Sunday, July 18, 2010

(कहानी) एवटाबाद हाउस


छ: हज़ार फ़ीट की ऊँचाई पे बर्फ़ीली पहाड़ियों की गोद में बसी गढ़वाल राइफ़ल्स की ख़ूबसूरत छावनी ‘लैन्सडाउन’ अपनी स्वच्छता, सहज सँवरेपन व अलौकिक प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए मशहूर थी। उसका नाम अँग्रेज़ अधिकारी ‘लॉर्ड लैन्सडाउन’ के नाम पर रखा गया था। उस शान्त और सुरम्य छावनी की ‘चेटपुट लाइन्स‘ में शहर से 3 किलोमीटर दूर, चीड़ और देवदार के घने पेड़ों के बीच अनूठी शान ओढ़े एक बंगला था जो ‘एवटाबाद हाउस‘ के नाम से जाना जाता था। ब्रिटिश राज में म्युनिसिपल कमिश्नर उस बंगले में बड़े ठाट-बाट के साथ रहता था। कहा जाता है कि इससे पहले कोई गढ़वाली अफ़सर अपने परिवार सहित उसमें रहता था जिसकी एक हादसे में मृत्यु हो गई थी। बरसों पुराने उस गिरनाऊ बंगले को तुड़वाकर अँग्रेज़ों ने, उसे कुशल आर्किटैक्ट से ख़ास ढंग से बनवाया था। सम्भवत: इसलिए ही उसमें कुछ तो ऐसा था जो उसे उस इलाके के अन्य बंगलों से अलग करता था। 1947 में भारत के आज़ाद होने पर, लैन्सडाउन के नामी डॉक्टर शाह ने उस बंगले को अँग्रेज़ अधिकारी से ख़रीद लिया था। उसमें पाँच बड़े –बड़े कमरे, एक पूरब सामना ड्रॉइंग रूम, जिसके साथ सर्दियों के लिए एक बहुत ही खूबसूरत ग्लेज़्ड सिटिंग रूम था। हर कमरे के साथ अटैच्ड बाथरूम थे। एक ओर पैन्ट्री सहित एक बड़ी किचिन थी। बंगले के चारो ओर पत्थरों का एक सिरे से दूसरे को छूता हुआ गोलाकार बराम्दा था। बराम्दे से तीन सीढ़ी नीचे उतरने पर,चारों ओर खुली जगह में रंग-बिरंगे फूलों की क्यारियाँ थी।वहाँ से सामने दूर पश्चिम में जयहरीखाल गाँव दिखाई देता था। इस गाँव के पार्श्व से उत्तर की ओर हिमालय की बर्फ़ीली पहाड़ियाँ पसरी हुई थी। सुब्ह उगते सूरज की सुनहरी किरणें उन पे बिखरती तो वे चन्द्रहार जैसी चकमक-चकमक करती। नीलकंठ और चौखम्भा की चोटियाँ तो उस बर्फ़ीली श्रृंखला का इन्द्रधनुषी गहना थीं। उसके नीचे दाएँ-बाँए लहराते सीढ़ीदार खेत उस दृश्य की शोभा को द्विगुणित करते। उत्तर की ओर फलों के पेड़ थे, जो मौसम में आड़ू और काफ़ल से लदे रहते थे। दूसरी ओर ऊँचे-ऊँचे भीमकाय बनस्पति से भरे दूर से नीले से दिखने वाले हरिताभ पहाड़ एक के ऊपर एक सटे मन में भय सा उपजाते। उन पे कोटद्वार, दुगड्डा और जयहरीखाल से आती जाती बसें दूर से रेंगती खिलौने जैसी दिखती। यदा कदा बसों की आवाजाही उस नीरव स्तब्धता में कुछ स्पन्दन का एहसास कराती। बंगले के दक्षिण में दूर लोहे का मेनगेट था जिससे होकर पथरीला रास्ता बंगले के बराम्दे तक आता था। इस लम्बे रास्ते के दोनो ओर भी फूलों की क्यारियाँ और रात की रानी की झाड़ियाँ थी जो पथरीले रास्ते को राज मार्ग की सी भव्यता प्रदान करती। इस मुख्य रास्ते से लगा हुआ, हल्की सी ऊँचाई पर, यानी बंगले के दाहिनी ओर मखमली लॉन था और दूसरा लॉन मेनगेट से अन्दर आते ही बाईं ओर पड़ता था। यह लॉन अपेक्षाकृत अधिक फैला हुआ था। इससे लगा हुआ, दूर तक पसरा बुरांस, बेड़ू के पेड़ों और रसभरी की झाड़ियों का घना जगंल था, जिसमें एक प्राकृतिक बटिया स्वत: बन गई थी। अक्सर गढ़वाली औरतें लकड़ी बीनतीं उस जंगल में आती जाती दिखती, तो कभी साल में एक बार कॉरपोरेशन वाले उस जंगल की थोड़ी बहुत काट-छांट कर जाते। वरना वह जंगल बेरोक टोक फलता फूलता रहता और अपने में मस्त रहता। पूरे वर्ष चिड़ियों की चहचहाहट और मधुमास में कोयल की कुह-कुह, पपीहे की पीहू-पीहू उसे गुलज़ार रखती। बंगले के नीचे थोड़ा हटकर 13 सरवेन्ट क्वार्टर्स थे, जिसमें चौकीदार बलबहादुर, खानसामा शेरसिंह, सफाई कर्मचारी गोविन्दराम और उसका परिवार, दफ़्तरी बाबू, शमशेर बहादुर आदि कुल मिलाकर 6-7 नौकर रहते थे। शेष कमरे खाली पड़े थे।

डॉक्टर शाह का अस्पताल उस बंगले से काफ़ी दूर पड़ता था, इसलिए उन्होंने उसे उन टीचर्स के लिए किराये पे दे दिया था, जो लैन्सडाउन के सरकारी हायर सेकेंडरी स्कूल में पढ़ाती थी और बाहरी शहरों से उनकी पोस्टिंग उस स्कूल में होती थी। प्रत्येक कमरे को तीन-तीन टीचर्स शेयर करती थी और सबसे बड़े कमरे में प्रिंसिपल मिस जंगपांगी अपनी छोटी बहन और अपने प्यारे एलसेशियन ‘नवाब’ के साथ रहती थीं। आज के ज़माने के कोलाहल के विपरीत, लगभग पाँच दशक पहले का ज़माना, उस पे भी पहाड़ पे बसा, वह भोलाभाला सुशान्त शहर इतनी नीरवता ओढ़े था कि दूर की हल्की सी आहट भी बंगले तक तैर जाती थी। कभी कभार मेन गेट के पास से प्रैक्टिस करते फ़ौजी सैनिकों की क़तारों के भारी बूटों की आवाज़े, तो कभी आस पास के गाँवों से शहर जाने वाले उधर से गुज़रते तो उनकी गढ़वाली बोली के अस्फुट स्वर, उस स्तब्ध वातावरण को छेड़ते से हवा के झोंके के साथ लहराते ‘एवटाबाद हाउस’ तक पहुँचते।

सभी टीचर्स हँसती, ढेर बातें करती, इकठ्ठी पैदल जाती और शार्टकट पकड़ती हुई तीन कि.मी. का रास्ता एक घंटे में तय कर स्कूल पहुँच जातीं। शाम के चार बजे छुट्टी होने पर, पाँच बजे तक बंगले पे पहुँचती। उसके बाद सब फ़्रैश होकर हवादार बराम्दे में इज़ी चेयर्स में, छोटी मूढ़ियों और सीढ़ियों पे बैठी शेरसिंह की बनाई, अदरक और इलायची के एरोमा से भरपूर गरमागरम चाय और स्थानीय बेकरी के ताज़े बिस्कुटों का स्वाद लेती। शेरसिंह पौड़ी का रहने वाला था। भोलाभाला, सीधा सा ख़ानसामा बड़े समर्पित भाव से अपनी दीदी लोगों की सेवा में लगा रहता। उसे खाना बनाते समय एक्सपैरीमैन्ट करने की बुरी आदत थी और इसके लिए वह कई बार डाँट भी खा चुका था। एक बार उसने मटर, टमाटर, आलू अजवाइन से छौंक कर बनाए। जब सब खाने बैठी तो पहला ही कौर मुँह में डालते ही सबका मुँह बन गया। तुरन्त शेरसिंह को आवाजें पड़ने लगीं। बेचारा दौड़ा- दौड़ा आया और चेहरे पे लकीर सी खिंची आँखों को हैरत से मिचमिचाता बोला –
“जी दीदी जी, क्या हुआ........?”
“अरे ये अजवाइन क्यों डाली मटर आलू में.........?”
मिसेज़ दुबे न आँखे तरेर कर उससे पूछा। वह घबराया सा सबका बिगड़ा मूड देख कर ईमानदारी से सच्ची बात बताते बोला –
“दीदी जी आप लोगों को बढ़िया, नए ढंग सब्ज़ी बनाकर खिलाना माँगता था मैं, सो अजवाइन से छौंक कर “एक्सभैरीमैन्ट“ किया था।“
सब भूख से तिलमिलाई एक साथ बोली –
“ले जाओ अपने इस “एक्सभैरीमैन्ट“ को और तुम्ही खाओ।“
इसी तरह एक बार उस भोले भंडारी ने प्याज़ लहसुन का मसाला पीस कर बड़े जतन से दम आलू बनाए। इतवार का खुला धूप भरा दिन था। जब सब उस छुट्टी के दिन का स्पेशल लंच खाने बैठी तो डोंगे में रखे दम आलू और उसके मसाले की खुशबू से सबकी भूख दुगुनी हो गई। लेकिन जैसे ही उन्होंने अपनी-अपनी प्लेट में दम आलू रोटी के टुकड़े से तोड़ना चाहा तो लाख दम लगाने पर भी वो बेदर्द न टूटा, न फूटा और पत्थर सा प्लेटों में पड़ा सबको मुंह चिढ़ाता रहा। फिर से शेरसिंह पे चिल्ला - चिल्ली मची। बेचारा अपने “एक्सभैरीमैन्ट“ के फ़ेल होने से रुआंसा हुआ दम आलू का डोंगा उठाकर रसोई में भाग गया। उसके उस तरह के भयंकर “एक्सभैरीमैन्ट“ से दुखी टीचर्स ने तय किया कि हर छुट्टी के दिन शेरसिंह को एक-एक डिश बनानी सिखाई जाएगी। रविवार को और अन्य किसी भी छुट्टी के दिन कोई एक टीचर शेरसिंह को तरह-तरह की सब्ज़ी बनाना सिखाती। धीरे-धीरे वह एक एक्स्पर्ट कुक बन गया। पाक-कला में पारंगत होने से उसकी चाल ढाल में भी अकड़ आ गई। सब उसमें आए इस हास्यास्पद बदलाव को देखकर हँसती। तब एक दिन जब मिसेज़ गुप्ता से रहा नहीं गया तो उन्होंने उसे प्यार से समझाते हुए कहा –
“अरे, शेरसिंह अपनी सीधी चाल चला कर, ये पहलवान की तरह अकड़ के क्यों चलता है।“
यह सुनते ही बेचारा झेंप गया और तुरंत झुका से हो गया। इस तरह जाने अंजाने फ़ुर्सत में बनाया गया वह ईश्वर का अनोखा नमूना सभी का मनोरंजन करता रहता था।
गोविन्दराम बंगले की सफ़ाई करता और उसकी पत्नी सबके कपड़े धोती। महीने में एक बार वह बेडशीट्स और कमरों के पर्दे भी धोती। जितनी देर वह बंगले पे काम कर रही होती, उसके बच्चे भी इधर से उधर किलकते खेलते रहते और उनका कलरव, उस 'एकान्तवासी बंगले' की नीरवता को जैसे पी जाता। मिस उप्रेती के कमरे से अक्सर मधुर गीत के स्वर उभरते और सर्द हवा में विलीन हो जाते। सुरीला स्वर मिस उप्रेती को ईश्वर का वरदान था। उसे संगीत का बहुत चाव था। इसलिए एक उसी के कमरे में बैटरी वाला रेडियो था, जिस पे अक्सर सभी टीचर्स रात को रेडियो सीलोन पे फ़िल्मी गाने सुनतीं।बीच वाले कमरे में मिस शीलांग, मिसेज़ वर्मा और मिस जोशी रहती थी, वे अपने-अपने लिहाफ़ों में दुबकी देर रात तक गप्पें लगाती, तो बराम्दे के कोने में बने सिंगल रूम में एकान्त प्रिय मिस लोहानी अपनी दुनिया में रहना पसंद करती। सबसे पहले कमरे में मिस सौलोमन, मिसेज़ गुप्ता और मिसेज़ दुबे की आपस में ख़ूब जमती। पढ़ने की शौकीन गुप्ता सिराहने मेज़ पर चमचमाती चिमनी वाला मिट्टी के तेल का लैम्प जलाए रात के 2-3 बजे तक उपन्यास-कहानी पढ़ती रहती। सबको सुब्ह बर्फ़ीली सर्दी में अपना-अपना गुनगुना बिस्तर छोड़ना और नहाना बुरा लगता। नहाना तो अक्सर ही नलों में पानी जम जाने के कारण मुँह हाथ धोने तक सीमित होकर रह जाता। बिजली का तब तक पहाड़ पे नामोंनिशां नहीं था, सो शेरसिंह सुब्ह पाँच बजे से सबके लिए बड़े भगौने में कई बार पानी गर्म करता। वे कितने भी स्वेटर पे स्वेटर, कोट, शॉल, मफ़लर लपेटतीं, फिर भी सबके हाथ पैर ठिर-ठिर काँपते रहते। स्कूल में पढ़ाते समय एक हाथ कोट की जेब में और एक हाथ में किताब थामे क्लास में बामुश्किल पढ़ातीं और स्टाफ़ रूम में जाने की प्रतीक्षा करती, क्योंकि वहाँ लकड़ी के कोयलों की अँगीठी दिन भर जलती रहती और खाली पीरियड में टीचर्स वहाँ अपने सर्द हाथ-पैरों में गर्माहट लाने में लगी रहती। बीच – बीच में गरम चाय के कप भी एक दूसरे को पकड़ाती रहती, फिर भी 'काटती सर्दी' सबको जकड़े रखती। एवटाबाद हाउस में हर काम के लिए नौकर होने के कारण टीचर्स को सर्दी अधिक नहीं खलती थी। ईश्वर की कृपा से सभी नौकर बड़े ईमानदार और ख़ूब काम करने वाले थे। अँग्रेज़ों के ज़माने का एक रिटायर्ड जमादार सवेरे ठीक सात बजे बंगले के बराम्दे से लेकर बाहर क्यारियों, दोनों लॉन में झाड़ू लगाने आता। कोई जागे या न जागे, देखे या न देखे, वह अपने नियम से आता और काम करके चला जाता। टीचर्स को उसे तनख़्वाह भी नहीं देनी पड़ती थी क्योंकि इस सफ़ाई के लिए उसे आर्मी हेड ऑफ़िस से तनख़्वाह और अपनी पिछली 30 साल की फ़ौजी नौकरी के लिए पेंशन मिलती थी। रात में चौकीदार बलबहादुर लम्बे भारी कोट का लबादा पहने, पैरों में गमबूट, सिर पे फ़र वाली मंकी कैप, उस पे मफ़लर लपेटे, हाथ में लाठी और लालटेन लिए मुस्तैदी से बंगले के चारों ओर चक्कर काटता रखवाली करता और सभी टीचर्स बेफ़िक्र होकर सोती। मिसेज़ दुबे नम्बर पाँच कमरे की मिसेज़ शाह से अक्सर कहती कि “देखो यहाँ हम कितने ठाट से रहते हैं। जब छुट्टियों में अपने घर जाते हैं तो वहाँ तो हमें माँ का हाथ बटाने की वजह से झाड़ू लगानी पड़ जाती है, पर यहाँ तो झाड़ू क्या झाड़न भी नहीं उठाना पड़ता।“

रविवार और तीज त्यौहार की छुट्टी के दिन एवटाबाद हाउस बातचीत, गीतों, कतार में सूखते कपड़ों, बैडमिन्टन खेलती, यहाँ तक कि कभी-कभी पाटिका खेलती टीचर्स की खिलखिलाहट से गुंजायमान रहता। छुट्टी का सारा दिन वे बंगले के बाहर धूप से तनिक भी न हटतीं। उस दिन नाश्ते के बाद से लॉन में कोई दरी बिछाकर, तो कोई ईज़ी चेयर में कोई बड़े- बड़े मूढ़ों में बैठी नहा धोकर सिर सुखाती, तो कोई ट्रांज़िस्टर लगाए नाटक, गाने सुनती, तो कोई कॉपी जाँचती, मतलब कि सब अपना कुछ न कुछ तामझाम लेकर वहाँ शाम तक के लिए जम जाती। इसी तरह बंगले की चाँदनी रातें भी रौनक से भरी होती। दिसम्बर और जनवरी को छोड़ कर शेष महीनों में, ख़ासतौर से फागुन के भावभीने, रुमानी महीने में टीचर्स 9-10 बजे तक चाँदनी रात में लॉन में बातें करती टहलती, कभी-कभी अन्त्याक्षरी का भी दौर चलता। रुपहली चाँदनी में बंगला कुछ ज़्यादा ही रमणीय और एक अजीब रहस्यमय सौन्दर्य से घिरा नज़र आता। जून की हल्की गरम और ख़ुश्क रातों में बंगले के आसपास कई किलोमीटर गहरी खाइयों में शेर की मांद थीं। रात में अक्सर प्यासा शेर, मांद से निकलकर बंगले पर पानी की तलाश में आता और पानी न मिलने पर बंद कमरों के दरवाज़ों पे पंजे मारकर दहाड़ता हुआ जैसे पानी मांगता, फिर थोड़ी देर में कहीं और चला जाता। पर दिन में वह कभी बाहर नहीं आता था।

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खिले फूलों की ख़ुशबुओं से भरपूर मधुमास की सुहानी चाँदनी रात थी। रात के 2 बजे थे। मिस सौलोमन की नींद टूटी और वे पानी पीने के लिए उठी तो उन्हें मेज़ के पास कुर्सी पे 'कोई' सफेद कपड़ों में उजाले से भरपूर बैठा दिखा। उन्होंने आँखें मल कर फिर से देखा तो फिर उन्हें वही आकृति दिखी। उनके मुँह से सहसा निकाला –
“कौन”…..??
और इसके बाद पलक झपकते ही वह आकृति ग़ायब हो गई। मिस सौलोमन घबरा गई । इसके बाद वे सो न सकीं और सारी रात करवट बदलते कटी। सुब्ह होने पे उन्होने किसी से कुछ न बताना ही ठीक समझा। मिस सौलोमन अन्य टीचर्स से उम्र में बड़ी व गम्भीर, शान्त और मूक स्वभाव की थीं। उन्होंने सोचा कि यदि रात की घटना टीचर्स को बता दी, तो वे छोटी उम्र की लड़कियाँ ही तो हैं, डर जायेंगी और दुबे तो वैसे भी ज़रा-ज़रा सी बात में मूर्छित हो जाती है, मिसेज़ वर्मा का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगता है। इसलिए उन्होंने चुप रहना ही ठीक समझा।

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उसी महीने 15 दिन बाद एक और रहस्यमयी घटना घटी। शाम का समय था, सूरज ढल रहा था। मन्द-मन्द हवा बह रही थी। मार्च के महीने में अपने आप जगह-जगह खिल पड़ने वाले बासन्ती रंग के फूल बंगले के चारों ओर लहलहा रहे थे। क्यारियों में गुलाब, पैन्ज़ी, पौपी, ग्लैडुला के रंग बिरंगे फूल ग़ज़ब का सौन्दर्य बिखेरे हुए थे। तभी दफ़्तरी बाबू बराम्दे में फूलों को निहारती बैठी मिसेज़ गुप्ता के पास आकर बोले –
“गुप्ता बहिन जी, क्या आप मुझे थोड़ी देर के लिए चाकू देगी, सब्ज़ी काटनी है और मेरा चाकू मिल नहीं रहा।“
गुप्ता ने कमरे से लाकर उन्हें चाकू पकड़ा दिया। 2 घंटे बाद खानसामा ‘शेर सिंह’ मिसेज़ गुप्ता के पास चाकू लेने और यह पूछने आया कि रात को क्या सब्ज़ी बनेगी। यह सुनकर मिसेज़ गुप्ता ने सबसे पूछकर रात के लिए सब्ज़ी बताई और कहा -
“चाकू दफ़्तरी बाबू के पास है, दो घन्टे पहले वे माँगने आए थे, नीचे सर्वैन्ट्स क्वार्टर में उनसे जाकर ले आओ।“
शेरसिंह क्वार्टर में जब दफ़्तरी बाबू से चाकू माँगने गया तो वे बोले –
“ मैं तो गुप्ता बहिन जी के पास चाकू लेने गया ही नहीं।“
शेरसिंह फिर बोला –
“वे कह रही थी कि आप दो घन्टे पहले उनसे सब्ज़ी काटने के लिए लेकर आए थे।“
यह सुनते ही दफ़्तरी बाबू सच का खुलासा करते बोले कि –
“वह तो अभी - अभी बाज़ार से लौटे हैं, दो घन्टे पहले तो वे यहाँ थे भी नहीं।“
और उन्होंने ऊपर जाकर मिसेज़ गुप्ता से जब सारी बात बताई तो वे हैरान होती बोली –
“तो फिर हूबहू इन्हीं कपड़ों में आप के जैसा कौन मेरे पास आया था, जो चाकू माँग कर ले गया ?”
इस पहेली का जवाब किसी के भी पास न था। दफ़्तरी बाबू सोच में डूबे नीचे क्वार्टर में चले गए, मिसेज़ गुप्ता दिल में उथल पुथल लिए कमरे में चली गई और शेरसिंह मिस लोहानी से चाकू उधार लेकर शाम के खाने की तैयारी में लग गया।
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नवम्बर का सर्द महीना था। मिस शिलांग को तेज़ बुखार चढ़ा था। इसलिए उसने फ़िलहाल 3 दिन की “सिक लीव” ली। बंगले से बाज़ार काफ़ी दूर था। उसने स्कूल जाने के लिए तैयार अपनी रूममेट मिस जोशी से शेरसिंह को साथ ले जाकर, उसके हाथ दवा और कुछ फल भेजने के लिए कहा। 9 बजे तक सब टीचर्स चली गई। मिस शिलांग बुखार की तपन में लेटी न जाने कब सो गई। 2 घन्टे बाद उठी तो देखा कि साइड में लगी टीक वुड की ड्रेसिंग टेबल पर लाल-लाल सेब, अनार और रसीले अंगूर रखे थे। शिलांग को फल देखते ही स्फूर्ति महसूस हुई, स्वाद ख़राब होने से कुछ भी खाने का मन नहीं था सिवाय के फलों के। सो उसने एक सेब लेकर खाना शुरु किया, इतना मीठा सेब उसने आज तक नहीं खाया था, साथ ही कुछ अंगूर उसने एक छोटी प्लेट में बिस्तर के पास स्टूल पर रख लिए। सेब के साथ-साथ ज़ायका बदलने को वह बीच-बीच में अंगूर भी खाने लगी। अंगूर भी बड़े रसीले और शहद से मीठे थे। अच्छी चीज़ खाकर आधी बीमारी यूँ भी ठीक होती लगने लगती है। कुछ ऐसा ही मिस शिलांग को लगा। उसने बेहतर महसूस किया। लिहाफ ओढ़कर लेटी रही और न जाने कब फिर से नींद की आगोश में चली गई। कुछ समय बाद आँख खुली तो देखा एक बजा था। धीरे से उठी और पैन्ट्री में जाकर शेरसिंह को आवाज़ दी। वह बंगले से दो कदम नीचे बनी रसोई से अपनी रोटियाँ सेंक रहा था। तुरंत बाहर निकल कर बोला -
“जी दीदी जी।“
शिलांग ने पूछा - “तुम दवा लाए ? “
“जी लाया हूँ और जोशी दीदी ने केले भी भेजे हैं, सेब की ताज़ी पेटियाँ दोपहर में खुलेगी, इसलिए वे सेब ख़ुद शाम को लेकर आएगीं। आप सोई थीं, मैंने आपका दरवाज़ा एक- दो बार खटखटाया था, जब नहीं खुला तो मैं समझ गया कि आप सोई होगी।”
शिलांग को लगा कि शेरसिंह ने भांग तो नहीं खा ली कहीं, ये क्या कह रहा है कि केले लाया है, सेब जोशी शाम को लेकर आएगी, तो फिर मेरे कमरे में वे फल कौन रख गया ? उसे कुछ समझ नहीं आया। कमज़ोरी के कारण उससे खड़ा नहीं हुआ जा रहा था, इसलिए उसने शेरसिंह से दवा के साथ एक गिलास गुनगुना पानी लाने को भी कहा। वह जब कमरे में पानी और दवा लेकर आया तो शिलांग ने दवा खाकर फलों की ओर इशारा करते उससे पूछा –
“ये फल ड्रेसिंग टेबल पे कहाँ से आए ? मैं तो समझी तुम ही पैन्ट्री से आकर रख गए होगें।“
“नहीं दीदी, पैन्ट्री का दरवाज़ा भी तो अंदर से बंद था। मैं अंदर आया ही नहीं।“
कुछ डरा, सकुचाता, हैरान सा हुआ शेरसिंह बोला। मिस शिलांग बुखार के कारण सिर भारी होने के कारण दवा खाकर लेट गई।
“2 बजे अदरक की चाय ले आना“ – मिस शिलांग ने कहा।
वह सिर हिलाता चला गया। लेटते ही बुख़ार की गफ़लत में मिस शिलांग फिर से ऐसी सोई कि 5 बजे उसकी नींद खुली। उसने देखा कि उसकी साथिनें आ गई थीं। सब अपना-अपना काम करते बैठी थीं। मिस शिलांग को लगा कि उसके माथे पे बाम की चिपचिपाहट और खुशबू है, उसने समझा कि ये ज़रूर जोशी ने लगाया होगा। मिस शिलांग पास के बिस्तर पे बैठी कॉपियाँ जाँचती जोशी से बोली –
“थैंक्स, अच्छा हुआ कि तुमने मेरे बाम लगा दिया। अब सिर का भारीपन काफ़ी ठीक है। बड़ा हल्का महसूस कर रही हूँ।“
यह सुनकर जोशी बोली – “अरे, मैंने कब बाम लगाया तेरे शिलांग !! तूने सपने में देखा क्या मुझे बाम लगाते और वह हँसने लगी।“
मिस शिलांग आँख फैलाए जोशी को शक़ से देखती बोली– “देख बीमार से मज़ाक अच्छा नहीं, मेरे माथे पे इतना बाम क्या कोई भूत लगा गया फिर ? “
जोशी इस बार गम्भीरता से उसे समझाती बोली – “ सच शिलांग, क़सम से, तेरे बाम लगाना तो दूर, मैंने तुझे छुआ तक नहीं।“
यह सुनकर शिलांग अनमनी सी हो गयी और मुँह ढक कर लेट गई। सोचने लगी, पहले फल, अब ये बाम..... ये क्या चक्कर है, या कोई जादू है,या ईश्वर धरती पे उतर आया है...!!!
फिर जोशी बोली – “ सुन-सुन तेरे लिए सेब भी ले आई हूँ, पर ये ड्रेसिंग टेबल पे इतने फल कहाँ से आए ? “
मिस शिलांग तो ख़ुद यह राज़ जानना चाहती थी, बोली -
“ मैं तो हैरान हूँ, जब ये फल न तुमने ख़रीदे, न शेरसिंह ने तो फिर ये यहाँ कैसे आए ? “
उनकी बातें सुनकर पास वाले कमरे से मिसेज़ गुप्ता, मिसेज़ दुबे और मिस सौलोमन भी आ गई। सबको कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि इसे किसी की शरारत कहें या इत्तेफ़ाक.....। सबने शिलांग से आराम करने के लिए कहा और ख़ुद भी काम में लग गई। तीसरे दिन मिस शिलांग का बुखार उतर गया। दो दिन और आराम करके, उसने भी सोमवार से स्कूल ज्वाइन कर लिया। स्कूल के ढेर कामों और नियमित व्यस्त दिनचर्या में धीरे-धीरे वह घटना सबके दिमाग से निकल गई, लेकिन अवचेतन मन में ज़रूर सवालिया निशान बनकर चिपक गई।

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जनवरी की कोहरे भरी ठंड, हर दूसरे दिन बर्फ़ गिरती। सारी प्रकृति बर्फ़ से ढकी हुई, पेड़, शाख़ें, पत्ते, क्यारियाँ सब पे बर्फ़ जमी हुई थी। बंगले की लाल टीन की छत, बर्फ़ की मोटी तह बिछ जाने से चाँदनी की मानिन्द शफ़्फ़ाक नज़र आ रही थी। ऐसी कड़क सर्दी में सुब्ह झाड़ू लगाने वाला बूढ़ा जमादार बीमार पड़ गया। एक हफ़्ते तक काम पे न आ सका। लेकिन इस बात की किसी को ख़बर न थी। इतवार के दिन वह अपना फौजी लम्बा कोट पहने, कानों पे मफ़लर लपेटे एवटाबाद हाउस में सबसे मिलने और सलाम करने आया और सबसे पहले लॉन में टीचर्स के साथ ईज़ी चेयर में लेटी, धूप सेकती, प्रिंसिपल मिस जंगपांगी के सामने हाथ जोड़कर बोला –
“ मेमसाब, मैं एक हफ़्ते से बीमार था, इसलिए सबेरे झाड़ू लगाने नहीं आ सका। कल से (सोमवार) मैं काम पर आना शुरु करुँगा।“
यह सुनकर सब चकित होती एक साथ बोली –
“ हमें तो पता ही नहीं चला कि तुम नहीं आ रहे हो क्योंकि हमें तो बराम्दे, लॉन, सब जगह झाड़ू लगी मिलती थी, कहीं भी कचरा, एक भी पत्ता, तिनका पड़ा नहीं मिला और तुम बता रहे हो कि तुम बीमार होने के कारण आए नहीं, तो फिर रोज़ कौन सफ़ाई करके जाता था। तुमने किसी को भेजा था क्या सफ़ाई के लिए ? “
यह सुनकर जमादार बोला – “नहीं मेमसाब, मैंने किसी को नहीं भेजा।“
मिस जंगपांगी ने अनुमान लगाते हुए कहा –
“ कहीं गोविन्दराम या शेरसिंह ने तो अपने आप यह काम नहीं सम्भाल लिया, तुम्हारे न आ पाने से... ? “
यह सुनकर जमादार भी ख़ामोश, निरुत्तर खड़ा रह गया। उसे भी कुछ समझ नहीं आया कि ऐसे कैसे हो सकता है कि उसके न आने पे भी सफ़ाई होती रही... ?!! ख़ैर, वह अंजाने ही सबको सोचने का एक अटपटा सा विषय दे गया जिसका दूर-दूर तक कोई ऐसा छोर नहीं मिल पा रहा था कि जिससे गुत्थी सुलझे। मिस जंगपांगी ने कुछ देर बाद शेरसिंह को बुलाकर बंगले की सफ़ाई के बारे में पूछा तो उसने इंकार किया। फिर वे बोली –
“जाओ, सर्वैन्ट क्वार्टर्स में जाकर सबसे पता करके आओ कि 4-5 दिन तक सुब्ह बाहर की सफ़ाई किसने की ? “
शेरसिंह सिर हिलाता क्वार्टर्स में गया और पता करके आया कि किसी ने भी सफ़ाई नहीं की। अब तो यह रहस्य एक अनबूझ पहेली बन गया – टीचर्स से लेकर सभी नौकरों तक के लिए।
रात के 10 बजे थे। शेरसिंह पानी का जग लेकर दीदी लोगों के कमरे में रखने जा रहा था, जैसे ही वह रसोई से निकला, उसे फूलों की क्यारियों के पास सफेद कपड़ों में एक ऊँचे क़द का आदमी नज़र आया। सहसा वह डर के चीखा –
“भूत.........भूत..... भूत ..............“
तभी नीचे क्वार्टर से रात की ड्यूटी के लिए ऊपर आता चौकीदार शेरसिंह की डरी चीख़ सुनकर रसोई की ओर तेज़ी से लपका और बोला –
“अरे, क्या हुआ, कहाँ है भूत.......? “
शेरसिंह के चेहरे पे हवाईयाँ उड़ी हुई थी, वह झाड़ी की तरफ़ इशारा करता घिघयाए गले से बोला –
“वो देखो, उधर.........“
पर तब तक वहाँ कोई नहीं था। चौकीदार उसे शेरसिंह का वहम समझ कर हँसता हुआ बोला –
“चल डरपोक कहीं का। आ, मैं चलता हूँ तेरे साथ कमरे तक।“
कमरे में शेरसिंह के साथ चौकीदार को आया देख मिसेज़ गुप्ता ने पूछा –
“शेरसिंह के साथ तुम इस समय कैसे चौकीदार।“
इस पर चौकीदार फिर से हँसता हुआ बोला -
“इस डरपोक को झाड़ी के पास भूत दिखा, तो मैं इसके साथ आया हूँ।“
यह सुनकर गुप्ता ही नहीं और टीचरों के भी कान खड़े हो गए। उन्हें, शेरसिंह को इस तरह भूत का दिखना, कोई वहम नहीं बल्कि सच लगा। सबको लगा कि एवटाबाद हाउस में जो रहस्यमय ढंग से कुछ-कुछ, जब-तब घटता रहता है, उसके पीछे हो न हो, भूत ही है। पर सब खौफ़ से भरी चुप रहीं और अपने-अपने बिस्तरों में ऐसे दुबक के लेटी कि जैसे भूत से छुप रही हों।

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कुछ दिन बाद सभी ने मिस जंगपांगी से गम्भीरतापूर्वक इस बारे में बात की और डॉ.शाह को एक दिन बंगले पे बुलाकर इस विषय में विस्तार से बताकर कोई निदान निकालने का निवेदन किया। अगले रविवार को डॉ. शाह लंच पर आए। उन्होने टीचर्स की सब बातें बड़े धैर्य से सुनकर उस राज़ का खुलासा किया जिसका ज़िक्र वे बेबात ही किसी से करना ठीक नहीं समझते थे। लेकिन जब प्रगट रूप से एवटाबाद में रहस्यमय घटनाएँ घट ही रही थीं तो उन्होने भी बताना उचित समझा। वे सबको शान्ति से समझाते बोले –
“देखिए, घबराने की या डरने की कोई बात नहीं। यह बंगला अँग्रेज़ों से पहले एक गढ़वाली अफ़सर का था। वही इसका मालिक था। सुना गया है कि एक बार परिवार के साथ पिकनिक पर गए हुए उस अफ़सर की एकाएक पहाड़ी से पैर फिसल जाने के कारण असमय दर्दनाक मृत्यु हो गई थी। ज़ाहिर है, उसे अपने इस बंगले से बड़ा लगाव रहा होगा, ऊपर से अचानक असमय मौत, तो ऐसे में कई बार इंसान की आत्मा भटकती है, उसकी मुक्ति नहीं होती। लैन्सडाउन में रहने वाले पुश्तैनी लोगों का कहना है कि आज भी उस अफ़सर की आत्मा अपने प्यारे घर के आसपास रहती है।वह इस बंगले और इसमें रहने वालों को कभी नुक़सान नहीं पहुँचाता, वरन उनका भला ही करता है, मदद करता है। जैसे जब मैं अपने परिवार सहित यहाँ रहता था तो एक बार रात 9 बजे के लगभग मुझे एक इमरजैन्सी केस देखने शहर जाना पड़ा। लौटने में देर हो गई। रात के यही कोई 11 बजे होगें। मैं पैदल बड़ी टॉर्च की रौशनी दूर तक फेंकता तेज़ कदमों से बंगले की ओर चलता चला आ रहा था कि तभी पीछे से एक छोटी कार मेरे पास आकर रुकी और उसमें बैठे सज्जन ने मुझे यह कहकर लिफ़्ट दी कि वह भी चेटपुट लाइन्स जा रहा है अगर मुझे भी उधर ही कहीं जाना है तो वह छोड़ सकता है। थका हुआ तो मैं था ही, तो मैं उसकी इस उदारता का शुक्रिया अदा करता कार में बैठ गया। रास्ते में हमारे बीच कोई ख़ास बातचीत नहीं हुई। मैं अपने परिवार के पास पहुँचने की जल्दी में था। गेट पर कार के पहुँचते ही, मैं धन्यवाद देता कार से उतरा और गेट के अन्दर आते ही, जैसे ही शिष्टाचारवश मैं उस व्यक्ति को ' बॉय बॉय' कह कर हाथ हिलाने को मुड़ा तो पाया कि उस एक क्षण के अन्दर वह कार सहित ग़ायब हो चुका था। दूर तक कार कहीं भी दिखाई नहीं दे रही थी। मैं ठगा सा खड़ा रह गया।“
इसी तरह एक बार वह भूत मेरी बेटी जया के हाथ में फ़्रैक्चर होने पे मेरे घर के नौकर प्रेमसिंह के रूप में मेरे अस्पताल के कमरे में आया और जया के फ़्रैक्चर के बारे में बता कर ग़ायब हो गया। मैंने तुरंत अस्पताल से चार कर्मचारियों को स्ट्रैचर लेकर कंपाउडर सहित इस बंगले पे भेजा और इस तरह उचित समय पर जया के प्लास्टर वगैरा चढ़ गया। शाम को घर लौटने पर मैंने जब अपनी पत्नी से कहा कि ये तुमने अच्छा किया कि प्रेमसिंह से जया के फ़्रैक्चर की मुझे सूचना अस्पताल में भिजवा दी, वरना इसके हाथ में बहुत सूजन आ जाती, तो वह अचरज से भरी मेरी ओर देखती बोली –
“मैंने कब प्रेम सिंह को भेजा, उल्टे मैं ही आप से पूछने वाली थी कि आपको 3 कि.मी. दूर अस्पताल में किससे सूचना मिली कि आपने कर्मचारियों को स्ट्रैचर लेकर कंपाउडर सहित यहाँ बंगले पे भेजा।“
पत्नी से यह सुनते ही डॉ. शाह को समझते देर नहीं लगी कि प्रेम सिंह का रूप में उन्हें सूचना देने वाला कोई और नहीं, बल्कि 'उपकारी भूत' ही था, जो एवटाबाद में रहने वालों का शुभचिन्तक और निस्वार्थ मददगार था। सो आप लोगों को मेरी नेक़ राय है कि आप निश्चिन्त होकर यहाँ रहिए और ज़रा भी उस भली आत्मा से डरने की ज़रूरत नहीं। आपको तो बिन माँगे एक अदृश्य शक्तिशाली रक्षक मिला हुआ है। आपको तो सुरक्षित महसूस करना चाहिए। आप अपना काम कीजिए, उस उपकारी को अपना काम करने दीजिए। इसमें परेशानी क्या है। साल भर के अदंर आप लोगों की सरकारी स्कूल बिल्डिंग बनने वाली है और साथ में 15 कमरों का टीचर्स हॉस्टल भी, तो वैसे भी स्थायी रूप से आपको इस बंगले में रहना नहीं है। कुछ देर बाद डॉ.शाह चले गए। सब टीचर्स भी कमरों में लौट आई। डॉ.शाह से बात करके वे काफ़ी आशस्वत हुई, फिर भी भूत शब्द ही ऐसा है जो अच्छे-अच्छे हिम्मत वालों के पसीने छुटा दे, तो फिर उन कम उम्र युवतियों का भय स्वभाविक था। लेकिन अब वे अपने भय को दूर के लिए दिल से कोशिश में थी।
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इधर छ महीने से बंगले में कोई भी रहस्यमय घटना नहीं घटी थी। जबकि अब सभी टीचर्स उस बंगले के असली भूतपूर्व मालिक उपकारी भूत के एक बार दर्शन करने को मन ही मन इच्छुक रहती थी क्योंकि डॉ.शाह के द्वारा उसके गुणगान सुनकर, वह उन्हें अपना दोस्त लगने लगा था। सभी महीने में एक दो बार उसका ज़िक्र करके याद करती, पर वह जैसे बंगले पे आना भूल गया हो, उन्हें ऐसा लगता। तभी 25 जुलाई को, मिस सौलोमन के जन्म दिन पर उसने बहुत दिनों बाद अपनी उपस्थिति का भान कराया। उस दिन सुब्ह उठते ही सभी टीचर्स ने बारी-बारी से सबकी चहेती मिस सौलोमन को “मैनी हैप्पी रिटर्न्स ऑफ़ द डे” कहा और ढेर शुभकामनाएँ दी। शाम को बर्थ डे केक, समोसे, मिठाईयाँ, गरम-गरम पकौड़ी और स्पेशल चाय वाली छोटी सी पार्टी बंगले पर रखी गई। प्रिंसिपल को भी मिस सौलोमन के कमरे में स्कूल के बाद आने का निमंत्रण दे दिया गया। शाम को जब टीचर्स स्कूल से लौटी तो, देखा कि मिस सौलोमन के कमरे में मेज़ पे बेहद ख़ूबसूरत फूलों का बड़ा सा गुलदस्ता रखा हुआ था । कमरा फूलों की ख़ुशबू से महक रहा था। सभी ने उस गुलदस्ते का राज़ तो भांप लिया था फिर भी अपने अनुमान को पक्का करने के लिए शेर सिंह से पूछा -
“कोई पीछे आया तो नहीं था ?”
शेरसिंह ने बताया – “कोई भी नहीं ”
इससे सब जान गए कि ये उस भले भूत की तरफ़ से मिस सौलोमन को बर्थ डे का तोहफ़ा था। मिस सौलोमन ने उसे एक बड़े फ़्लावर वाज़ में पानी भर कर बड़े प्यार और सम्मान से लगाया और उसके आगे हाथ जोड़कर विनम्रता से “थैंक्स” कहा। इस तरह हर दूसरे तीसरे महीने छोटी-बड़ी मदद उसकी ओर से होती रहती। सबको अब उसकी मदद भली लगती और सब उसे खामोशी से शुक्रिया देती। उन सबका उस अदृश्य दोस्त से एक आत्मिक रिश्ता क़ायम हो गया था। वे तो अब नए हॉस्टल में जाने को भी पहले जैसी उतावली नहीं थी। ये भी जानती थी कि एक दिन तो उस एवटाबाद हाउस से उन्हें विदा लेनी ही है, लेकिन अदृश्य दोस्त से उनमे से कोई भी विदा नहीं लेना चाहती थीं। एवटाबाद हाउस और उसका “केयर टेकर” वह ख़ामोश उपकारी भूत हमेशा के लिए उनके दिल में जगह बना चुका था।

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