बनवाई हुई अंग्रेजों के जमाने की कोठी, जो कोठी कम बंगला अधिक थी क्योंकि कमरों में सर्दी से बचने के लिए फायर प्लेस बने हुए थे, ऊंची, ऊंची छत वाले कमरों में दो-दो रौशनदान और चार-चार दरवाजे थे I उसकी समूची बनावट बंगले की तरह ‘काम्पैक्ट’
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थी I उसके सामने मखमली लान;लान के इर्द गिर्द फूलों की क्यारियां, आलू बुखारे, नाशपाती, आम, अनार, शरीफे के पेड़, एक ओर अंगूर की बेल, करौंदे की झाडियाँ उसे और खूबसूरत बनाती थी I घर के पीछे, किचन गार्डन, और कटहल के पेड़ I लान और घर के बीच एक परमानेंट बैडमिन्टन कोर्ट बना हुआ था जिसमें घर के पुरुष ही नहीं बल्कि हम सास - बहुएं भी बैडमिन्टन खेलती थीं I अम्मा अक्सर ही मेरे साथ शाम को बिना नागा बैडमिन्टन खेलती थीं I किसी दिन हवा तेज होने के कारण यदि हम बैडमिन्टन नहीं खेल पाते, तो घर के मेन गेट से अंदर तक बने रास्ते पर अम्मा और मैं एक - डेढ़ घंटा बातें करती टहलती रहती I
जब कभी भी घर में संगीत का माहौल जमता और सब बैठ कर बारी बारी से गाने गाते तो हम अम्मा के पीछे पड़ जाते कि उन्हें गाना, गाना पड़ेगा I हमारी जिद देखकर उन्हें हथियार डालने पड़ते और फिर वह अपनी मधुर आवाज़ में जब दिल को सालने वाले अक्सर ये दो गाने सुनाती..........
‘१) तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक है तुमको, मेरी बात और है मैंने तो मुहब्बत की है...,
२) दिल जलता है तो जलने दे, आंसू न बहा फ़रियाद न कर.....
तो इन्हें सुन कर मेरा दिल बेहद भारी हो जाता और मैं बामुश्किल अपने आंसू पिए अम्मा के दर्द को अंदर ही अंदर महसूस करती बैठी रहती I
अम्मा महीने में एक बार ‘पोरनपोली’ और इलायची मेवा डालकर ‘श्रीखंड’ बनाती और हम सब चाव से खाते नहीं अघाते I इसके अलावा अम्मा लहसुन, तिल,सीन्गदाने और नारियल की सूखी चटनी बना कर भी रखती जो महीने भर चलती I गर्मियों में आंधी चलने पे, बगीचे में कच्चे आमों का ढेर लग जाता I अम्मा मराठी मसाले वाला आम का अचार डालती I वे उपमा और पोहे बहुत अच्छे, खिलेखिले बनाती थी I पानी, नमक, राई, मूंगफली के तेल का इतना परफैक्ट कांबीनेशन होता था कि हम कितना भी खाए, हमारा मन ही नहीं भरता था I बेसन की नमकीन कतली और लडडू तो इतने स्वादिष्ट बनाती थी कि घर

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वालों के साथ साथ आने जाने वाले मेहमानो को भी वे तब तक खिलाए जाते, जब तक खत्म न हो जाते I
मेरे बेटे बेटी को तो वे इतना प्यार करती, इतना लाड लड़ाती कि वे दोंनो उन्हें छोडते ही नहीं थे I हर पल अम्मा के सिर पे सवार रहते I मैं दोंनो को कभी डांटती भी कि अम्मा को आराम करने दो तो वे डांटने भी न देती I उनके इशारों पे नाचती रहती I मुझे अक्सर समझाती कि ‘’अभी दोनों बहुत छोटे हैं, इन पर अधिक पाबंदियां मत लगाओ, बड़े होते होते देखना दोंनो कैसे डिस्प्लिन्ड हो जाएगे, अभी तो इनके राज करने के दिन हैं !’’ मैं चुप हो जाती I वे दोंनो मक्कार मुस्कुराते गर्व से सिर अकडा कर मुझे ऐसे देखते; जैसे कह रहे हों और डाटो हमें, देखा अम्मा हमारी साइड हैं....!! दोनों बच्चों का हर काम – पढाई लिखाई से लेकर खेल कूद तक; सब अम्मा के पलंग से लेकर कमरे में चारों ओर फैला होता I वे बेचारी पंलग से खिसकती खिसकती अपनी आराम कुर्सी में सिमट जाती और शौक से दोनों की क्रिएटिविटी, तरह तरह के खेल देखती बैठी रहती I कभी कभी जब दोनों दुष्ट अम्मा के साथ ताश खेलते, तो शर्त रखते कि अम्मा को उनसे हारना पडेगा, तभी वे ताश खेलेगें I अम्मा उन्हें खुश करने के लिए खूब हारती रहती और खुश होती रहती I सोती हुई अम्मा को मेरे शरारती बेटे न जाने कितनी बार ‘स्पाइडर मैन‘ बन कर सिर से पाँव तक रील के धागे से जाल बना कर कैद किया I सोते इंसान पे वह नटखट ऎसी सफाई से और होशियारी से बारीक जाल तान देता था कि देख कर हैरत होती थी I नींद से एकाएक उठी अम्मा बाथरूम जाना चाहती तो उस जाल में असहाय सी पडी मुझे आवाज़ लगाती कि देखो इस पाजी ने फिर जाल बना दिया, मुझे जल्दी से निकालो I तब मैं आवाज़ सुनकर दौडी जाती और कैचीं से चारों तरफ से उस जाल को काटती जाती और बेटे को सज़ा देने की सोचती जाती I जब तक उसे सज़ा देने की बात आती, वह अम्मा के गले में बाँहें डाल कर, गोदी में ऐसा दुबकता कि अम्मा उस पे प्यार बरसाते न थकती I मैं खीज कर कहती – ‘इन दादी पोते का कोई इलाज नहीं, इनके जो बीच में पड़े,वो ही मूर्ख बने’....और उनके फिर किस्से - कहानी, शैतानियाँ होने लगती I ऐसे ही मेरी बेटी को वे रोज शाम को घुमाने ले जाती थी I तब तक बेटा नहीं हुआ था I उस समय वह ५ साल की रही होगी I उसने न जाने कब अम्मा से खेल खेल में छोटी सलाई लेकर
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थोड़े बहुत फंदे इधर से उधर करना सीख लिया था और बड़ों की तरह बुनाई की नक़ल करती थी I उसे बुनाई का इतना शौक चर्राया कि, जब अम्मा शाम को उसे घुमाने ले जाती तो, वह बुनती हुई आगे आगे चलती और अम्मा को ऊन का नन्हा सा गोला पकड़ा कर पीछे पीछे चलाती I अम्मा भी उसका कहना मान कर वैसे ही करती I मुझे दादी पोती के घूमने का यह अनोखा अंदाज़ पता न था I वो तो मैं एक दिन शाम को कालिज से इन्विजीलेशन करके लौट रही थी तो सड़क पर बाई ओर पैदल रास्ते पर दोनों को इस तरह आगे पीछे चलते, और बेटी को बुनाई करते चलते देखा तो बड़ी हँसी आई और चिंता अधिक हुई कि नीचे देख कर न चलने से अगर वह ठोकर खाकर गिर जाए तो अम्मा कैसे अकेले उसे सम्हालेगी, और वैसे भी वह अम्मा का घूमना कम पोती की हुक्म फरमानी अधिक हो रही थी I फिर मैंने किसी तरह समझा का उन दोनों का इस तरह भीड़ भरी सडक पे घूमने जाना बंद किया I मतलब यह कि अम्मा बच्चों का कहा कुछ भी सिर झुका कर ऐसे मानती थी जैसे वे बादशाह हैं और उनका कहा न मानने से क़यामत आ जाएगी I

अम्मा को उदात्त संस्कार और मूल्य अपने आई - बाबा से विरासत में मिले थे, जिनका प्रमाण अम्मा और उनकी बहनों के उस उदार निर्णय व प्रेम भाव में भी मुझे मिला, जो उन्होंने अपने भाई के लिए जमीन जायदाद के संबंध में लिया था I चूंकि सब बहने पढ़ी लिखी और समर्थ थी, उस पर सौभाग्य से, शिक्षित व संपन्न घरानों में ब्याही गई थी, इसलिए किसी ने भी ज़मीन जायदाद को लेकर कभी भी किसी तरह की मांग या छीन झपट जैसी नीयत नहीं रखी, जबकि मामा चाहते थे कि सब बहनों को बराबर हिस्सा मिले I लेकिन बहनों ने बहुत प्यार और सम्मान के साथ ज़बरदस्ती अपने भाई को सारी जायदाद का मालिक बनाया और अपना हक छोड़ दिया I जबकि कुछ घरों में भाई - बहन, भरपूर सम्पन्नता होने पर भी पाई-पाई के लिए मुकदमे करते देखे गए हैं या कोई एक कब्ज़ा जमा लेता है तो, ताउम्र उस भाई को कोसते नहीं अघाते I लेकिन अम्मा इस तरह की तेर-मेर से दूर एकदम निश्छल और शांत थीं I उनमें सहज ही शालीनता और सभ्यता कूट - कूट कर भरी थी I वही शालीनता और सभ्यता, संस्कार व मूल्य ससुराल में भी उनके हर छोटे बड़े कामों में बने रहे I पापा से उपेक्षित होकर भी पापा के लिए करवा चतुर्थी, सकट, बड अमावस का
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उपवास तहे दिल से रखना उनके संस्कारों का खूबसूरत सबूत था I अपने पूजा स्थान में वे दो तस्वीरें रखती थी, शिरडी साईँ बाबा की और आर्मी ड्रेस पहने हुए पापा की I कमाल थी मेरी अम्मा .....!!
एक बार पापा की पोस्टिंग रांची हुई I वहाँ उनको जो घर मिला था, उसके चारों ओर जंगलनुमा हरियाली फैली हुई थी I अम्मा बताती थीं कि बंगले के बरामदे में पानी का एक कच्चा मटका रखा रहता था I एक बार गर्मियों के दिनों में सांप का एक जोड़ा उसके नीचे ठंडक पाने के लिए आ दुबका I पापा की उस सांप के जोड़े पे नज़र पड़ गई I उन्होंने तुरंत एक मज़बूत डंडा लेकर उस जोड़े को आनन फानन में मार डाला I उस घटना से भावुक और धर्म भीरू अम्मा के मन में भय बैठ गया कि पापा ने सांप का जोड़ा बेदर्दी से मार डाला, घर में आने वाले समय में न जाने क्या अनर्थ होगा I पापा एक तो डाक्टर, ऊपर से फ़ौज में, वह सांप को देवता मानने जैसी धारणा के पक्षपाती नहीं थे I लेकिन अम्मा का तो ऎसी लोक अनुभवों पर आधारित धारणाओं पे अटूट विश्वास था I कुछ वर्ष बाद अम्मा के दिल में बैठा भय ‘सच’ साबित हुआ I कभी ‘अगस्त’ के महीने में ही पापा ने सांप का जोड़ा मारा था और उस घटना के कुछ साल बाद ‘अगस्त’ महीने में ही अम्मा - पापा का अलगाव, आंटी से शादी हो जाने के कारण हुआ I इसे कुदरत की सज़ा कहें या सांप के जोड़े का अभिशाप, लेकिन ठीक उसी महीने में अम्मा पापा के वैवाहिक जीवन में दरार पडी, जो अम्मा के लिए बहुत अधिक अजीयत का कारण बनी I अम्मा से तो जैसे खुशियो ने मुंह मोड ही लिया था, पर पापा भी दूसरी शादी करके कभी खुश न रह सके और न आंटी I
इस सांप की घटना के सन्दर्भ में एक और हैरत में डालने वाली बात अम्मा ने मुझे बताई थीं I अम्मा ने बताया कि १९६० की बात है जब एक दिन वह बरामदे में बैठी हुई थी, तभी एक फक्कड साधु भिक्षा मांगता, भजन गाता दरवाजे पर आ खडा हुआ I अम्मा ने उसे आटा, चावल और कुछ फल दिए, जैसे ही वह जाने के लिए मुडा, अम्मा के मन में एकाएक एक सवाल उठा, वे अपने को रोक न सकी और उस ‘साधु बाबा’ से दिल में बड़ी उम्मीद लिए बोली –
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‘’बाबा ! यह तो बताइए कि मेरी किस्मत में क्या लिखा है....? ‘’
बाबा पलट कर, निश्छल मुस्कान के साथ पहले ऊपर आकाश को और फिर अम्मा के ललाट को भेदती नजरो से देख कर, आँखें मूँदता हुआ बोला –
‘’बेटी ! अब से कुछ साल पहले इस घर के किसी आदमी ने, कहीं एक सांप का जोड़ा मार दिया था; तब से इस घर पर ‘प्रेमी जोड़ो’ के अलग होने का अभिशाप है I तेरी इस पीढ़ी के बाद, आने वाली दो और पीढ़ियों तक, जिस लडके का भी प्रेम विवाह होगा, वह एक तो, लड़की के घरवालों की मर्जी के खिलाफ होगा और कुछ साल बाद उनमें तलाक अवश्य होगा I इसलिए बेटी तेरी किस्मत में दुःख उस आदमी के कारण है जिसने सांप का जोड़ा मारा था I जो गलती हुई सो हुई, इस जनम में तुझे यह दुःख तो देखना ही होगा I भगवान में मन लगा, शान्ति मिलेगी I’’
साधु के मुंह से बरसों पहले सांप के जोड़े को मारने की घटना यों अचानक सुन कर हैरान हुई अम्मा का मन अपने बच्चों को लेकर अशांत हो गया I धीरे धीरे समय के साथ, साधु के शब्द अम्मा के चेतन मन में तो धुंधले होते गए, पर अवचेतन में शायद कुंडली मार कर बैठ गए थे, तभी तो बीस साल बाद मुझसे उन्होंने उस साधु की भविष्य वाणी का ज़िक्र किया I मैंने भी ध्यान से अम्मा की एक - एक बात सुनी और फिर मैं भी उसे भुला बैठी I लेकिन साधु की भविष्य वाणी अम्मा को एकाएक तब सच होती लगी, जब उस घर का दूसरा प्रेम विवाह में बंधा जोड़ा, यानी उनका छोटा बेटा और बहू (मैं), दुर्भाग्य से अलग होने की कगार पर जा पहुंचे I हमारा भी प्रेम विवाह था, लेकिन मेरी माँ बिलकुल नहीं चाहती थी कि यह रिश्ता हो, एकदम खिलाफ थीं I मेरे पर जान कुर्बान करने को तैयार, यहाँ तक कि मेरे मामा और माँ द्वारा मना कर दिए जाने पर दो बार आत्महत्या की सच में ‘जानलेवा’ कोशिश करने वाले‘इनसे’ मैं इतनी आश्वस्त और अभीभूत हो गई थी कि मुझे दुनिया में इन जैसा वफादार कोई नज़र ही नहीं आता था I अपने लिए इनके लगाव और निष्ठा को देखकर, जब मैंने भी अपनी माँ को हिचकते हुए अपना निर्णय सुनाया तो वह बड़ी दुखी हुई, लेकिन बाद में सबके समझाने पर, इनके साथ मेरी शादी करने कि लिए मान गई I शादी हो गई, हमारा जीवन भी बेइंतहा खुशियों से भरपूर था और एक दिन वो आया कि ‘ओशो और पूना
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का ओशो आश्रम’ हमारे तलाक का कारण बन गया I सबके लाख कोशिशे करने के बावजूद भी, तलाक हो कर रहा I जब मैंने अम्मा से आंसू बहाते हुए कहा कि जिस ‘वफादारी’ के कारण, माँ के खिलाफ होने के बावजूद भी मैं इनसे शादी करने को तैयार हो गई थी, जब वो ‘वफादारी’ ही खत्म हो गई तो मेरा इस घर में रहने क्या अर्थ ? न इन्हें बच्चों का ख्याल, ना मेरा ख्याल रहा था, बस ‘आचार्य रजनीश’ और उनका आश्रम ही सब कुछ था I ओशो के चेले - चेलियां और ओशो आश्रम ही इनका घर परिवार बन चुका था I लंबे - लंबे समय के लिए घर से गायब और मै ही नहीं, घर के और सब लोग भी परेशान व आशंकित रहने लगे थे I हममे ही नही बल्कि अपनी नौकरी में भी इनकी रूचि खत्म हो चुकी थी I सब कुछ भुला कर ऐसे ‘ओशोमय’ हुए कि ओशो के हाथों दीक्षित भी हो गए I मेरा तो नामोंनिशा ही मिट चुका था इनकी ज़िंदगी से I
इतिहास ने एक बार अपने को फिर दोहराया हमारे अलगाव के रूप में I मेरी ऐसी घनघोर पीड़ा और तकलीफ के समय में, अम्मा ने मुझे भरपूर सहारा दिया I अलगाव के कष्ट से गुजरी अम्मा ने बेटे से प्यार होते हुए भी, मेरी पीठ पे जिस प्यार और अपनत्व से हाथ रखकर,अनेक बार गले लगा कर जो भावनात्मक सहारा दिया उसे मैं कभी नहीं भुला सकती I सांप के जोड़े का अभिशाप या किस्मत का खेल - अनहोनी होनी बनी और अंतत: हमारा तलाक होकर रहा और तलाक होते ही इन्होने एक ओशो जर्मन चेली से शादी कर ली I
घर के बुज़ुर्ग, बड़े दमदार लोग चाहते हुए भी कुछ न कर सके, जैसे अम्मा पापा के अलगाव के समय कोई कुछ नहीं कर पाया था ठीक वैसे ही इस बार भी कोई कुछ नहीं कर पाया I सबको बड़ा दुःख और अफसोस हुआ I पर मैं तलाक के बाद भी घर भर की चहेती बहू बनी रही और खासतौर से अम्मा की ‘सहेली बहू’ I अलग होने के बाद भी अम्मा मुझे घर बुलाती, खूब प्यार बरसाती, खिलाती पिलाती, पहले की तरह हम बातें करते लकिन जब मैं चलने के लिए उठ खडी होती तो अम्मा का और मेरा - हम दोनों का दिल भर आता I लेकिन हम दोनों बहादुरी से उस पल को झेलते, वह मुझे बिदा करती और फिर बुलाती I मेरे से और बच्चों से उनके लगाव की यह इन्तहा थी कि मेरे घर से अलग हो जाने के बाद भी, अम्मा ने हमारी रिक्तता को भरने के लिए चार - पांच साल तक मेरे बेटे को अपने पास ही रखा I बेटी और मै लगातार उनसे व सब
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घर वालों से मिलने जाते रहे I आज तक मेरे ससुराल वाले मेरे संपर्क में हैं, खूब फोन करते हैं, मिलने आते हैं, शादी ब्याह पर मुझे बुलाते हैं, तीज त्यौहारों पर हमेशा मुझे शुभकामनाएं और समय समय पर उपहार देते हैं I मैं कभी भी अपने ससुरालवालों का और खासतौर से अपनी सास का अपनापन नहीं भूल सकती I तो ऎसी जीवट वाली और मनोबल बढाने वाली थीं मेरी अम्मा I वह मेरे लिए ‘अम्मा’ बन के ही धरती पर आई थी, सास तो नाम भर के लिए ही थीं I भले ही अम्मा वैवाहिक जीवन में, केन्द्र से हट कर हाशिए पर रही किन्तु ससुराल के भरे पूरे पारिवारिक जीवन में, हमेशा घर की धुरी की तरह केन्द्र में बनी रहीं I अम्मा सदा ही सबसे अधिक ‘चहेती बहू’ और बाद में ‘सम्माननीय सास’ के ओहदे पर गरिमा के साथ विराजमान रही I उनके त्याग, उनकी हिम्मत, सहनशीलता, सबके प्रति आदर भाव ने, उन्हें सबकी आँखों का तारा बनाया I अम्मा ने हमेशा आंटी को छोटी बहन की तरह माना इसलिए ही आंटी परेशान होने पर, बेखटके हमेशा अम्मा के पास आती और अपने राज़ उनसे बांटती थी I प्यार से दुश्मन को अपना बनाने की कहावत सुनी ज़रूर थी मैंने पर अम्मा में मैंने उसे सच होते देखा था I अगर मैं कहूँ कि अम्मा इंसान होते हुए भी अलौकिक गुणों से भरपूर थी, तो शायद अत्युक्ति न होगी I आज भी ग्यारह जनवरी को उनके जन्मदिन पर, उन्हें याद करके, मेरी आँखें नम हो आती हैं और मैं दिल में बेइंतहा प्यार लिए, उनके लिए कामना करती हूँ, दुआ करती हूँ कि वे अब जहां भी हो, भरपूर सुख और सुकून में हों ! नई ज़िंदगी में ईश्वर उन पर इतनी खुशियाँ बरसाए कि पिछले जन्म की भी कमी पूरी हो जाए....!!
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