Sunday, July 18, 2010

अलगाव से लगाव तक

‘ मुझे पता था तुम यही कहोगी’
‘पता था तो आपने पूछा ही क्यूँ ‘
‘क्यूँ का क्या सवाल, पति हूँ तुम्हारा, पूछना मेरा हक़ है ‘
‘हक़ तो आप ख़ूब जानते हैं कभी कर्तव्यों पे भी नज़र डाली है ‘
‘ओफ़्फो, तुमसे तो कुछ भी कहना बेकार है, ठीक है एक कप चाय दो जल्दी से ‘
‘ये घर है कि धरमशाला ? जब देखो कभी ताई, कभी मौसी, कभी चाचा-चाची चले आते हैं और दो दिन नहीं बल्कि दो-दो हफ़्तों तक जाना भूल जाते हैं ‘
‘चाय के साथ कुछ लोगे क्या ‘
‘पूछ क्या रही हो, अपने आप से कुछ नहीं ला सकती क्या ‘
‘अरे, अजीब बात करते है, आप अक्सर ही खाली चाय पीते हैं दफ़्तर से आकर ‘
‘तो फिर पूछा ही क्यों ‘
‘यूँ ही कभी-कभी आपका चाय के साथ कुछ हल्का फुल्का खाने का मन कर आता है, सो...’
‘तुम या तो समझदार ही हो जाओ या नासमझ ‘
‘मैं तो समझदार ही हूँ, अब तुम्हें नज़र नहीं आती – वो अलग बात है ‘
ये कपड़ों का ढेर बिस्तर पे क्यों पड़ा है, देखो सारा कमरा कैसा बेतरतीब है ‘
‘क्या करूँ सारे दिन चक्की की तरह पिसती रहती हूँ – सफ़ाई, झाड़ू, खाना,बर्तन. कपड़े धोने – सुखाने – सारा दिन ऐसा निकल जाता है कि साँस लेने की भी फ़ुर्सत नहीं मिलती, फिर भी काम नहीं निबटते ‘
‘हुँह काम नहीं निबटते......तुम हो ही फूहड़ ’
‘चलो फूहड़ ही सही, पर घर तो सम्भाल ही रही हूँ। महीनो भर ढेरों मेहमानों की आवभगत, सेवा टहल ये फूहड़ ही कर रही है ‘
‘बबली को एडमीशन के लिए कल स्कूल लेकर गई ? ’
‘गई थी, हो गया दाखिला, उसकी स्कूल ड्रेस और कॉपी – किताब आनी हैं ‘
‘ठीक है, शाम को ले आऊँगा। और कुछ ?’
‘मेरठ वाली ताई जी परसों जाने वाली हैं। उनके लिए चौड़े किनारे वाली हैन्डलूम की एक साड़ी लानी है ‘
‘हे भगवान, अगर मैं इसी तरह लेन- देन की साड़ियाँ लाता रहा तो महीने का खर्च कैसे चलेगा ‘
‘मैं क्या जानूँ, अम्मा जी नाराज़ हो जायेगी। दस बात मुझे सुननी पड़ेगी। कुछ भेंट तो ताई जी को देनी ही है, अम्मा जी चाहती हैं कि हैन्डलूम की एक साड़ी दी जाए‘
‘घड़ी ने 8 बजाए। बाबू जी कमरे से बोले – ‘बहू खाना बन गया क्या ?’
कला ने झटपट थाली लगाकर बबली के हाथ बाबू जी के कमरे में भिजवाई। फिर बारी-बारी से ताई जी, अम्मा जी, कपिल,बबली, ननद और देवर को गरम-गरम खाना खिलाया। अंत में बचा खुचा खाना किसी तरह जल्दी-जल्दी निगल कर, चौके की सफाई की और ग्यारह बजते-बजते दिन भर की थकी हारी बिस्तर पे पड़ते ही सो गई।
सुब्ह चार बजे कला जगह-जगह से दुखते बदन को किसी तरह समेटती हुई उठी। दिल और शरीर साथ नहीं दे रहे थे। तभी दिमाग ने कला के निढाल शरार में कर्तव्यनिष्ठता की चाबी भरी और वह एकाएक उर्जा से भर कर घर की झाड़ू, साज-सफाई में लग गई। रोज़मर्रा की तरह मशीनी रफ़्तार से नहा धोकर, रसोई में घुस गई। सबके उठने से पहले, सुब्ह की गरम-गरम अदरक और तुलसी की चाय बनाई और सबको कमरों में दे आई। फिर पूजाघर में धूप बत्ती जलाकर ‘रामरक्षा स्त्रोत’ का जाप किया। इसके बाद खुद ने रसोई में चलते फिरते, सब्ज़ी बिनारते, दाल-चावल बीनते-धोते, गरम से गुनगुनी हुई अपनी चाय टुकड़ा-टुकड़ा पी। नौ बजे कपिल को लंच बॉक्स तैयार करके दिया और बबली को भी स्कूल बैग, लंच बॉक्स, वाटर बॉटल देकर कपिल के हवाले किया जिससे वह रास्ते में उसे स्कूल में छोड़ सके। इसके बाद सारे दिन इस काम, उस काम में रोबोट की तरह लगातार लगी रही।
‘अरे कला,गुसलख़ाने में अभी तक मेरे धुले कपड़े ऐसे ही रखे हैं....फैलाए नहीं तुमने।‘ आजकल की बहुएँ भी न बस.....अम्मा जी उलाहना देती गुसलख़ाने के पास से गुजरी तो चावल पकाती कला अपने दिलोदिमाग़ को साधती मृदुता के साथ बोली – ‘अभी फैलाए देती हूँ अम्माजी। रसोई के काम में भूल गई।‘
कला रोनी-रोनी सी कपड़े झटकती, सन्न सी सोचती रही कि सबकी ज़रूरत पूरी करती हूँ। बहू, पत्नी, भाभी और माँ के सारे कर्तव्य कभी भी उफ़ किए बिना निबाहती हूँ, पर कोई मेरी ज़रूरत, एक मुठ्ठी ख़ुशी, एक पल के आराम का ज़रा भी ख़्याल करता है ? बड़ी कठिन है ज़िन्दगी...!
तीन बजे ऑफ़िस से कपिल का फ़ोन आया कि आज शाम को वह साथ चलने को तैयार रहे, एक साथी के घर बच्चे के जन्मदिन पे ज़रूरी जाना है। कला कुछ कह पाती, इससे पहले कपिल ने फोन काट दिया। कला को बहुत बुरा लगा। सोचने लगी इतनी बेइज़्ज़ती तो किसी मातहत की भी नहीं होती, फिर वह तो पत्नी है। उसकी स्थिति तो एक मातहत से भी गई गुज़री हो गई.... ? वह दासी है, या ख़रीदी हुई गुलाम, क्या है वह.... ? उसका दिल कसैला हो उठा। वितृष्णा की तीखी लहर सिर से पाँव तक उसे कड़ुवाहट से भर गई। विवाह प्रेम-बंधन है या गुलामी का अनुबंध ?

शाम को कपिल ने आते ही चाय बाद में पी, पहले कला को ताना मारा – ‘अभी ऐसे ही उधड़ी-उधड़ी फिर रही हो! कब तैयार होओगी जाने के लिए,जब दोस्त के घर पार्टी ख़त्म हो जाएगी ? सबके आदेश का पालन करती हो, बस मेरा ही कहना मानने में ज़ोर पड़ता है...! पति का साथ देना आता है तुम्हें.....घर के काम तो कभी ख़त्म होंगे नहीं...कुछ अक्ल से काम लेना सीखो।‘
कला रुआं सी हो गई। किसी बहस में न पड़कर, किसी तरह ताक़त बटोरती सी बोली –
‘बस अभी तैयार होती हूँ।‘
गति से तार पे फैले कपड़ों को समेटती, उन्हें कमरे के कोने में रखे मूढ़े पे रख कर वह बामुश्किल तैयार हो पाई। इस दौरान अम्मा, बाबू जी, ताई जी सभी की एक बाद एक मांगें तीर की तरह उस पे पड़ती रहीं। कपिल घर वालों पे मन में घुमड़ते नपुंसक क्रोध को दबाता हुआ, कुढ़ता बैठा रहा। छ: बजते-बजते दोनों किसी तरह घर से निकले। रास्ते भर वह स्कूटर चलाता कला से जली भुनी बातें करता रहा। दोस्त के घर पहुँचने तक उसका दिल कला पे अपनी खीझ निकाल कर काफ़ी हल्का हो चुका था और कला का दिल पनैले बादल की मानिन्द भारी जो कहीं भी, कभी भी फट सकता था। लेकिन समझदार और साहसी कला ने उपने मन को सहेज समेट कर व्यवहारिकता का चेहरा ओढ़ा और कपिल के पीछे-पीछे जन्मदिन के हर्षोल्लास से भरे घर में दाख़िल हुई। दोनों बड़ी नम्रता और मुस्कुराहट के साथ सबसे मिले। बातें, चाय-नाश्ता, बच्चों के नाच-गाने, इन सबके बीच भी होकर भी कला दिलो-दिमाग से अपनी ससुराल में ही थी। उसका ध्यान घर के अधूरे पड़े कामों में ही अटका था। वे उसके जीवन का न चाहते हुए भी ऐसा हिस्सा बन चुके थे कि वह मानसिक और शारीरिक रूप से उन्हें ही समेटने में लगी रहती थी। आठ बजे तक सबसे विदा लेकर दोनों घर के लिए रवाना हुए। कपिल रास्ते भर मेजबान मिसेज़ सेठी की आवभगत, व्यवहार कुशलता, रूप-गुण की तारीफ़ों के पुल बाँधता रहा।

उस रात कपिल पहली बार कला की ओर रूखेपन से करवट लेकर सोया। कामों के बोझ से थकी हारी कला ने उस पल सच में अपनी हार को मानो कपिल की पीठ से अपने पर बेदर्दी से हावी होते हुए देखा। कोमा में अवचेतन पड़े इंसान की तरह वह सुन्न पड़ी रही। इससे पूर्व आज तक कपिल ने कितनी भी कड़वी बातें उसे कही, पर कभी इस तरह करवट लेकर सारी रात अजनबी बनकर नहीं सोया। कितना भी थका,खीझा या कड़वाहट से भरा हो वह, किन्तु सोने से पहले कला को आगोश में ज़रूर लेता था। इन दस सालों में कपिल की कड़वी से कड़वी बातों ने उसे ऐसा आहत नहीं किया जैसा कि आज उसकी करवट ने तोड़ डाला। कला किसी अप्रिय अनहोनी की आहट से भयभीत न जाने कब कैसे सो पाई।

अगले दिन कला को कुछ याद न था सिवाय के कपिल का चेतावनी देता रूखापन। पिछले दस सालों में उसकी सारी उर्जा, ताकत इस कदर चुक गई थी कि उसमें प्रतिरोध करने की क्षमता शून्य हो चुकी थी। कल रात की घटना से तो जैसे उसकी जिजीविषा ही मर गई थी। कपिल उसका पति, उसका जीवन, जीने का सहारा था, पर आज वह उसके होते हुए भी कितनी बेसहारा और मृतप्राय: थी.....! उसने अपने को इतना तिरस्कृत, इतना एकाकी कभी नहीं पाया था। कला का मन भयावह आशंका से बोझिल था।

कई दिनों तक कपिल का वही रवैया रहा, जैसे कला से कोई मतलब नहीं। कुछ दिनों तक तो वह उखड़ा सा तनावग्रस्त रहा, लेकिन लगभग एक सप्ताह से कला महसूस कर रही है कि वह अपने में बड़ा सन्तुष्ट और शान्त दिख रहा है जैसे वह किसी उलझन से निकलकर, एक समाधान पे पहुँच गया हो। हर बीतते दिन के साथ कला शीत युध्द के भँवर में गहरे धंसती जा रही है। जैसे-जैसे कपिल एक निशब्द उलझन से निकलता नज़र आ रहा है, वैसे-वैसे कला मानो उस निशब्द उलझन में उलझती जा रही है। उन दोनो के बीच वैवाहिक संबंध की आत्मीयता और भावनात्मक एकात्मता मुठ्ठी से रेत की भाँति फिसलती जा रही है। वह अपनी आँखों के सामने कपिल और अपने बीच तैरते हर भाव को पल-पल डूबते देख रही है और कुछ भी नहीं कर पा रही है। ये कपिल को अचानक क्या हो गया…?? वह उसकी दयनीय स्थिति और विवशता को सहानुभूतिपूर्वक क्यों नहीं समझ रहा है। वह कौन सी जादू की छड़ी घुमा दे कि सब कुछ कपिल का मन चाहा हो जाए। पति की इच्छानुसार चले या घरवालों के आदेशों का पालन करे ?

इस शीत युध्द में डूबते उतराते एक दिन कपिल ने रात को कला को अपना कठोर फैसला सुनाते हुए कहा – ‘मेरे लिए तुम्हारे साथ इस तरह निबाह करना अब और सम्भव नहीं। मैंने फैसला कर लिया है कि हमें अलग हो जाना चाहिए। तुम तो कभी बदलोगी नहीं। तुम चाहती तो मेरे मन चाहे अनुसार अपने को ढाल सकती थीं, पर तुम मेरी भावनाओं, मेरी चाहत, मेरी पसन्द को इस क़दर नज़रअन्दाज़ करती रही हो कि तुम्हारे इस बेपरवाह रवैये से मेरी हर भावना, हर संवेदना ख़ुद-ब-ख़ुद इतनी कुचल गई कि अब मैं तुम्हारे साथ अजनबी महसूस करने लगा हूँ। तुम्हारी निकटता में असहज हो जाता हूँ। न जाने मेरे सारे दोस्तों की बीवियाँ कैसे गृहस्थी भी और ख़ुद को भी इस ख़ूबसूरती से सम्भालती है कि मेरे दोस्त उनके गुण गाते नहीं थकते। सो मैं तो उस दिन का इन्तज़ार करते-करते थक गया जब तुम घर की बहू ही नहीं, मेरी सुघड़-सलोनी पत्नी भी बन सको। बहुत सोच-समझ के मैंने यह निर्णय लिया है कि हमें तलाक़ ले लेना चाहिए। कोर्ट के नियमानुसार तलाक़ से पहले तुम्हें कम से कम छ: महीने मुझसे दूर रहना होगा। इसलिए तुम जल्द से जल्द अपने मायके चली जाओ। फिलहाल बबली को ले जा सकती हो, पर बाद में उसकी कस्टडी मुझे मिलेगी।
ये सब सुनकर कला सकते में आ गई। उसे लगा कि वह किसी अँधेरी गुफा में चलती जा रही है। कोई ओर-छोर नज़र नहीं आ रहा है। आँखें खुली हैं पर वह कुछ भी देख पाने में असमर्थ है। वह निपट अँधेरे में भटक गई है। टूट के बिखरने को है, फिर भी न जाने कैसे अपने को सम्भाले है। तभी वह एक झटके से चेतना में आई और करुणा से भरे डूबते स्वर में कपिल से बोली –
‘कपिल प्लीज़ ऐसा मत करना। मैं जीते जी मर जाऊँगी।भले ही मैं तुमसे ज्यादा तुम्हारे घरवालों के कामों को समर्पित हूँ, लेकिन मेरे दिल में हर क्षण तुम और सिर्फ़ तुम ही समाए हो। मुझे ऐसा निरीह मत बनाओ प्लीज़। मुझे तलाक मत देना कपिल....’
‘क्यों न दूँ ? आज तक कभी सोचा तुमने इस बारे में ? धीरे-धीरे पनपती भावनात्मक एकरसता पे कभी गौर किया तुमने ? अब रोने गिड़गिड़ाने से क्या फ़ायदा कला। तुम सिर्फ़ नाम की ही कला हो। तुम्हें जीने की, जीवन को प्यार से भरने की कला आती है ? आती होती तो वैवाहिक जीवन को इस तरह बंजर न होने देती। सिर्फ मेरे अकेले के कोशिश करने से कुछ नहीं हो सकता। तुमने तो मेरी भी सारी उर्जा राख करके रख दी। तुम्हारे साथ तुम्हारी तरह मेरा जीवन भी फूहड़ और उबाऊ हो गया है। इससे तो मैं अकेला भला।‘
कला फफक उठी। सिवाय बार-बार अनुरोध करने के वह कुछ भी नहीं कर पा रही थी। वह बारम्बार अपनी मजबूरी, अपनी स्थिति, घरवालों के लिए अपना सेवाभाव, कपिल के लिए दिल में अथाह प्यार – इस सब को समझाने की वह नाकामयाब कोशिश करती रही। पर कपिल जैसे चट्टान बन चुका था – एकदम संवेदनाशून्य। वह अपनी ही बात पे अड़ा रहा।

अगली सुब्ह आई। दोनों ख़ामोशी ओढ़े अपनी-अपनी दिनचर्या में रोज़ की तरह लग गए। कामों में लगी कला अपने मन को ढाढस बँधाने में लगी रही, दिल में रखे भारी बोझ से जूझती रही।शाम तक वह काफ़ी तटस्थ हो चुकी थी। कपिल की इच्छानुसार, इस मामले में वह उसके निर्णय की बलि चढ़ने को मजबूर थी। उसने सब किस्मत पे छोड़ दिया था। इतना सब करने पे भी यदि पति से अलगाव लिखा है तो न चाहते हुए भी उसे वह स्वीकारना होगा। सारे दिन वह घर के आंगन, कमरों, दीवारों को नज़र भर-भर के देखती, मन ही मन उनसे दूर होने की जंग लड़ती और जब भी, जहाँ भी उसे एकान्त मिलता, रो लेती। उसे जी भर के रोने की भी फुर्सत नहीं मिल पाती थी। ताई जी चली गई और जाते-जाते उस पर तानों की बौछार कर गई।
अगले दो दिनों में कपिल की नागपुर वाली बुआ और फूफा जी आने वाले हैं। कला सोच रही थी कि वह उनके स्वागत की तैयारी करे या इस घर से अपनी विदाई की.....!!
‘बहू परसों निम्मो बहनजी आ रही हो। तुम्हे पता है न उनका तेज़ स्वभाव...ज़रा उनके लिए कमरा वगैरा ठीक से साफ कर लो। भाईसाहब तो फिर भी शान्त है,पर निम्मो बहनजी को एक एक चीज़ टिप-टॉप चाहिए’ – अम्मा जी ने अपने कमरे से कला को आदेश दिया।
‘जी अम्मा जी आज शाम तक सब तैयारी कर दूँगी’ – कला मरी सी आवाज़ में बोली।
शाम को कपिल के ऑफ़िस लौटने पर अम्मा जी कला की शिकायत करती बोली –
‘आजकल बहू का ध्यान न जाने कहाँ रहता है, आज उसने दाल में इतना नमक भर दिया कि मेरे तो हलक के नीचे ही नहीं उतरी और मुझे सूखी सब्ज़ी सो रोटी खानी पड़ी। तेरे बाबू जी की किताबों की शैल्फ़ दस दिन से बिना सफाई के धूल से भरी पड़ी है। दोपहर के खाने के बाद ये चाहे तो क्या साफ नहीं कर सकती ? पर चाहेगी, तभी तो करेगी न...। अपने मथन में रहती है।‘
कपिल चुपचाप सुनता रहा, फिर उठ कर कमरे में चला गया।
आज सलिल खीझता हुआ सबेरे माँ से बोला –
‘माँ तीन दिनों से लगातार भाभी से शर्ट के बटन लगाने को कह रहा हूँ, पर अभी तक बटन नहीं लगे। अब कौन सी शर्ट पहन कर कॉलिज जाऊँ? वही दो दिन की मैली शर्ट पहन कर जाऊँ क्या ?’
दूसरे कमरे में जाते कपिल ने छोटे भाई की कला के ख़िलाफ़ शिकायत सुनी तो न जाने क्यों उसे अच्छा नहीं लगा।
कल दोपहर शीला बराम्दे में बाबू जी से कपिल की चुगली करती कहने लगी –
‘ बाबू जी, मैंने पिछले महीने भय्या से भाई-दूज पे एक सलवार सूट बनवाने को कहा था लेकिन भय्या टाले जा रहे हैं। दुनिया भर के खर्चे करते हैं पर मेरे लिए सूट नहीं बनवा सकते ?’
उधर से गुज़रती कला के कानों में जब ननद की यह उलाहना पड़ी तो वह एक पल को ठिठकी, फिर एक कटीले क्रोध से भरी तेज़ कदमों से रसोई घर में चली गई। उसका मन बड़बड़ाने लगा – ‘यहाँ सबको अपनी ज़रूरतों की पड़ी है। महीना मुश्किल से खिंच पाता है, ऊपर से सलिल, शीला और बबली की फीस, बेवक्त टपक पड़ने वाले मेहमानों के खर्चे....। कपिल रात-दिन ऑफिस में कमर तोड़ मेहनत और ओवर टाइम करता है, तब कहीं जा के इतने बड़े परिवार की ज़रूरते पूरी कर पाता है। उसकी मेहनत और सेहत की किसी को परवाह नहीं, बस किसी की ज़रूरत पूरी नहीं हुई कि लगे सब शिकायत करने।‘ फिर उसने तर्क किया कि वह क्यों कपिल के ख्याल में इस तरह घुल रही है ? उधर ऑफिस के काम में व्यस्त होने पर भी कपिल को बीच-बीच में अपने घर वालों के दोगले रूप और “बहू” नाम के प्राणी के प्रति अन्यायपूर्ण नीति का ख्याल विचलित कर जाता था। तड़के चार बजे से उठकर रात ग्यारह बजे तक कला मशीन की तरह सबकी सेवा में खपी रहती है, यहाँ तक कि इन सबको खुश रखने के चक्कर में मेरा और उसका रिश्ता भी बलि चढ़ गया, लेकिन ये हैं कि उसके प्रति सराहना और सहानुभूति का भाव रखने के बजाय निरन्तर कमियाँ बीनते हैं और कठोरता भरा अन्यायपूर्ण रवैया रखते हैं। हद है..!

दो दिन बाद नागपुर वाली बुआ जी और फूफा जी आ गए। कला ही नहीं, सारा घर उनके नाज़-नखरे उठाने में लग गया। एक दिन बाद ही और सब तो वापिस अपनी-अपनी रूटीन में चले गए, लेकिन कला, बुआ जी और फूफा जी की सेवा की स्थायी ज़िम्मेदारी ओढ़े, बिना थके उनके सत्कार में जुटी रही। हर दिन उनकी ख़ातिर में कुछ खास पकाती। उनके नहाने के गरम पानी से लेकर कपड़े धोने, सुखाने और तह बनाकर रखने तक के सारे काम सचेत होकर करती। फिर भी छिद्रान्वेषी बुआ जी अक्सर खासतौर से कपिल के ऑफिस लौटने पर ही, अम्मा जी से कला के काम में मीन-मेख निकालती हुई, ज़ोर-ज़ोर से कपिल को सुनाती। कपिल को कला के प्रति सबका तानाशाही रूप इतना नागवार लग रहा था कि कई बार तो वह भड़कते-भड़कते रह गया। बड़ों के सामने ज़ुबान न खोलने और ग़म खाने के मध्यम वर्गीय सँस्कार उसके विद्रोह के आड़े आ जाते थे, वरना मन तो करता कि सबके अन्याय का करारा जवाब दे।
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रविवार का दिन था। सभी के घर में होने से घऱ में खूब चहलपहल थी। नाश्ते में कला ने सूजी का हलुवा और गरम-गरम पकौड़ियाँ बनाई थी। सब साथ बैठे खा रहे थे और बबली व शीला रसोई से गरमागरम चाय और पकौड़ियाँ लाकर सबको खिली रहीं थीं। तभी फूफा जी ने शोशा छोड़ा – ‘कला, पकौड़ियाँ कुछ ज़्यादा तेज़ जली-जली सी तल रही है। मिर्च भी कुछ चटक है।‘ इस पर अम्मा भला कैसे चुप रहती। उन्होंने भी तुर्रा छोड़ा –
‘हलुवा कुछ कच्चा सा लग रहा है। सूजी थोड़ी और भुननी चाहिए थी।‘
जब कि कपिल को हलुवा गुलाबी भुना हुआ, सोंधी खुशबू से भरा बेहद स्वादिष्ट लगा। इलायची, बादाम और नारियल ने उसके स्वाद को और भी दुगुना कर दिया था। पकौड़ी भी खस्ता और करारी बनी थी। मिर्च तो ज़रा भी तेज़ नहीं थी।कपिल पकौड़ी और हलुवे के साथ-साथ सबकी तीखी और जली भुनी बातों का स्वाद भी लेता जा रहा था। उसे लगा कला की कड़क ड्यूटी के आगे तो उसकी ऑफिस ड्यूटी कुछ भी नहीं। दूसरे उसे अच्छा काम करने पर बॉस से सराहना और प्रमोशन तो मिलता है, लेकिन कला को तो सिर्फ तानों और फटकार के कुछ भी नहीं मिलता। इससे तो उसके ऑफिस का चपरासी बेहतर स्थिति में है। पुराना होने के कारण कभी-कभी तो बॉस पर भी रौब जमा लेता है। कला घर में दस साल पुरानी होने पर भी डरी, मरी, खामोश रहती है।
इस सबके बावजूद भी कपिल कला के प्रति अपने दिल में पहले जैसे प्यार और अपनेपन की कमी पाता था।परन्तु घर का कोई प्राणी कला की ग़लत आलोचना करता तो, कपिल को तनिक भी बर्दाश्त न होता। इसी तरह कपिल से उपेक्षित होकर भी कला को कपिल के ख़िलाफ़ दूसरों द्वारा कही गई बातें बड़ी चुभती। कला यह भी सोचती कि अब तो वह इस घर में कुछ ही दिनों मेहमान है। कपिल तो उससे रुष्ट रहता ही है, तो वह और सबसे उसकी बुराई सुनकर मन ही मन ख़ुश होता होगा।
पिछले आठ दिनों से रात को अपने कमरे में, कला से दूर एक तरफ पड़े सोफे पे सोता, कपिल अक्सर सोने से पहले सोचता कि उसे ख़ुद को कला ख़ामियों का भंडार नज़र आती है तो घर के दूसरे लोगों से कला की बुराई क्यों नहीं सुन पाता....! उसे इतना बुरा क्यों लगता है ? इसी उधेड़ बुन में वह न जाने कब सो जाता।

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आज तलाक की अर्ज़ी देने उसे वकील के पास जाना था। हांलाकि उसने कला को अपना फैसला सुना दिया था। फिर भी अन्दर उसे कुछ कचोटता रहता था। कला निर्जीव हुई, ढेर ज़िम्मेदारियों के बोझ से दबी, किसी तरह दिन काट रही थी। मन में एक धुंधली आशा कभी-कभी चटक हो उठती थी कि शायद कपिल उसे जाने से रोक ले, शायद कपिल का मन पिघल जाए। पर ऐसा न हुआ।
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एक दिन मौका देख कर कपिल ने घर में सबको बता दिया कि वह और कला अब साथ नहीं रह सकते और तलाक ले रहे हैं। कपिल के मुँह से ये अप्रत्याशित घोषणा सुनकर सब अवाक् उसका मुँह देखते रह गए। सास-ससुर को बेटे-बहू के अलगाव का दुख कम, घर के काम करती आज्ञाकारी नौकरानी के जाने की चिन्ता अधिक सताने लगी। सबके अपने-अपने स्वार्थ उन पे हावी थे। सबने उसे अपने-अपने ढंग से कारण पूछा, बेदिली से थोड़ा समझाने का भी प्रयास किया, लेकिन कपिल अपने निर्णय पे अटल रहा।
वो दिन भी आ ही गया जब कला अपना सूटकेस लेकर मायके चली गई। कोर्ट ऑर्डर के अनुसार दोनों को तलाक से पूर्व छ: माह तक अलग रहना था।

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इधर कला के घर में भी सबका वही हाल था। सब जी भर कर कपिल की बुराई करते। जो अवगुण उसमें नहीं थे, वे भी कला के घर वाले कपिल पे थोपते। कला की माँ तो कपिल को बदचलन तक कहने से नहीं चूकती। भय्या उसे नकारा और दब्बू कहते। यह सुनकर कला दिल मसोस कर रह जाती। वह जानती थी कि कपिल ऐसा बिल्कुल नहीं है। ठीक है, वह उससे तलाक चाहता है पर वह उसके लिए उल्टे सीधे आरोप स्वीकार नहीं कर सकती थी। कपिल के घर में उसकी माँ, बहन, कला को फूहड़, औघड़, मूर्ख और न जाने क्या-क्या कहती न अघाती। शीला ने तो एक दिन यह भी कह दिया कि भाभी को तो भय्या से प्यार ही नहीं था। नाटक करती थी उनके ख्याल का। उन्हें शादी तोड़नी थी तो कैसी चुपचाप बिना विरोध के अलग होने को तैयार हो गई। यह बात कपिल के कानों में पड़ी तो वह आग बबूला हो उठा। उसने शीला को जमकर डाँटा। ये तक चेतावनी दी कि वह देखेगा कि अपनी ससुराल में जाकर शीला कैसे और कितने प्रेम से निबाह करती है। शीला अपने भाई का वह रौद्र रूप देखकर भौंचक रह गई। उसे लगा कि भाभी से अलग होने को तैयार भय्या, भाभी के ख़िलाफ़ उसकी बातें सुनकर खुश होंगे, पर वहाँ तो उल्टी गंगा बहने लगी.....!? उसकी तो समझ से परे था कपिल का यह रूप और प्रतिक्रिया...।
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कला को घर से गए हुए चार महीने बीत गए थे। उसकी अनुपस्थिति में सबको अपने-अपने काम करने पड़ रहे थे। सारा घर कला के बिना बिखरा सा हो गया था। अम्मा जी, बाबू जी, सलिल, शीला सबको कला याद आती थी, उससे किसी भावनात्मक संबंध के कारण नहीं अपितु अनगिनत कामों के कारण। अनगिनत काम और कला मानो एक दूसरे के पर्यायवाची थे। उन ढेर कामों को सहेजने वाली अब वहाँ नहीं थी। वे काम भी उसके बिना बेतरतीब मुँह बाए पड़े रहते थे और सबको तरह-तरह तंग करते व चिढ़ाते थे। घर के नियत ढर्रे के मुताबिक आजकल इन्दौर से कपिल के चाचा-चाची आए हुए थे। कल रात सोने से पहले उन्होंने कपिल को अपने कमरे में बुलाया। अम्मा-बाबूजी वहीं बैठे हुए थे। चाचा-चाची ने बिना सोचे समझे कपिल को बिन माँगी राय दी कि वह कला के वे जेवर रोक ले, जो शादी के समय उसे ससुराल से दिए गए थे। इतना ही नहीं, सबने मिलकर कला के घर वालों की कोर्ट से खर्चा-पानी लेने के बहाने चालाकी भरी लालची नीयत के ख़िलाफ़ भी कपिल को सावधान किया। अपने इस महाभारती व्याख्यान को विराम देने से पहले उन सबने कला को जाहिल, फूहड़ और न जाने क्या-क्या कह डाला। सँस्कारों का मारा कपिल सिर झुकाए क्रोध पीता ख़ामोशी से उन सब समझदार बुज़ुर्गों की दुनियावी बातें सुनता रहा। वे सब अपने विचारों, सोचों और ज़ुबान की कुरूपता से अन्जाने ही उसे कला से दूर नहीं वरन् कला के निकट ले जा रहे थे। जितनी वे कला की आलोचना करते उतना ही कपिल कला के प्रति अपनेपन से भरता जाता। ठीक यही कला के घर में उसके साथ घट रहा था। खैर, वह तो कपिल से अलग होना ही नहीं चाहती थी किन्तु कपिल के रूखे और अन्याय भरे रवैये से उसके प्रति भावना शून्य सी हो गई थी। लेकिन अपने घर वालों की कपिल के लिए जली कटी बातें सुन-सुनकर वह पुन: उसके प्रति सघन प्यार और ख्याल से भरने लगी थी।
कला और कपिल एक दूसरे से दूर, अपने-अपने घरों में आत्मविश्लेषण करते हुए रह रहे थे। घर से लेकर बाहर तक का हर इंसान कला की बुराई कपिल से और कपिल की बुराई कला से करता नज़र आता था। दुनिया के इस तिक्त बर्ताव ने दोनों को अधिक परिपक्व, संवेदनशील और एक दूसरे के लिए भावुक बना दिया था। तलाक होने तक बबली कला के ही पास थी। कला और बच्ची की कमी कपिल को रह-रह के खलती थी।
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एक दिन जब कपिल से नहीं रहा गया तो उसने कला से मिलने की ठानी। उसने ऑफ़िस से कला के घर फोन किया और उसे इन्दिरा पार्क में शाम 5 बजे मिलने के लिए बुलाया। कला तो ख़ुद उससे मिलने को बेचैन थी। उस दिन कपिल को लगा कि समय बहुत धीरे-धीरे खिसक रहा है। जैसे ही शाम के चार बजे कपिल झटपट ऑफिस से 20 कि.मी. दूर पार्क की ओर रवाना हो गया जिससे ठीक पाँच बजे वह पार्क पहुँच सके। वह पाँच से पंद्रह मिनट पहले ही पार्क में पहुँच गया और यह देख कर उसकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा कि कला भी समय से पहले वहाँ पहुँच चुकी थी। कपिल ने इतने समय बाद कला को देखा तो वह उसे बड़ी अपनी लगी। पहले से काफ़ी कमज़ोर भी दिख रही थी, पर एक कमनीयता उसे आवृत किए थी जो कपिल को मोहित कर गई। कला कपिल को देखकर न जाने क्यों लजा गयी और उसके स्वागत में बेंच से उठकर खड़ी हो गई। कपिल को उसका यह तकल्लुफ़ प्यारा लगा। बोला –
‘ अरे बैठो-बैठो ‘
कला सकुचाई सी बेंच के कोने में सिमट कर बैठ गई। कपिल उसके पास ही बैठा, पर थोड़ी सी भद्र दूरी बनाकर। मन तो चाह रहा था कि उससे सट कर बैठे। कला को कपिल नया-नया प्यार भरा लगा। कहाँ तो ‘रूठी राधा’ यह सोचकर आई थी कि वह कपिल से एक भी बात नहीं करेगी, बस ख़ामोशी से उसकी ही सुनेगी, क्योंकि उसे कपिल से कुछ कहना ही नहीं है। उसे जो कहना था वह कपिल से रो-रोकर पहले ही कह चुकी थी, और कपिल ने उसकी प्रार्थना, अनुरोध सब बेदर्दी से ठुकरा दिया था। सो अब कहने को बचा ही क्या था उसके पास। आज तो वह कपिल की निकटता को साँसो में भर लेना चाहती थी जिससे आगे आने वाले दिनों में वह उस निकटता के एहसास के साथ जी सके। धीरे-धीरे वह अकेले जीने का भी साहस जुटा लेगी। ख़ामोश, विनम्र, सिर झुकाए बैठी कला पे कपिल को बड़ा प्यार आया। आज दोनों को लग रहा था कि वे एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। वे एक दूसरे के जितना करीब हैं उतना घर में किसी के भी नहीं। अपने-अपने घरवालों के रौद्र और तीखे हावभाव, बेग़ैरत रवैये से आहत वे दोनों एक दूसरे को इतने अपने लगे कि उन्होंने – ख़ासतौर से कपिल ने तलाक का इरादा बदल दिया। कपिल और कला एक जैसी भावनात्मक स्थिति में थे। दोनों की समरसता भरी कोमल तरंगे ख़ामोशी से एक दूसरे तक पहुँच रही थीं। दोनों की प्यार भरी नज़रे एक दूसरे से मिलती और मीठा-मीठा बहुत कुछ कह जाती। आँखों ने आँखों की भाषा पढ़ी और कपिल ने कला का हाथ अपने हाथ में थाम कर, निशब्द ही न जाने क्या-क्या कह डाला कि भावुक हो आई कला की आँखें झर-झर बरसने लगीं। उसकी सारी पीड़ा, वेदना, असुरक्षा मानो आँखों से बह चली थी। ये आँसू एक ओर दर्द और पीड़ा को मन से बाहर बहा रहे थे, तो दूसरी ओर पति के प्रति सघन प्रेम और आश्वासन को दिल की गहराईयों में समो रहे थे। उसने हौले से कपिल के कंधे पे अपना सिर टिका कर कपिल के साथ फिर से एक हो जाने की अपनी इच्छा की तीव्रता जताई। दोनों हाथ थामे पार्क से बाहर निकलकर घर की ओर चलते गए – पीछे छूटे वैवाहिक जीवन की बागडोर सम्हालने....।

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