Sunday, July 18, 2010

लघु कथाएँ

‘ निरुत्तर ’

बच्ची – अब्बू ! हिन्दू-मुसलमान क्या होता है ?
अब्बू – क्यों, किसी ने कुछ कहा क्या बेटा तुमसे ?
बच्ची – नहीं, हमने फूफी से कहा कि हम अपना नाम ‘सीता’ रखेगें तो फूफी ने कहा कि हम यह नाम नहीं रख सकते क्योंकि हम मुसलमान हैं I
अब्बू – (बच्ची के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए) सायरा बेटा ! हम तुम्हारा एक बहुत ही नायाब नाम रख देते हैं - ‘नफीसा’. कैसा लगा तुम्हें ?
बच्ची – अब्बू ! यह नाम हिन्दू है या मुसलमान ?
अब्बू नन्हें मुख से इस भारी सवाल को सुनकर ‘निरुत्तर’ रह गये I


‘बड़ा शहर ’
बेटा - माँ-बाबा ! आप मेरे साथ शहर में रहने क्यों नहीं चलते ?
माँ-बाबा – हम यहाँ खुश हैं बेटा I घर के सारे आराम हैं, अमन चैन है I
बेटा – फिर भी माँ-बाबा, आप एक बार चल कर तो देखिए कि आपका बेटा कितने बड़े ‘महानगर’ में रहता है, कंपनी ने कितना बड़ा घर दिया है I दरवाजा खुलने से लेकर ए.सी और पंखा चलने तक, सारे काम ‘रिमोट’ का बटन दबाते ही हो जाते हैं I जादू है जादू बाबा ! कमरों से लेकर किचिन तक सारे काम मिनटों में….. I
माँ-बाबा – वो तो सब ठीक है बेटा, पर हमें यही रहने दो I
बेटा – पर क्यों माँ-बाबा ? मैं कुछ नहीं सुनूंगा; बस आपको चलना ही पडेगा...या फिर आप मुझे बताइए कि आपको वहाँ और क्या चाहिए, मैं वह भी आपको दूँगा I

बेटे के इसरार से चिंतित और शहर जाने से कतराते माँ-बाबा हौले से बोले –
बेटा ! तुम्हारे महानगर में ‘आकाश’ प्रदूषण से ढक गया है, ‘धरती’ पर कंकरीट का जंगल उग आया है, ‘जल’ में शहर की गंदगी घुल गई है, ‘हवा’ में कचरे की दुर्गन्ध बस गई है, बड़ी-बड़ी इमारतों में ‘घर’ कहीं खो गया है. तुम चाह कर भी वो पहले जैसा नीला आकाश, हरी भरी धरती, मीठा स्वच्छ जल, रिश्तों की गरमाहट से भरा घर कही से भी खोज कर नहीं ला सकोगे क्योकि इन सबको दफ़न हुए एक अरसा हो गया है......! और हम इन सबके आदी हैं I
यह सुनकर बेटे को पहली बार ‘बड़े शहर’ बौना लगा I


‘ बड़े लोग ’
नेता जी – भाईयों और बहनों ! आप मुझे वोट दीजिए और मैं आपके लिए वो करूँगा, जो आज तक किसी नेता ने नहीं किया I मैं आपको बड़े घर दूँगा, बड़ी सुख सुविधाएं दूँगा, आप ‘बड़े लोगों’ की तरह शान से जीवन जिएगें I मैं आपके जीवन को खुशियों से भर दूँगा, ऐशो-आराम से भर दूँगा और..
भीड़ में से एक फक्कड तीरंदाज़ बोला - और, और, और.....‘भष्टाचार’ से भर दूंगा...!
इस शरारती, पर सही ‘उदघोष’ पर भीड़ ने ठहाका लगाया और देखा कि सामने माइक पे खड़े नेता महाशय और उनके साथी भी ‘खिसियाए ठहाके’ लगा रहे थे I
आँखें
वे आँखें महागाथा सी, लंबी कथा सुनाती
निशब्द, किताबी आँखें वे, कितना कुछ कह-कह जाती

उलझे विचार सी लगती, कभी संवेदना बन जाती
कभी बादल की तरह उमडती, कभी नज़र चिंगारी आती
वे आँखें महागाथा सी, लंबी कथा सुनाती..

कभी किलकती शिशु सी, कभी यौवन सी इठलाती
जीवन संध्या जीने वालों सी, कभी एकाकी हो जाती
वे आँखें महागाथा सी, लंबी कथा सुनाती...

कभी कथानक, कभी संवाद, अनगिनत चरित्रों का संसार
पहुँच चरम सीमा पे वे, कभी अमर सन्देश बन जाती
वे आँखें महागाथा सी, लंबी कथा सुनाती...

उठती, झुकती, मुस्काती, कभी इन्द्रधनुष बन जाती
नवरस छुपाए कोरो में, दर्द के कतरे छलका जाती
वे आँखें महागाथा सी, लंबी कथा सुनाती
निशब्द, किताबी आँखें वे, कितना कुछ कह-कह जाती

A View of Lansdowne


Church during Snow Fall


Lansdowne : ' Saint Mary's Church'





टूटे हुए आशियाने के अटूट रिश्ते


मेरे बच्चों की दादी, मेरी सास, जिन्हें मैं ‘अम्मा’ बुलाती थी, हांलाकि आज दुनिया में नहीं हैं, लेकिन दुःख, निराशा, हताशा के पलों में आज भी मेरा संबल बन, वह मेरे ज़हन में उतर आती हैं और मुझे हताशा के पलों से बाहर निकाल कर, प्यार से दुलार कर, एक लंबे समय के लिए स्फूर्ति व उत्साह से भर जाती हैं I हमारे घर में ’टूट कर’ भी ‘अटूट’ बने रहने वाले रिश्तों की कुछ ऎसी अनोखी परम्परा रही है जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रही I आज मैं उन्हीं अटूट रिश्तों की डोर में बंधी, उन्हें याद करती, अपनी प्यारी ‘अम्मा’ (सास) के बारे में बड़ी शिद्दत के साथ वो सब लिखने जा रही हूँ जो मेरे जीवन की कीमती पूंजी है I मुझे लगता है कि हर निश्छल इंसान ‘अपनों’ से, दिल से नही, वरन आत्मा से जुडा होता है क्योंकि किसी कारणवश चोट लगने पर, दिल के रिश्ते एकबारगी मिट सकते है, पर ‘आत्मा’ में बसे रिश्ते न कभी मरते है और न कभी मिटते है I कुछ ऐसा ही आत्मिक रिश्ता था मेरा ‘अपनी अम्मा’ के साथ I
अक्सर देखा गया है कि जीवन में चोट खाया, धोखा खाया इंसान इतनी कडुवाहट और प्रतिशोध से भर जाता है, इतनी अधिक नकारात्मकता उसमें घर कर जाती है कि वह दूसरों को सताने में आनंद लेने लगता है I लेकिन अम्मा ने इस मिथ को तोड़ कर एक ख़ूबसूरत मिसाल कायम की थी I
१९३८ में अम्मा और पापा का अंतर्जातीय विवाह हुआ था I पापा आर्मी में मेजर डाक्टर थे I उन दिनों वे हिम्मतनगर पोस्टेड थे I अम्मा की बड़ी बहन, जिन्हें हम सब ‘डा.मौसी’ बुलाते थे;वे भी हिम्मतनगर पोस्टेड थीI इन्ही ‘डा.मौसी’ के पास अम्मा उन दिनों रह रही थी I बंबई यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन करके, वे पढाने भी लगी थीं I पापा से अम्मा का परिचय एक परिवार के माध्यम से हुआ था I पापा, अम्मा और उनके परिवारजनों से अक्सर मिलने आते, खूब बातचीत, गाना, खाना होता I पापा और अम्मा में से किसी को भी यह एहसास नहीं था कि उनकी यह जान पहचान आने वाले समय में शीघ्र ही प्यार में बदल जाएगी I होनी
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को कौन टाल सकता है !! ‘आज’ ‘आने वाला कल’ बन जिस गति से आगे बढ़ रहा था, उस गति से ही अम्मा और पापा एक दूसरे के निकट आते जा रहे थे और एक दिन दोनों ने पाया कि वे अंतरंग मित्रता के घेरे में आ चुके हैं I पापा अम्मा के पीछे –पीछे छाया की तरह घूमते थे I अम्मा का लगाव भी कम सघन नहीं था किन्तु वह संस्कारों की शालीनता और सहज लज्जा भाव का झीना आवरण ओढ़े रहा I हिम्मतनगर से पापा की पोस्टिंग कहीं और होने का समय पास आ रहा था, सो दोंनो ने अंतत: शादी का फैसला लिया I दोनों विवाह के बंधन में ज़रूर बंधे, पर घर वालों की मर्ज़ी के खिलाफ जाकर I अम्मा के ‘आई-बाबा’ तो फिर भी एक दफे को तैयार से थे लेकिन‘आजी’ उनकी शादी मराठी परिवार में ही करना चाहती थीं I ऐसा नहीं कि ‘आजी’ को पापा मे कोई कमी नज़र आती थी I उनका आकर्षक व्यक्तित्व, सुख-सुविधाओं और सम्मान से भरा आर्मी में ‘मेजर डाक्टर’ का ओहदा, अति धनाढ्य व शिक्षित खानदान जिसमें पुश्तैनी ‘ज़मीन जायदाद’ के साथ ‘डाक्टरी’ का पेशा भी पुश्तैनी था, वे सब बातें उन्हें ‘सुयोग्य वर’ की श्रेणी में रखती थी I पापा, पापा के पिता, दादा, पडदादा सभी डाक्टर, सी.एम.ओ. रहे थे; एक ऐसा व्यवसाय, जिसमें आदमी रिटायर होकर भी, कभी रिटायर नहीं होता I ‘आजी’ को एतराज़ था तो बस इस बात पर कि लड़का ‘दूर देश’ का है यानी के उत्तर प्रदेश का I लेकिन ‘मियाँ बीवी राजी तो क्या करती आजी’’.......सो अम्मा-पापा ने पहले तो सबको मनाने की बहुत कोशिश की, लेकिन जब बात नहीं बनी तो कोर्ट मैरिज कर ली I
शादी करके जब डा. मेजर पति के साथ अम्मा आधुनिकता से अछूते १९३८ के उस युग में परम्पराओं और रीतिरिवाजों में सख्ती से बंधे उ.प्र. के छोटे से शहर में पहुंची तो, घर भर से लेकर बाहर तक के लोगों के लिए वे एक अजूबा थी क्योंकि वे सिर को पल्ले से नहीं ढकती थी I सास, ससुर, जेठ, जिठानी, ननद, ननदोई सबके आगे वे खुले सिर उठती बैठती, उनकी भरपूर आवभगत, सेवा टहल करती, लेकिन सिर पे पल्ला रखना या पर्दा करने जैसी परम्परा से वे कोसों दूर थी I उस ज़माने में उ.प्र. में शादी शुदा दुल्हिन बड़ों के आगे, खासतौर से बजुर्ग पुरुषों के सामने सिर न ढके तो यह उस घर, उस परिवेश की संस्कृति को मानो चुनौती देना था I पर सीधी, सरल अम्मा तो उस परिवेश,घर और वहाँ की संस्कृति, सभ्यता, रीति-रिवाज़ को चुनौती देने की सपने में भी नहीं सोच सकती थीं I क्योकि वे इस तरह के स्वभाव की थी ही
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नहीं I वे सिर पर पल्ला सिर्फ और सिर्फ इस भावना के कारण नहीं लेती थी क्योकि मराठी संस्कृति और मूल्यों से पोषित उनका मन ऐसा करने की गवाही नहीं देता था I जैसा कि महाराष्ट्र में विधवा स्त्री सिर ढकती है और सधवा सिर खुला रखती है; सो वे अपने पति को किसी भी तरह के अमंगल से बचाने की भावना से सिर पर पल्ला नहीं लेती थीं I आधुनिक या आर्मी आफिसर की पत्नी होने का थोथा भान अथवा नए परिवेश की संस्कृति, परम्पराओं और रीतिरिवाजों से मोर्चा लेने जैसा क्रूर इरादा उन्हें छू तक नहीं गया था I पति की लंबी उम्र, जीवन की सुरक्षा की मंगल कामना के कारण सिर ना ढकने की अम्मा की इस भावना का स्वागत किया उनकी सास यानी मेरी ददिया सास ने I उन्होंने सख्ती से सबका विरोध करके, अम्मा का पक्ष लिया और तब से अम्मा बिना किसी भय और कुंठा के सिर खुला रखा सकी I
महाराष्ट्र के देशस्थ ब्राहमण परिवार की सीधी - सरल, पढ़ी-लिखी अम्मा जब अपने मधुर कंठ से गाना गाती तो, सब सुनते न थकते I इसके अलावा उनका एक और रूप था I लान टेनिस, टेबिल टेनिस खेलना और यदा कदा, मौक़ा मिलने पर घुडसवारी भी करना I बीते ज़माने में कम ही महिलाएं लान टेनिस खेलती होगी और घुडसवारी करती होगी I ये सब उनके जीवन में सामान्य और सहज गतिविधियों के रूप में शामिल था I वे उलटे पल्ले की साडी पहनती और छोटे से पल्लू को टिपिकल मराठी अंदाज़ में दांए कंधे पर इस तरह टिकाती कि पल्लू कंधे से लटकते हुए भी ज़रा सा भी इधर से उधर न होता I रोली कुंकुम की बिंदी लगाती और उसी से थोड़ी सी मांग इस तरह भरती कि कुंकुम मांग से ज़रा सी बाहर माथे पे भी नज़र आती I रोली की मांग और बिंदी में ही उनका सोलह श्रृगार सिमटा था I मैंने उनको न कभी छोटा मोटा जेवर पहने देखा और न इससे अधिक श्रृगार करते देखा I अपनी सादगी में ही वह बड़ी मोहक और गरिमापूर्ण लगती थीं I

पापा की जहां-जहां पोस्टिंग होती, अम्मा हर पल हर कदम पे उनके साथ होती, यहाँ तक कि पापा के साथ उनके मरीजों की देखभाल में अक्सर शौकिया मदद भी करती I इसी बीच वे दो बेटों की माँ बनी I इसी दौरान कुछ घरेलू समस्याएँ भी उठ खडी होने के कारण, पापा ने अपनी

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माँ के (मेरी दादी सास) के कहने पर आर्मी से रिटायरमैंट ले लिया और अपने पुश्तैनी घर लौटकर, अपना एक ‘नर्सिंग होम’ खोला I
अम्मा को अपनी ससुराल में किसी भी तरह की समस्या नहीं थी सिवाय के ‘भाषा ‘ के I वे मराठी और अंग्रेजी तो धाराप्रवाह बोलती थीं, लेकिन हिन्दी उनकी कमजोर थी I अपने हिन्दी ज्ञान पर उन्हें कतई भरोसा नहीं था I जबकि संस्कृत के श्लोक बड़े अच्छे कंठस्थ थे उन्हें I हिन्दी कामचलाऊ बोल लेती थी लेकिन अपनी बात हिन्दी के शब्दों की जानकारी के अभाव में पूरी तरह ठीक से अभिव्यक्त नहीं कर पाती थीं I यों हिन्दी गाने वह बड़े अच्छे गाती थीं क्योकि गीत सुनकर उन्हें हूबहू वैसे ही कोई भी गा सकता है लेकिन जब अपने आप से हिन्दी के वाक्य बनाकर कहने की बात आती, तो अम्मा ठीक से अभिव्यक्त करने में असमर्थ ही रहतीं I हिन्दी लिखना तो बहुत दूर की बात थी I इसलिए उन्होंने जब भी मुझे खत लिखे तो हमेशा अंग्रेजी में क्योकि मुझे मराठी नही आती थी और उन्हें हिन्दी, सो पत्राचार की हम दोनों के बीच कामन भाषा अंग्रेजी रही I इस भाषा समस्या ने उनके जीवन का गणित ही बदल दिया I वो इस तरह कि पापा के समय से पहले रिटायरमेंट लेकर अपने पुश्तैनी घर में आकर बसने पर अम्मा की दोस्ती एक लेडी डाक्टर से हो गई जिनके साथ वे भाषा के बंधन से मुक्त होकर अपने मन की बातों का आदान प्रदान अंग्रेज़ी में करती और इस तरह घरेलू ज़िंदगी से कुछ पल फुर्सत के पाकर, उन्हें पास ही लेडीज़ अस्पताल में शाम को घूमते हुए जाकर अपनी नई- नई सहेली से थोड़ी देर गप शप करके अच्छा लगता I लेकिन न जाने कौन से दुष्ट नक्षत्र – शानी या राहू-केतु की सीधी और तीखी नज़र इस दोस्ती पर पडी कि लेडी डाक्टर से अम्मा की दोस्ती कम और पापा की ज़्यादा होती गई I उन दोंनो के बीच दोस्ती के उस विशिष्ट ‘’अधिकाँश’’ को अम्मा जान ही न पाई I फलत; समय के साथ पापा की यह नई दोस्ती एक बार फिर प्यार में उसी तरह बदल गई जैसे कुछ वर्ष पूर्व अम्मा के साथ प्यार में पनपी थी I लेकिन वह प्यार तो जायज़ था क्योंकि उससे किसी का भी घर उजडने का अंदेशा नहीं था, पर इस बार यह ‘दूसरा’ प्यार, समाज और क़ानून को तो मैं बाद में गिनती हूँ, सबसे अधिक ‘इंसानियत’ की दृष्टि से नाजायज़ था क्योंकि इससे अम्मा और पापा का वैवाहिक जीवन उजडने वाला था I प्यार का ज्वर ऐसा उन आंटी और पापा पर चढ़ा कि न तो अम्मा की एक मात्र सहेली
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‘आंटी’ ने और न ही प्रेमी-पति ‘पापा ने अम्मा से लेकर परिवार तक, किसी की भी परवाह नहीं की और बरेली जाकर चुपचाप १९४८ में कोर्ट मैरिज कर ली I हर दृष्टि से सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, वैधानिक, यह शादी गलत ही नहीं बल्कि एक अपराध थी, लेकिन एक बार फिर ‘होनी’ होकर रही I कोर्ट मैरिज करके पापा अपनी दूसरी पत्नी को लेकर घर वापिस आ गए I इस अनहोनी के समय अम्मा उसी ‘हिम्मत नगर’ गई हुई थी; जहां पापा और वे कभी दस साल पहले, प्यार के और फिर विवाह के बंधन में बंधे थे I यह अपशकुनी खबर तीर सी अम्मा तक पहुंची और उन्हें अंदर तक लकवे की तरह जकड कर बेजान बनाती चली गई I क्योंकि वे अपने पति और सहेली, दोंनो पर ही ज़रूरत से ज़्यादा विश्वास करती थीं I उनका प्यारा रिश्ता अतिविश्वास की बलि चढ़ गया था I दिल के टुकड़े कर देने वाली खबर पा के उनके शब्द कहीं खो गए थे, गला आघात से रुंध गया था I वे कुछ बोल लेती, बोल कर अपनी पीड़ा, अपना क्रोध निकाल लेती तो अच्छा होता, पर वे ऐसा कर नहीं पाई I वे कई दिनों तक भावनाशून्य, किसी भी तरह की प्रतिक्रया रहित ऐसी जड रहीं कि उनके घरवाले सब डर गए कि कहीं वह हमेशा के लिए अपनी चेतना न खो बैठें I ईश्वर कृपा से, धीरे धीरे किस तरह निर्जीवता के फंदो से पल पल जूझती, आत्मिक शक्ति से अपने अंदर प्राणों को फूंकती, बच्चों को हर समय प्यार से अपनी बांहों में समेट-समेट कर मानो जीने की हिम्मत बटोरती, कभी उनकी भोली आँखों में जीवन का सुकून पाने की आशा संजोती, वे किसी तरह अपने को सम्हाल पाई I इसके बाद अंदर से बुरी तरह टूटी,चिटकी हुई अम्मा ने एक दिन अपनी सास को आंसू बहाते बहाते किसी से हिन्दी में खत लिखवाया कि ‘’अब वे वहाँ आना नहीं चाहती I पापा, वह घर, वहाँ के दरों-दीवार उनके लिए बेगाने हो गए हैं I सब कुछ छिन गया, अपनों ने ही छीन लिया I अब वहाँ उनकी जगह ही मिट गई, इसलिए वह वहाँ आकर क्या करेगी...!’
इधर पापा से उनकी माँ, बहने, भाई, बहनोई सभी नाराज़ और आहत बैठे थे I वे सब अम्मा का ऐसा दर्द भरा खत पढ़ कर और भी दुःख में डूब गए I सबने सोच विचार किया I टूटे घर को जितना संभव हो सके, उतना जोडने के लिए, अम्मा को बच्चों सहित ससम्मान घर वापिस लाने का फैसला लिया गया और बुआ व फूफा जी अम्मा को वापिस घर लिवा लाए I उसी घर में वापिस आकर, फिर से दूसरी नई ज़िंदगी जीने के लिए अम्मा ने जैसे ही कदम
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रखा, उनकी सास ने आगे बढकर, उन्हें अपने से चिपटा लिया I १९४८ में उनके इस नए जीवन का मज़बूत सहारा बनी - उनकी सास, जिन्होंने बेटे की ममता और प्यार सबसे ऊपर उठ कर,अपनी बहू को गले लगाकर इज़्ज़त से घर में रखा और मरते दम तक चट्टान की तरह अम्मा का सहारा बनी रहीं I इस तरह भावनात्मक, पारिवारिक, सामाजिक, जंग लड़ती-लड़ती, अम्मा पतिविहीन हुई, सास और बच्चों के सहारे पतिगृह में बिना ‘उफ़’ किए, अपने को सहज बना कर पापा से तहे दिल से वाबस्तगी बनाए हुए जीती रहीं I एक बार आंटी (दूसरी सास) और पापा में किसी बात पर लंबा मनमुटाव हुआ और फलत: आंटी उलटी, पेट दर्द से बेहाल हो, पलंग से लग गई I उस ज़रूरत के समय में अम्मा का ही दम ख़म था कि उन्होंने सब कुछ भुलाकर आंटी की दिनरात तब तक सेवा की जब तक वे पूरी तरह ठीक नहीं हो गई I सारे रिश्तेदार अम्मा द्वारा आंटी की जी जान से कि गई सेवा को देखकर चकित ही नहीं वरन सोच में डूबे थे कि वे इंसान हैं या कोई ‘देवी’....!!!देखते ही देखते अम्मा के दोनों बेटे बड़े हो गए और एक दिन दोंनों की बहुए भी घर आ गईं I अम्मा की दो बहुओं में, मैं छोटी थी और घर भर में छोटी थी I तो भारतीय परम्परा के अनुसार घर में जब भी कोई मेहमान आते, किसी तरह का उत्सव या त्यौहार होता, तो ‘महाराजिन’ के साथ खाने पीने, नाश्ते आदि की खास तैयारी के लिए सबसे छोटी होने के कारण मुझे उठना पडता I मैं तो अपनी पाक कला कि धाक जमाने के लिए खुशी - खुशी रसोई में जाती, पर अम्मा मेरा ख्याल करती, मेरे पीछे पीछे रसोई में आ जाती I मैं उनसे बहुत कहती कि वे चिंता न करें - मैं ‘महाराजिन’ के साथ मिल कर सब सम्हाल लूंगी , पर वे कहाँ मानने वाली; साथ ही लगी रहती I ऐसे ही जब कभी मेरी तबियत ज़रा सी भी खराब होती जैसे बुखार, खांसी जुकाम हो जाता तो वह मुझे आराम करने की सख्त हिदायत देकर, मेरे हिस्से के कामों को खुद सम्हाल लेतीं I कुछ बचे हुए काम नौकर के सुपुर्द कर, मेरे सिरहाने बैठ कर, माथे पे विक्स लगाती, सिर दबाती I जैसे यह सब करना उनका धर्म था I उनके इस ख्याल प्यार पर कई बार मेरी आँखें छलछाला आतीं I
अम्मा हद से ज्यादा सहनशील थीं I उनकी सहनशीलता देखकर मुझे ताज्जुब होता था I मेरी दादी सास बाद के सालों में लगातार बीमार रहने के कारण थोड़ी चिडचिडी सी हो गई थीं, इसलिए कभी-कभी अम्मा से ऊंचा बोल जाती थीं I लेकिन अम्मा कभी भी, ज़रा भी उनकी

तुनकमिजाजी पे खीझती नहीं देखी मैंने I हमेशा खामोशी से उनका काम करती रहती थी I इसी तरह एक दो बार ऐसा हुआ कि परीक्षा पास होने के कारण, मैं पढाई में लगी हुई होती थी, साथ-साथ घडी पे भी नज़र रहती है कि सबके लिए चाय बनानी है, घडी देखती जाती और अन्तिम पेज खत्म करने के चक्कर में ४-५ मिनट की देर हो जाती तो अम्मा मेरी परीक्षा और पढाई की चिंता करती, मेरे उठने से पहले चाय बना लेती और इतना ही नहीं, मेरे लिए कमरे में चाय लेकर भी आ जाती I इस तरह चाय का कप हाथ में लिए खडा देख, मैं हडबडा कर उठ खडी होती और शर्म से गडती हुई बोलती – अरे, अम्मा आपने क्यों चाय बनाई, मैं तो बस बनाने आ ही रही थी.... I’’तो वे तुरंत कहतीं -‘’क्या हुआ...तुम्हें पढाई का कितना काम रहता है आजकल, परीक्षा पास है, तुम्हें भी थोड़ी मदद की ज़रूरत है, सो मैंने बना ली चाय अपनी भी और तुम्हारी भी I ‘भाभी जी’ (दादी सास) तो अभी सो रही हैं. ‘’उनके ऐसे ख्याल व प्यार पर, हमेशा मैं ऊपरवाले का शुक्रिया अदा करती कि उसने मुझे इतनी पुरखुलूस और नेकदिल सास दी कि जिसमें मैं अपनी माँ को देखती और सोचती कि ऐसी ममतामयी सास ज़रूर मेरे पिछले जनम के किन्हीं अच्छे कर्मों के कारण ही मिली है I
अम्मा की उदारता के आगे तो कायनात भी शरमा जाए, इतना बड़ा दिल रखती थी वे I चूंकि आंटी के कोई बच्चा नहीं था और संतान विहीनता उन्हें सताती भी बहुत थी, इसलिए अम्मा आंटी के अंदर की संतान विहीन माँ की वेदना को बखूबी समझते हुए, इस बारे में उनकी भावनाओं का बड़ा ख्याल रखती थीं I भले ही, आंटी ने, अम्मा के अंदर असीम सुख से साँस लेती ‘पत्नी’ की पीड़ा की परवाह किए बिना, पापा से शादी कर ली थी, पर संवेदनशील अम्मा हर छोटे बड़े त्यौहार पर बहू बेटों से मिलने वाले सुख को आंटी पर न्यौछावर करना न भूलती I इसलिए करवा चतुर्थी, बड अमावस, सकट, अहोई अष्टमी आदि पर जब भी मेरा और भाभी (मेरी जेठानी) का उपवास होता तो अम्मा हम में से किसी एक का बयाना आंटी को दिलवाने के लिए कहती - ‘उसके (आंटी के) बच्चा नहीं है, मेरे पास बच्चे तो हैं, इसलिए तुममें से कोई एक अपना बयाना आंटी को दे आओ’ I अम्मा के बड़प्पन और नरम दिली पे मन ही मन कुर्बान होती मैं, अपना बयाना आंटी को ऐसी भावना से अभिभूत होकर देती - जैसे कि लंबे समय से तरसे इंसान को थाली में सजे पकवान ही नहीं, वरन ढेर सारा प्यार, सम्मान और मीठा-मीठा अपनापन परोस कर दे रहीं हूँ I उनके पैर छूती, गले लगती

और वे भी प्यार से आशीर्वाद देती I वाकई मैं देखती कि आंटी की खुशी का पारावार न रहता I एक दिन बाद ही आंटी बायने की थाली मिठाई, फल, गिफ्ट पैकेट के साथ खुद लिए खुशी-खुशी आती I दो-तीन घंटे हमारे साथ बैठती, बातें करती, चाय वगैरा पीती और खूब आशीष देकर जाती I इसके अलावा भी आंटी का जब मन होता अम्मा के पास आकर बैठ जाती और पापा की शिकायतें करती I अम्मा खामोशी से उन्हें दिल की भड़ास निकाल लेने देती और अंत में समझाती कि ’यूं नॉ, ही इज लाइक देट. डोंट फील हर्ट. मोरोवर मेल्स आर केयरलैस. यू सी, आय एम ओवर एंड एबव आल दीज़ थिंग्स, सो यू आलसो टेक इट ईजी.’ यद्यपि आंटी के लिए अम्मा की यह उदारता और सद्भावना मुझे अम्मा के प्रति विशेष आदर भाव से भर देती, पर कभी कभी खल भी जाती I मै सोचती कभी तो अम्मा, आंटी से तीखा बोल सकती हैं, खासकर ऐसे मौकों पे जब वे पापा की शिकायतों का पुलिंदा लिए अम्मा के पास आती हैं जिससे आंटी को उनके खुद के द्वारा, अम्मा के प्रति हुए अन्याय का एहसास हो, उन्हें याद आए कि उन्होंने प्यार के जुनून में किस तरह और क्यों कर अम्मा का घर उजाड दिया था ? दूसरी ओर अम्मा थी कि उनके मुंह से कभी भी मैंने पापा के खिलाफ एक भी शब्द नहीं सुना I अम्मा न जाने कैसी संत सी थी कि उन्हें आंटी से ईर्ष्या, द्वेष, वैर भाव कुछ भी महसूस नहीं होता था I वे शायद इन सब विकारों से ऊपर उठ गई थीं I उन्हें जो कुछ भी महसूस होना था, वह बस तभी हुआ था, जब हिम्मतनगर में उन्हें दिल चीर देने वाली खबर मिली थी I लेकिन उसके बाद जब उन्होंने दोबारा ससुरालवालों के आग्रह और मिन्नतें करने पे, घर में कदम रखा था तो मानों धरती की सहनशीलता, चाँद की शीतलता, समुद्र की विशालता अपने में समेट कर साथ ले आईं थीं I टूटने के बाद मैंने किसी इंसान को इतना शांत, और आर्गेनाइज्ड नहीं देखा था !! अम्मा को झील की मानिंद ठहरा हुआ देख कर, कई बार मेरा अंतर्मन हिल हिल जाता I कभी वे मंदिर जैसी शांत और दिव्य लगती I जैसे पाक साफ़, स्तब्ध, शांत मंदिर में हर तरह का इंसान आकर अपना दुखडा कहता है, अपनी समस्याएँ बयान करता है - ठीक वैसे ही अम्मा के पास आंटी, आसपास रहने वाले रिश्तेदार आते, बैठते, अपनी घरेलू कलह, मानसिक अशांति, दुःख दर्द कहते और अम्मा असीम शांत भाव से सबकी बातें सुन कर,मुस्कुरा कर कुछ समझाती, बुदबुदाती सी सबका ताप हर लेती I उस क्षण तो वे मुझे मंदिर से भी

अधिक पवित्र, शांत और निश्छल लगती I इससे भी अधिक हैरत तो मुझे तब होती जब पापा भी रोज, बिना नागा ११ बजे के लगभग घर आते, अम्मा उन्हें महाराष्ट्र की फ्रेश काफी पिलाती, खुद भी पीती I दोनों मित्रों की तरह; बच्चों, घर के बाग बगीचे, दुनिया की ताज़ा खबरों की चर्चा करते चिडे चिड़िया की तरह चहचहाते बैठे रहते I काफी पीकर, तारो-ताज़ा होकर, एक घंटा बैठ कर, ठीक १२ बजे पापा क्लीनिक में चले जाते I मतलब कि पापा का लंच से पहले का ‘काफी ब्रेक’ पुश्तैनी घर में होता I हम लोगों को भी पापा पुकार-पुकार कर हाल चाल पूछते और मैं पलभर को उनसे मिलकर, बच्चों को समेटती अपने कमरे में ले आती, जिससे सिर्फ अम्मा और पापा, कम से कम सामान्य बातें ही करते हुए, कुछ समय एक दूसरे के साथ गुज़ार सकें I एक बार निकट रिश्ते की फुआ सास ने अम्मा से पापा की खूब आलोचना करी, यह सोच कर कि अम्मा को कुछ भी बुरा नहीं लगेगा क्योंकि वे तो खुद पापा के अन्याय के कारण उनके खिलाफ होगी I शांत,मृदु भाषी अम्मा, अपनी उस ननद से कुछ न बोल कर, चहरे पे मंद मुस्कान लिए पापा की आलोचना का गरल चुपचाप पीती रही I जब वे चलने को उठ खडी हुई तो - वही कम से कम शब्दों में अर्थपूर्ण बात कहना जैसे कि अम्मा की आदत थी; बोली –
‘’जीजी, आई डिड नौट लाइक योर बिटर कमैंट्स अबाउट हिम (पापा) ,नैकस्ट टाइम ट्राय टू स्पीक एबाउट हिज गुडनैस आल्सो . ‘’
यह सुनकर फुआ सास पहले तो मुंह बाए उन्हें देखती रह गई, फिर बेसाख्ता हंसने लगीं और उनकी पीठ पे हाथ फेरती बोली – ‘’ भई मान गए बहूरानी ! तुम जैसी पति भक्त तो तीन लोकों में भी खोजे नहीं मिलेगी I’’ अपने कमरे से निकलते हुए जब फुआ सास के अम्मा की तारीफ़ में ये शब्द मैंने सुने तो मैंने भी हाँ में हाँ मिलाई कि सच में अम्मा जैसी पति भक्त नहीं मिलेगी....!
अम्मा मेरी सास कम और सहेली ज़्यादा थीं I हमारा घर चारों ओर हरियाली से घिरा था I पडदादा की बनवाई हुई अंग्रेजों के जमाने की कोठी, जो कोठी कम बंगला अधिक थी क्योंकि कमरों में सर्दी से बचने के लिए फायर प्लेस बने हुए थे, ऊंची, ऊंची छत वाले कमरों में दो-दो रौशनदान और चार-चार दरवाजे थे I उसकी समूची बनावट बंगले की तरह ‘काम्पैक्ट’
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थी I उसके सामने मखमली लान;लान के इर्द गिर्द फूलों की क्यारियां, आलू बुखारे, नाशपाती, आम, अनार, शरीफे के पेड़, एक ओर अंगूर की बेल, करौंदे की झाडियाँ उसे और खूबसूरत बनाती थी I घर के पीछे, किचन गार्डन, और कटहल के पेड़ I लान और घर के बीच एक परमानेंट बैडमिन्टन कोर्ट बना हुआ था जिसमें घर के पुरुष ही नहीं बल्कि हम सास - बहुएं भी बैडमिन्टन खेलती थीं I अम्मा अक्सर ही मेरे साथ शाम को बिना नागा बैडमिन्टन खेलती थीं I किसी दिन हवा तेज होने के कारण यदि हम बैडमिन्टन नहीं खेल पाते, तो घर के मेन गेट से अंदर तक बने रास्ते पर अम्मा और मैं एक - डेढ़ घंटा बातें करती टहलती रहती I
जब कभी भी घर में संगीत का माहौल जमता और सब बैठ कर बारी बारी से गाने गाते तो हम अम्मा के पीछे पड़ जाते कि उन्हें गाना, गाना पड़ेगा I हमारी जिद देखकर उन्हें हथियार डालने पड़ते और फिर वह अपनी मधुर आवाज़ में जब दिल को सालने वाले अक्सर ये दो गाने सुनाती..........
‘१) तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक है तुमको, मेरी बात और है मैंने तो मुहब्बत की है...,
२) दिल जलता है तो जलने दे, आंसू न बहा फ़रियाद न कर.....
तो इन्हें सुन कर मेरा दिल बेहद भारी हो जाता और मैं बामुश्किल अपने आंसू पिए अम्मा के दर्द को अंदर ही अंदर महसूस करती बैठी रहती I
अम्मा महीने में एक बार ‘पोरनपोली’ और इलायची मेवा डालकर ‘श्रीखंड’ बनाती और हम सब चाव से खाते नहीं अघाते I इसके अलावा अम्मा लहसुन, तिल,सीन्गदाने और नारियल की सूखी चटनी बना कर भी रखती जो महीने भर चलती I गर्मियों में आंधी चलने पे, बगीचे में कच्चे आमों का ढेर लग जाता I अम्मा मराठी मसाले वाला आम का अचार डालती I वे उपमा और पोहे बहुत अच्छे, खिलेखिले बनाती थी I पानी, नमक, राई, मूंगफली के तेल का इतना परफैक्ट कांबीनेशन होता था कि हम कितना भी खाए, हमारा मन ही नहीं भरता था I बेसन की नमकीन कतली और लडडू तो इतने स्वादिष्ट बनाती थी कि घर

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वालों के साथ साथ आने जाने वाले मेहमानो को भी वे तब तक खिलाए जाते, जब तक खत्म न हो जाते I
मेरे बेटे बेटी को तो वे इतना प्यार करती, इतना लाड लड़ाती कि वे दोंनो उन्हें छोडते ही नहीं थे I हर पल अम्मा के सिर पे सवार रहते I मैं दोंनो को कभी डांटती भी कि अम्मा को आराम करने दो तो वे डांटने भी न देती I उनके इशारों पे नाचती रहती I मुझे अक्सर समझाती कि ‘’अभी दोनों बहुत छोटे हैं, इन पर अधिक पाबंदियां मत लगाओ, बड़े होते होते देखना दोंनो कैसे डिस्प्लिन्ड हो जाएगे, अभी तो इनके राज करने के दिन हैं !’’ मैं चुप हो जाती I वे दोंनो मक्कार मुस्कुराते गर्व से सिर अकडा कर मुझे ऐसे देखते; जैसे कह रहे हों और डाटो हमें, देखा अम्मा हमारी साइड हैं....!! दोनों बच्चों का हर काम – पढाई लिखाई से लेकर खेल कूद तक; सब अम्मा के पलंग से लेकर कमरे में चारों ओर फैला होता I वे बेचारी पंलग से खिसकती खिसकती अपनी आराम कुर्सी में सिमट जाती और शौक से दोनों की क्रिएटिविटी, तरह तरह के खेल देखती बैठी रहती I कभी कभी जब दोनों दुष्ट अम्मा के साथ ताश खेलते, तो शर्त रखते कि अम्मा को उनसे हारना पडेगा, तभी वे ताश खेलेगें I अम्मा उन्हें खुश करने के लिए खूब हारती रहती और खुश होती रहती I सोती हुई अम्मा को मेरे शरारती बेटे न जाने कितनी बार ‘स्पाइडर मैन‘ बन कर सिर से पाँव तक रील के धागे से जाल बना कर कैद किया I सोते इंसान पे वह नटखट ऎसी सफाई से और होशियारी से बारीक जाल तान देता था कि देख कर हैरत होती थी I नींद से एकाएक उठी अम्मा बाथरूम जाना चाहती तो उस जाल में असहाय सी पडी मुझे आवाज़ लगाती कि देखो इस पाजी ने फिर जाल बना दिया, मुझे जल्दी से निकालो I तब मैं आवाज़ सुनकर दौडी जाती और कैचीं से चारों तरफ से उस जाल को काटती जाती और बेटे को सज़ा देने की सोचती जाती I जब तक उसे सज़ा देने की बात आती, वह अम्मा के गले में बाँहें डाल कर, गोदी में ऐसा दुबकता कि अम्मा उस पे प्यार बरसाते न थकती I मैं खीज कर कहती – ‘इन दादी पोते का कोई इलाज नहीं, इनके जो बीच में पड़े,वो ही मूर्ख बने’....और उनके फिर किस्से - कहानी, शैतानियाँ होने लगती I ऐसे ही मेरी बेटी को वे रोज शाम को घुमाने ले जाती थी I तब तक बेटा नहीं हुआ था I उस समय वह ५ साल की रही होगी I उसने न जाने कब अम्मा से खेल खेल में छोटी सलाई लेकर
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थोड़े बहुत फंदे इधर से उधर करना सीख लिया था और बड़ों की तरह बुनाई की नक़ल करती थी I उसे बुनाई का इतना शौक चर्राया कि, जब अम्मा शाम को उसे घुमाने ले जाती तो, वह बुनती हुई आगे आगे चलती और अम्मा को ऊन का नन्हा सा गोला पकड़ा कर पीछे पीछे चलाती I अम्मा भी उसका कहना मान कर वैसे ही करती I मुझे दादी पोती के घूमने का यह अनोखा अंदाज़ पता न था I वो तो मैं एक दिन शाम को कालिज से इन्विजीलेशन करके लौट रही थी तो सड़क पर बाई ओर पैदल रास्ते पर दोनों को इस तरह आगे पीछे चलते, और बेटी को बुनाई करते चलते देखा तो बड़ी हँसी आई और चिंता अधिक हुई कि नीचे देख कर न चलने से अगर वह ठोकर खाकर गिर जाए तो अम्मा कैसे अकेले उसे सम्हालेगी, और वैसे भी वह अम्मा का घूमना कम पोती की हुक्म फरमानी अधिक हो रही थी I फिर मैंने किसी तरह समझा का उन दोनों का इस तरह भीड़ भरी सडक पे घूमने जाना बंद किया I मतलब यह कि अम्मा बच्चों का कहा कुछ भी सिर झुका कर ऐसे मानती थी जैसे वे बादशाह हैं और उनका कहा न मानने से क़यामत आ जाएगी I

अम्मा को उदात्त संस्कार और मूल्य अपने आई - बाबा से विरासत में मिले थे, जिनका प्रमाण अम्मा और उनकी बहनों के उस उदार निर्णय व प्रेम भाव में भी मुझे मिला, जो उन्होंने अपने भाई के लिए जमीन जायदाद के संबंध में लिया था I चूंकि सब बहने पढ़ी लिखी और समर्थ थी, उस पर सौभाग्य से, शिक्षित व संपन्न घरानों में ब्याही गई थी, इसलिए किसी ने भी ज़मीन जायदाद को लेकर कभी भी किसी तरह की मांग या छीन झपट जैसी नीयत नहीं रखी, जबकि मामा चाहते थे कि सब बहनों को बराबर हिस्सा मिले I लेकिन बहनों ने बहुत प्यार और सम्मान के साथ ज़बरदस्ती अपने भाई को सारी जायदाद का मालिक बनाया और अपना हक छोड़ दिया I जबकि कुछ घरों में भाई - बहन, भरपूर सम्पन्नता होने पर भी पाई-पाई के लिए मुकदमे करते देखे गए हैं या कोई एक कब्ज़ा जमा लेता है तो, ताउम्र उस भाई को कोसते नहीं अघाते I लेकिन अम्मा इस तरह की तेर-मेर से दूर एकदम निश्छल और शांत थीं I उनमें सहज ही शालीनता और सभ्यता कूट - कूट कर भरी थी I वही शालीनता और सभ्यता, संस्कार व मूल्य ससुराल में भी उनके हर छोटे बड़े कामों में बने रहे I पापा से उपेक्षित होकर भी पापा के लिए करवा चतुर्थी, सकट, बड अमावस का
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उपवास तहे दिल से रखना उनके संस्कारों का खूबसूरत सबूत था I अपने पूजा स्थान में वे दो तस्वीरें रखती थी, शिरडी साईँ बाबा की और आर्मी ड्रेस पहने हुए पापा की I कमाल थी मेरी अम्मा .....!!
एक बार पापा की पोस्टिंग रांची हुई I वहाँ उनको जो घर मिला था, उसके चारों ओर जंगलनुमा हरियाली फैली हुई थी I अम्मा बताती थीं कि बंगले के बरामदे में पानी का एक कच्चा मटका रखा रहता था I एक बार गर्मियों के दिनों में सांप का एक जोड़ा उसके नीचे ठंडक पाने के लिए आ दुबका I पापा की उस सांप के जोड़े पे नज़र पड़ गई I उन्होंने तुरंत एक मज़बूत डंडा लेकर उस जोड़े को आनन फानन में मार डाला I उस घटना से भावुक और धर्म भीरू अम्मा के मन में भय बैठ गया कि पापा ने सांप का जोड़ा बेदर्दी से मार डाला, घर में आने वाले समय में न जाने क्या अनर्थ होगा I पापा एक तो डाक्टर, ऊपर से फ़ौज में, वह सांप को देवता मानने जैसी धारणा के पक्षपाती नहीं थे I लेकिन अम्मा का तो ऎसी लोक अनुभवों पर आधारित धारणाओं पे अटूट विश्वास था I कुछ वर्ष बाद अम्मा के दिल में बैठा भय ‘सच’ साबित हुआ I कभी ‘अगस्त’ के महीने में ही पापा ने सांप का जोड़ा मारा था और उस घटना के कुछ साल बाद ‘अगस्त’ महीने में ही अम्मा - पापा का अलगाव, आंटी से शादी हो जाने के कारण हुआ I इसे कुदरत की सज़ा कहें या सांप के जोड़े का अभिशाप, लेकिन ठीक उसी महीने में अम्मा पापा के वैवाहिक जीवन में दरार पडी, जो अम्मा के लिए बहुत अधिक अजीयत का कारण बनी I अम्मा से तो जैसे खुशियो ने मुंह मोड ही लिया था, पर पापा भी दूसरी शादी करके कभी खुश न रह सके और न आंटी I
इस सांप की घटना के सन्दर्भ में एक और हैरत में डालने वाली बात अम्मा ने मुझे बताई थीं I अम्मा ने बताया कि १९६० की बात है जब एक दिन वह बरामदे में बैठी हुई थी, तभी एक फक्कड साधु भिक्षा मांगता, भजन गाता दरवाजे पर आ खडा हुआ I अम्मा ने उसे आटा, चावल और कुछ फल दिए, जैसे ही वह जाने के लिए मुडा, अम्मा के मन में एकाएक एक सवाल उठा, वे अपने को रोक न सकी और उस ‘साधु बाबा’ से दिल में बड़ी उम्मीद लिए बोली –
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‘’बाबा ! यह तो बताइए कि मेरी किस्मत में क्या लिखा है....? ‘’
बाबा पलट कर, निश्छल मुस्कान के साथ पहले ऊपर आकाश को और फिर अम्मा के ललाट को भेदती नजरो से देख कर, आँखें मूँदता हुआ बोला –
‘’बेटी ! अब से कुछ साल पहले इस घर के किसी आदमी ने, कहीं एक सांप का जोड़ा मार दिया था; तब से इस घर पर ‘प्रेमी जोड़ो’ के अलग होने का अभिशाप है I तेरी इस पीढ़ी के बाद, आने वाली दो और पीढ़ियों तक, जिस लडके का भी प्रेम विवाह होगा, वह एक तो, लड़की के घरवालों की मर्जी के खिलाफ होगा और कुछ साल बाद उनमें तलाक अवश्य होगा I इसलिए बेटी तेरी किस्मत में दुःख उस आदमी के कारण है जिसने सांप का जोड़ा मारा था I जो गलती हुई सो हुई, इस जनम में तुझे यह दुःख तो देखना ही होगा I भगवान में मन लगा, शान्ति मिलेगी I’’
साधु के मुंह से बरसों पहले सांप के जोड़े को मारने की घटना यों अचानक सुन कर हैरान हुई अम्मा का मन अपने बच्चों को लेकर अशांत हो गया I धीरे धीरे समय के साथ, साधु के शब्द अम्मा के चेतन मन में तो धुंधले होते गए, पर अवचेतन में शायद कुंडली मार कर बैठ गए थे, तभी तो बीस साल बाद मुझसे उन्होंने उस साधु की भविष्य वाणी का ज़िक्र किया I मैंने भी ध्यान से अम्मा की एक - एक बात सुनी और फिर मैं भी उसे भुला बैठी I लेकिन साधु की भविष्य वाणी अम्मा को एकाएक तब सच होती लगी, जब उस घर का दूसरा प्रेम विवाह में बंधा जोड़ा, यानी उनका छोटा बेटा और बहू (मैं), दुर्भाग्य से अलग होने की कगार पर जा पहुंचे I हमारा भी प्रेम विवाह था, लेकिन मेरी माँ बिलकुल नहीं चाहती थी कि यह रिश्ता हो, एकदम खिलाफ थीं I मेरे पर जान कुर्बान करने को तैयार, यहाँ तक कि मेरे मामा और माँ द्वारा मना कर दिए जाने पर दो बार आत्महत्या की सच में ‘जानलेवा’ कोशिश करने वाले‘इनसे’ मैं इतनी आश्वस्त और अभीभूत हो गई थी कि मुझे दुनिया में इन जैसा वफादार कोई नज़र ही नहीं आता था I अपने लिए इनके लगाव और निष्ठा को देखकर, जब मैंने भी अपनी माँ को हिचकते हुए अपना निर्णय सुनाया तो वह बड़ी दुखी हुई, लेकिन बाद में सबके समझाने पर, इनके साथ मेरी शादी करने कि लिए मान गई I शादी हो गई, हमारा जीवन भी बेइंतहा खुशियों से भरपूर था और एक दिन वो आया कि ‘ओशो और पूना
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का ओशो आश्रम’ हमारे तलाक का कारण बन गया I सबके लाख कोशिशे करने के बावजूद भी, तलाक हो कर रहा I जब मैंने अम्मा से आंसू बहाते हुए कहा कि जिस ‘वफादारी’ के कारण, माँ के खिलाफ होने के बावजूद भी मैं इनसे शादी करने को तैयार हो गई थी, जब वो ‘वफादारी’ ही खत्म हो गई तो मेरा इस घर में रहने क्या अर्थ ? न इन्हें बच्चों का ख्याल, ना मेरा ख्याल रहा था, बस ‘आचार्य रजनीश’ और उनका आश्रम ही सब कुछ था I ओशो के चेले - चेलियां और ओशो आश्रम ही इनका घर परिवार बन चुका था I लंबे - लंबे समय के लिए घर से गायब और मै ही नहीं, घर के और सब लोग भी परेशान व आशंकित रहने लगे थे I हममे ही नही बल्कि अपनी नौकरी में भी इनकी रूचि खत्म हो चुकी थी I सब कुछ भुला कर ऐसे ‘ओशोमय’ हुए कि ओशो के हाथों दीक्षित भी हो गए I मेरा तो नामोंनिशा ही मिट चुका था इनकी ज़िंदगी से I
इतिहास ने एक बार अपने को फिर दोहराया हमारे अलगाव के रूप में I मेरी ऐसी घनघोर पीड़ा और तकलीफ के समय में, अम्मा ने मुझे भरपूर सहारा दिया I अलगाव के कष्ट से गुजरी अम्मा ने बेटे से प्यार होते हुए भी, मेरी पीठ पे जिस प्यार और अपनत्व से हाथ रखकर,अनेक बार गले लगा कर जो भावनात्मक सहारा दिया उसे मैं कभी नहीं भुला सकती I सांप के जोड़े का अभिशाप या किस्मत का खेल - अनहोनी होनी बनी और अंतत: हमारा तलाक होकर रहा और तलाक होते ही इन्होने एक ओशो जर्मन चेली से शादी कर ली I
घर के बुज़ुर्ग, बड़े दमदार लोग चाहते हुए भी कुछ न कर सके, जैसे अम्मा पापा के अलगाव के समय कोई कुछ नहीं कर पाया था ठीक वैसे ही इस बार भी कोई कुछ नहीं कर पाया I सबको बड़ा दुःख और अफसोस हुआ I पर मैं तलाक के बाद भी घर भर की चहेती बहू बनी रही और खासतौर से अम्मा की ‘सहेली बहू’ I अलग होने के बाद भी अम्मा मुझे घर बुलाती, खूब प्यार बरसाती, खिलाती पिलाती, पहले की तरह हम बातें करते लकिन जब मैं चलने के लिए उठ खडी होती तो अम्मा का और मेरा - हम दोनों का दिल भर आता I लेकिन हम दोनों बहादुरी से उस पल को झेलते, वह मुझे बिदा करती और फिर बुलाती I मेरे से और बच्चों से उनके लगाव की यह इन्तहा थी कि मेरे घर से अलग हो जाने के बाद भी, अम्मा ने हमारी रिक्तता को भरने के लिए चार - पांच साल तक मेरे बेटे को अपने पास ही रखा I बेटी और मै लगातार उनसे व सब
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घर वालों से मिलने जाते रहे I आज तक मेरे ससुराल वाले मेरे संपर्क में हैं, खूब फोन करते हैं, मिलने आते हैं, शादी ब्याह पर मुझे बुलाते हैं, तीज त्यौहारों पर हमेशा मुझे शुभकामनाएं और समय समय पर उपहार देते हैं I मैं कभी भी अपने ससुरालवालों का और खासतौर से अपनी सास का अपनापन नहीं भूल सकती I तो ऎसी जीवट वाली और मनोबल बढाने वाली थीं मेरी अम्मा I वह मेरे लिए ‘अम्मा’ बन के ही धरती पर आई थी, सास तो नाम भर के लिए ही थीं I भले ही अम्मा वैवाहिक जीवन में, केन्द्र से हट कर हाशिए पर रही किन्तु ससुराल के भरे पूरे पारिवारिक जीवन में, हमेशा घर की धुरी की तरह केन्द्र में बनी रहीं I अम्मा सदा ही सबसे अधिक ‘चहेती बहू’ और बाद में ‘सम्माननीय सास’ के ओहदे पर गरिमा के साथ विराजमान रही I उनके त्याग, उनकी हिम्मत, सहनशीलता, सबके प्रति आदर भाव ने, उन्हें सबकी आँखों का तारा बनाया I अम्मा ने हमेशा आंटी को छोटी बहन की तरह माना इसलिए ही आंटी परेशान होने पर, बेखटके हमेशा अम्मा के पास आती और अपने राज़ उनसे बांटती थी I प्यार से दुश्मन को अपना बनाने की कहावत सुनी ज़रूर थी मैंने पर अम्मा में मैंने उसे सच होते देखा था I अगर मैं कहूँ कि अम्मा इंसान होते हुए भी अलौकिक गुणों से भरपूर थी, तो शायद अत्युक्ति न होगी I आज भी ग्यारह जनवरी को उनके जन्मदिन पर, उन्हें याद करके, मेरी आँखें नम हो आती हैं और मैं दिल में बेइंतहा प्यार लिए, उनके लिए कामना करती हूँ, दुआ करती हूँ कि वे अब जहां भी हो, भरपूर सुख और सुकून में हों ! नई ज़िंदगी में ईश्वर उन पर इतनी खुशियाँ बरसाए कि पिछले जन्म की भी कमी पूरी हो जाए....!!
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अकेले होने की ज़मीनी सच्चाइयाँ

सृष्टि सृजन की मूल ( प्रकृति और पुरुष के संयोग से नारी इस समूची सृष्टि की नींव रूपा मानी गई है )
घर - परिवार की धुरी , जन्मदात्री होने के कारण धरती को जीवन से स्पंदित करने वाली , अनेक प्रकार की रचनात्मकता की शिलाधार ‘औरत’ खुद कितनी निराधार और जमीन से उखड़ी हुई महसूस करती है जब उसे अकेले जीवन जीना पड़ता है .
सदियों से इस समाज के नियम कायदों से परे प्रकृति ने नारी और पुरुष को एक दूसरे के पूरक के रूप में कुछ सहज स्वभाव, गुण और प्रवृतियाँ प्रदान की और उनके आधार पर स्वतः दोनों का ‘कर्त्तव्य-विधान’ रूपाकार लेता गया . सृष्टि रचना के आरम्भ से ही नारी स्वभाव से ही अधिक संवेदनशील, भावुक , करुणामयी और सहनशील रही , तो पुरुष उसकी तुलना में अधिक व्यवहारिक, कठोर, कम संवेदनशील, और कम भावुक रहा.
नारी ‘अबला’ की अवधारणा के कारण नहीं बल्कि अपने सहज संवेदनशील , सुकुमार स्वभाव के कारण पुरुष पर अवलम्बित होने को बाध्य होती है . उसके सान्निध्य से मिलने वाला सुरक्षा , सुकून और सुख का एहसास उसके नारीत्व को पूर्णता देता है .यों पुरुष भी नारी के बिना अधूरा होता है भले ही उसका ‘अहंकार’ उसे यह मानने से रोके लेकिन उसके जीवन को पूर्णता के चरम बिंदु पर पहुँचाने वाली नारी ही है. उसके बिना वह आधा अधूरा है .
किसी पुरुष को यदि कारणवश अकेले जीवन जीना पड़ जाए तो अकेलापन तो वह भी निश्चितरूप से महसूस करता है – आखिर वह भी इंसान है, लेकिन नारी की तरह वह उस अकेलेपन से टूटता नहीं , वरन स्वयं को अनेक सही - गलत तरीकों से सुख से सराबोर करने की जोड़ तोड़ में लग जाता है . यह उसकी प्रवृति है , सहज स्वभाव है . उसकी आंतरिक पुरुष प्रवृतियाँ उसे ऐसा करने को मजबूर करती हैं .
यह सच है कि नारी में साहस , ऊर्जा और सुलझे सोच विचार की कमी नहीं होती बल्कि जीवन के अनेक कगारों पर वह पुरुषों से भी अधिक साहसी और हिम्मतवाली सिध्द होती रही है - चाहे वह दुःख - तकलीफ झेलने का साहस हो या पिता का घर छोड़ कर पति के घर को सम्हालते हुए नया जीवन शुरू करने का साहस हो, या सुबह से उठकर एक साथ कई कामों को करने का साहस हो, या बदलते समय के साथ पत्नी और माँ की जिम्मेदारियों के साथ नौकरी की जिम्मेदारी सम्हालने का साहस हो, या विपरीत परिस्थितियों में सबका मनोबल बनाए रखने का साहस हो, निर्विवादरूप से यह ‘साहस’ तत्व नारी में पुरुष की अपेक्षा कई गुना अधिक होता है . बल्कि ‘पौरुष’ का प्रतीक पुरुष अक्सर घर - परिवार से लेकर बाह्य जगत तक जरा सी परेशानी में भी खीजता, झुंझलाता, भावनात्मक असुरक्षा का शिकार हो – बच्चे की तरह चीखता चिल्लाता नज़र आता है और उसके इस उबाल का शिकार होती रही है नारी – कभी माँ के रूप में, तो कभी बहन, कभी बेटी और कभी अनंतिम - पत्नी रूप में. औरत को पत्नी के रूप में पाकर तो जैसे पुरुष को उस पर हर कुरूप और नकारात्मक ज्वार को उगलने का लाइसेंस मिल जाता है. खैर, यदि दुर्भाग्य से पुरुष नारी विहीन है तो वह शराब और सिगरेट के सहारे अपने अकेलेपन का विरेचन करता नजर आता है. उसका इस तरह बिफरना और बिखरना उसके पौरुष पर निश्चित ही प्रश्नचिन्ह लगाता है.
जीवन के हर कगार , हर परिस्थिति में अदम्य धैर्य और साहस से ऊर्जित नारी जब प्रकृति द्वारा रचित नियम और प्रवाह के प्रतिकूल पुरुष के बिना , अकेले जीने की यातना से गुजरती है तो वह एक साथ आंतरिक भावनात्मक वेदना और बाहरी दुनिया के झंझावातों से जूझने को विवश होती है. जूझती जाती है और जीती जाती है. नारी के सहज स्वभाव के विरुध्द यह जुझारू जीवन शैली पग-पग पर उसे तोड़ती है, जैसे उसे तौलती है., उसकी परीक्षा लेती है. इस तरह उसका जीवन एक अनवरत संघर्ष बनकर रह जाता है. एक ओर पुरुष का अभाव उसे सालता है तो दूसरी ओर समाज उसे घालता है.
मैंने तलाकशुदा होने के कारण अकेलेपन के सन्नाटे और संघर्षों की त्रासदी को जिस तरह झेला है उसे शब्दों में ढालना मुश्किल ही नहीं , असम्भव है . कहा जाता है कि विपरीत परिस्थितियाँ इंसान के अंदर छुपी क्षमताओं को उभार देती है. ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ. अन्दर से उपजी कतरा-कतरा हिम्मत के साथ-साथ, संभवत: आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के कारण विकट हालातों में भी मेरा मनोबल बना रहा. फिर भी अक्सर मैं असुरक्षा के भंवर में डूबती उतराती रहती . अपने मासूम बेटे और बेटी को देख कर, उनकी सुरक्षा की भावना से सक्रिय हुई . मैं सब कुछ भूल कर सामने मुंह बाई समस्या से जंग करने में जुट जाती थी और समाधान होने पर ही चैन की साँस लेती. पर मानसिक और शारीरिक शक्ति खर्च होने पर , चैन के क्षणों में इतनी असहाय, निरीह और कमजोर महसूस करने लगती कि सुकून का ,चैन का सुख भी न उठा पाती. एक खुश्क खालीपन मुझे घेरे रहता. लेकिन कुछ समय बाद फिर अपने को समेटती , अगली सुबह सहज ही उपजी शक्ति और ऊर्जा को संजोए दिन के शुरुआत करती . ऐसे में अकेलापन मुझे भयावह लगा .
संवेदनशीलता यदि एक ओर उदात्त गुण है तो दूसरी ओर यह रुलाता, झिकाता भी बहुत है. इसने मुझे जीवन में हमेशा कमज़ोर बनाया , मूर्ख बनाया और धोखों से रूबरू करवाया. फिर धीरे-धीरे व्यवहारिक बुद्धि ने पाठ पढ़ाया और बीतते समय के साथ संवेदनशीलता व व्यवहारिक बुद्धि के संतुलित पहियों पर जीवन का एक सुघड़ ढर्रा बना . घर में बच्चों के खाने-पीने , उनके भावनात्मक और शारीरिक स्वास्थ्य लेकर उनका एडमीशन कराने , उन्हें होमवर्क कराने तक के सारे छोटे बड़े काम मैं बड़ी जिम्मेदारी और कुशलता से ज़रूर करती पर दिन के अंत में एक असुरक्षा और खालीपन फिर मुझ पर हावी हो जाता. बेचारगी का भाव आँखों और चहरे पर तिर आता. पर बच्चों पर अपने ये भाव ज़ाहिर न होने देने का भरसक प्रयत्न करती. उनकी माँ होने के साथ – साथ मैं उनका पिता भी बनती. पिता की भूमिका में उनके लिए अच्छे स्कूल का चयन, दाखिले की भागदौड़, उनकी रूचि के अनुसार विषयों के चयन में मदद, फ़िर कॉपी किताब, स्कूल ड्रेस खरीदना, पढाई के अलावा अन्य रचनात्मक गतिविधियों के लिए उन्हें प्रोत्साहित कर, उनका मनोबल बढ़ाना – ये सब करते मैं जरा न थकती. फिर माँ के खोल में घुसते ही मैं दोनों के लिए उनकी मनपसंद चीज़े पकाने के साथ-साथ, उन्हें चुमकारती-पुचकारती अच्छे बुरे की पहचान करने की और साहसी व निर्भय बनाने की सीख देती जाती. सोने से पहले मुझसे कहानी सुनना दोनों का अटल नियम था . जैसे – जैसे वे बड़े होते गए, उनकी हर उलझन में उनके साथ चट्टान की तरह खड़ी हो जाती. जीवट से दोहरी भूमिकाएं निबाहती वही मैं अपनी समस्याओं में उलझ कर टूटने लगती, तितर- बितर होने लगती. विश्वविद्यालय की विभागीय राजनीति से अपना दामन बचाने की चाणक्य कूटनीति मुझे कभी समझ न आ सकी. क्लास में जाकर, विषय में डूबकर छात्रों को पढाने तक मेरी दुनिया सिमटी होती या फिर रचनात्मक गतिविधियों में उनके साथ लगी रहती. अगर कभी कोई साथी कहता कि विभाग में फलां के खिलाफ मुझे उसका साथ देना है तो मेरा दिल बैठने लगता, तरह - तरह की शंकाएं मुंह बाये मुझे डरातीं कि सच्चाई क्या है, कौन मक्कारी का मुखौटा लगाए है, कौन सच में निर्दोष है – इन सब पचड़ो में न पड़कर मैं अकेली होने के कारण अपनी शक्ति और ऊर्जा बच्चों के लिए संजों कर रखना चाहती थी. प्राचार्य, अध्यक्ष व साथियों के राजनितिक चक्रव्यूह में न पड़कर, ईमानदारी से अपना काम करते हुए, अपने उसूलों पर कायम रहना चाहती. व्यर्थ की जोड़-तोड़, छीछालेदर के सड़ान्ध भरे तालाब में रहकर , अपनी साँसें कायम रखना , नौकरी बनाए रखना, एक अजीबोगरीब रस्साकशी होती थी मेरे लिए. मेरी इस जंग का सिलसिला तो विश्वविद्यालय से लेकर मंत्रालय तक की नौकरी में बराबर चलता रहा.
मैंने अकेले होने का सबसे अधिक खामियाजा झेला व्यक्तिगत और पारिवारिक स्तर पर. बाज़ार जाकर , जांच-परख करके महीने भर का सामान लाने में मेरी रूह कांपती थी. बिजली का फ्यूज उड़ने पर उसे ठीक करना या पडौसी की मदद लेना, मीटर खराब हो जाए, बिजली का बड़ा सा गलत बिल आ जाए, या भारी सामान उठाने-रखने के लिए दूसरों का मुंह तकना पड़े, कार से पेट्रोल लीक होने लगे, कार की डाउन बैटरी को रेज़ देनी हो , सील्ड डिब्बे या बोतल का ढक्कन ज़्यादा कसा हो तो , मैं निरीह सी हो जाती. शाम से रात १०-११ बजे तक का कोई जाने लायक समारोह हो तो, तब तो अकेला होना बेहद अखरता. देर शाम तक आयोजित होने वाले अच्छे-अच्छे कार्यक्रमों को देखने से मैं हमेशा वंचित रही. ऐसे सुन्दर कार्यक्रमों की अगले दिन अखबार में रिपोर्ट पढ़कर ही खुश हो लेती थी. ऐसे में अकेलापन मुझे पीड़ादायक लगा.
जीवन के संघर्षों में अनेक बार जबरदस्ती अपने पर हावी हुए पुरुष मददगारों से मैं बड़ी परेशान रही. चहरे पर छपी उनकी मांसल अपेक्षाएं मुझे सिर से पाँव तक हिला जाती. उनकी मदद मेरे लिए जी का जंजाल बन जाती थी. वैसे तो मैं प्रत्यक्ष सामजिक कारणों व पर पुरुष की अतिशय ख्याल दिखाने की ‘उदारता’ की वजह से मदद ही नहीं लेती थी और कभी मजबूरीवश एक – दो बार मदद ले ली तो ‘उदारमन मददगार’ काम खत्म हो जाने पर भी मदद देने को तैनात रहता. अपने को ज़बरदस्ती मेरा गार्जियन समझने लगता. पहले तो मैं सब्र के घूंट पीती उससे नम्रता से पेश आती रहती लेकिन जब वह ख्याल करने से बाज़ नहीं आता तो मुझे पिंड छुडाने के लिए, मजबूरन उसे सख्ती से रास्ता दिखाना पड़ता. जब मैं भारत सरकार द्वारा दिल्ली के मानव संसाधन विकास मंत्रालय में शिक्षा सलाहकार के पद पर नियुक्त हुई तो विश्वविद्यालय से एकदम अलग ब्यूरोक्रेटिक माहौल से समीकरण बैठाने में मुझे इतना लम्बा समय लगा की तब तक मेरा वहाँ से जाने का समय आ गया. वहाँ का फ़ाइल वर्क, षड्यंत्रों भरा विशुध्द राजनीतिक वातावरण, लोगों का एक इंच मुस्कान लिए मिलना और एक दूसरे की जड़ कटाने की साजिशों में लगे रहना . इस शह और मात के खेल में, मैं मन ही मन घुटती रहती. एक बार तो एक अधिकारी ने मुझ पर बैंगलोर की औफिशियल विजिट पे अपने साथ चलने का इतना दबाव डाला कि मुझे नौकरी जाने का भय लगने लगा. पर उससे अधिक भय मुझे औफिशियल विजिट पे जाने से लग रहा था. बहुत सोच विचार के बाद मैं निदेशक के पास गयी और उनसे खोजबीन कर मालूम किया कि दिल्ली से बाहर की औफिशियल विजिट कितनी ज़रूरी होती हैं. वे बुज़ुर्ग ऑफिसर बड़े अच्छे और सच्चे थे. वे बोले कि – ‘ज़रूरी होती हैं क्योंकि विजिट से एक्सपोज़र मिलता है और तथ्यों की प्रमाणिकता का पता चलता है. लेकिन कोई नहीं जा पाए तो आपका मातहत जाकर, जांच -पडताल कर सकता है और विस्तृत रिपोर्ट लाकर आपको दे सकता है. यह सुनकर मै ऐसी आश्वस्त हुई कि मैंने तुरंत दूसरे अधिकारी को जाकर हिम्मत के साथ बड़ी विनम्रता से मना कर दिया. वे जनाब मुंह बनाते मेरी ‘मनाही’ पर खामोश रहे. शायद उन्हें मेरी मनाही के पीछे झलकते आत्मविश्वास में, मेरी संपूर्ण व सही जानकारी साफ़ नज़र आ रही थी. इस घटना के बाद मैंने उस नाराज़ अधिकारी द्वारा अपनी सी.आर. ( कांफिडेन्शियल रिपोर्ट ) बिगड़वाने की पूरी तैयारी कर ली थी. पर मैंने अपने को आश्वस्त किया कि सी.आर. ही बिगड़ेगी, जीवन तो नहीं बिगड़ेगा . उस दिन मैंने निर्णय कर लिया था कि भविष्य में यदि कभी ऐसा कोई अप्रत्याशित पहाड़ मुझ पर कभी टूटने को हुआ तो , मैं उस पहाड़ को तर्जनी दिखा कर, अपनी विश्वविद्यालय की नौकरी पर डेप्युटेशन की अवधी से पहले ही वापिस चली जाऊंगी, पर गलत लोगों, गलत जीवन शैली से कभी समझौता नहीं करूंगी . ऐसे में अकेलापन मुझे कसैलेपन से भर-भर गया और विकृतियों को न्योतने वाला लगा.
एक बार बेटे के स्कूल में अभिभावकों के लिए विशेष रूप से आयोजित ‘त्वरित काव्य रचना’ और ‘चित्रकला’ प्रतियोगिता में भाग लेने से मैं इसलिए वंचित रही, क्योंकि मैं जीवनसाथी रहित थी – अकेली थी. जबकि इन दोनों ही विषयों में, मैं सिध्दहस्त थी. उस दिन मैं मन मसोस कर दूसरे मातापिता को काव्य रचना और चित्रकला के लिए लड़खड़ाते , जंग करते देखती रही और अपने अकेलेपन का शोक मनाती रही. न जाने क्यों इतनी छोटी सी बात के लिए मेरे अन्दर ही अन्दर रुलाई फूटती रही. उस दिन अकेलापन मुझे शूल जैसा चुभन भरा लगा.
इसी तरह , एक बार मैं तेज बुखार से तप रही थी. सर दर्द से फटा जा रहा था. दोनों बच्चे छोटे नहीं तो इतने बडे भी नहीं थे कि मेरी बीमारी में क्षीण मनोबल हुए बिना, मेरी सेवा टहल कर सकते. बीमारी के उन ‘असहाय पलों’ में अपने दोनों बच्चों के लिए मेरी ममता और भी उमड़ पडी थी. लेकिन आशा के विपरीत उस ज़रूरत के समय में दोनों बच्चों ने जिस ख्याल, प्यार और जिम्मेदारी से मेरी सेवा की थी, उससे मुझे लगा कि बच्चे एकाएक बड़े हो गए हैं. उस दिन अनजाने ही मेरे होनहार बच्चों को कुछ अमूल्य खूबियों से लबरेज़ कर देनेवाला अकेलापन मुझे अद्भुत शक्ति से भरपूर लगा था.
जीवन की ढेर सारी विषमताओं के बावजूद अपने वजूद को साबुत बनाए रखना, जंग जीतने से कम नहीं होता. शुरू - शुरू में अकेले होने के खौफ से भरी मैं , इसके उस सकारात्मक पक्ष को नहीं देख पाती थी जो जीवन की आँधियों में भी मुझे जीने की शक्ति देता था, संघर्षों का सामना करने का साहस जगाता था, मेरे अंदर छुपी क्षमताओं को तराशता था. ऐसे क्षणों मुझे इस अकेलेपन पे नाज़ होता था.
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‘‘औरतनामा : एक कहानी यह भी’’



मन्नू जी की लेखकीय यात्रा पर केन्द्रित, उनकी सशक्त कलम से लिखी हुई लम्बी कथा - “एक कहानी यह भी” पढ़ी। कहानी के समापन पर जो पहला भाव मन में आया, वह था - “नारी की अद्भुत शक्ति और सहनशीलता की कहानी”। मन्नू जी की जिस अद्भुत एवं अदम्य शक्ति व साहस की झलक उनकी बाल्यावस्था में दिखाई देने लगी थी, वही आगे चल कर लेखकीय जीवन में उत्कृष्ट रचनाओं के रूप में और गृहस्थ जीवन में सहनशील व साहसी पत्नी के रूप में साकार हुई। बचपन से ही उनके क्रान्तिकारी कार्य - कॉलेज की लड़कियों को अपने इशारे पे चलाना, तेजस्वी भाषण देना तो, कभी पिता से टक्कर लेना, तो कभी डायरैक्टर ऑफ़ एज्युकेशन के सामने अपना तर्क युक्त पक्ष रख कर कॉलेज में थर्ड इयर खुलवाने जैसी बहुजन-हिताय गतिविधियों में लक्षित होने लगे थे। किशोरी मन्नू जी में समाई यह हिम्मत, आत्मिक ताक़त सकारात्मक दिशा में प्रवाहित थी, मानवीयता, न्याय एवं सामाजिक सरोकारों पर पैर जमाये थी। इसके साथ-साथ सघन संवेदना भी उनमें कूट-कूट कर भरी थी, जिसके दर्शन, आज़ादी के समय होने वाले पीड़ादायक बँटवारे के समय, एक ग़रीब रंगरेज़ के अवान्तर प्रसंग में मिलती है। अनेक महत्वपूर्ण प्रसंगों का ज़िक्र करते हुए लेखिका ने जिस साफ़गोई, शालीनता और पारदर्शिता से अपने लेखकीय जीवन से जुड़े -बेटी मन्नू, लेखिका मन्नू,पत्नी मन्नू और माँ मन्नू, नारी मन्नू - के जीवन पक्षों को, सुखद व दुखद अनुभवों, यातनाओं और पीड़ाओं को समेटा है, वे निश्चित ही दिल और आत्मा को छूने वाली हैं। पाठक का, लेखक के कथ्य और अभिव्यक्ति से भावनात्मक एकाकार, लेखक की अनुभूतियों की “सच्चाई और गहराई” को प्रमाणित व स्थापित करता है।
श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन के प्रस्ताव पर राजेन्द्र जी के साथ 'सहयोगी' उपन्यास “एक इंच मुस्कान” लिख कर, अंजाने ही मन्नू जी ने पति राजेन्द्र से अपने बेहतर और उत्कृष्ट लेखन के झन्डे गाड़ दिए। 'बालिगंज शिक्षा सदन' से 'रानी बिड़ला कॉलिज' और इसके बाद सीधे दिल्ली के 'मिरांडा हाउस' में अध्यापकी, उनकी अध्ययवसायी प्रवृत्ति एवं उत्तरोत्तर प्रगतिशील होने की कहानी कहती है। मन्नू जी का व्यक्तित्व कितना बहुमुखी रहा, वे कितनी प्रतिभा सम्पन्न थी, इसका पता उन्हें स्वयं को व उनके साथ-साथ हमें भी तब चलता है, जब एक बार ओमप्रकाश जी के कहने पर, उन्होंने राजकमल से निकलने वाली पत्रिका 'नई कहानी' का बड़े संकोच के साथ सम्पादन कार्य भार सम्भाला और कुशलता से उसे बिना किसी पूर्व अनुभव के निभा ले गई। इस दौरान उन्हें लेखकों के मध्य पलने वाले द्वेष-भाव एवं ईर्ष्या का जो खेदपूर्ण व हास्यास्पद अनुभव हुआ, उससे वे काफ़ी खिन्न हुई और सावधान भी।

लेखिका की इस बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ कि वे कभी भी किसी वाद या पंथ से नहीं जुड़ी। उनके अपने शब्दों में -
“मेरा जुड़ाव यदि रहा है तो अपने देश....व चारों ओर फैली, बिखरी ज़िन्दगी से, जिसे मैंने नंगी आँखों से देखा, बिना किसी वाद का चश्मा लगाए। मेरी रचनाएँ इस बात का प्रमाण हैं।” (पृ. 63)

राजेन्द्र जी के “सारा आकाश” और मन्नू जी की कहानी “यही सच है” पर फ़िल्म बना कर, जब बासु चैटर्जी ने, मन्नू जी से शरत्चंद्र की कहानी पर फ़िल्म बनाने के लिए “स्वामी” का पुनर्लेखन करवाया, तो अपनी क्षमता पर विश्वास न करने वाली मन्नू जी ने फ़िल्म के सफल हो जाने पर फिर एक बार अपनी प्रतिभा को सिद्ध कर दिखाया। इससे बढ़े मनोबल के कारण ही वे शायद अपनी कहानी “अकेली” की और कुछ समय बाद प्रेमचन्द के “निर्मला” की स्क्रिप्ट व संवाद, टेलीफ़िल्म एवं सीरियल के लिए लिख सकीं।
सन् 19७९ में “महाभोज” उपन्यास के प्रकाशन से और बाद में १०८०-८१ में, एन.एस.डी. के कलाकारों द्वारा उसके सफल मंचन से धुँआधार ख्याति अर्जित करने वाली मन्नू जी का सरल व निश्छल मन, देश में राजनीतिक उथल-पुथल के चलते “मुनादी” जैसी कविता लिखने वाले धर्मवीर भारती जी की, इन्द्रा गाँधी व संजय गाँधी की प्रशंसा में लिखी गई कविता “सूर्य के अंश” पढ़ कर यह सोचने पर विवश हुआ कि –

“सृजन के सन्दर्भ में शब्दों के पीछे हमारे विचार, हमारे विश्वास, हमारी आस्था, हमारे मूल्य....कितना कुछ तो निहित रहता है, तब “मुनादी” जैसी कविता लिखने वाली क़लम एकाएक कैसे यह (सूर्य के अंश) लिख पाई?” (पृ. 131)

लेखिका की यह सोच उनके दृढ़ मूल्यों और आस्थाओं का परिचय देती है।
मन्नू जी की बीमारी या अन्य किसी ज़रूरत के समय, उनके मिलने वाले कैसे उनके पास दौड़े चले आते थे - यह मन्नू जी के सहज व आत्मीय स्वभाव की ओर इंगित करता है।
यद्यपि मन्नूजी की कहानी को मैं खंडों में 'तद्भव', 'कथादेश' आदि पत्रिकाओं में पढ़ती रही, किन्तु टुकड़े - टुकड़े कथ्य के सूत्र व पिछले प्रसंग दिमाग़ से निकल जाते थे, पर पुस्तक रूप में सारे प्रसंगों व सन्दर्भों को एक तारतम्य में पढ़ने से राजेन्द्र जी, मन्नू जी तथा दोनों के लेखकीय एवं वैवाहिक जीवन का जो ग्राफ़ दिलोदिमाग़ में अंकित हुआ, वह कुछ इस प्रकार है -
विविध ग्रन्थियों (अहं, अपना वर्चस्व, कथनी और करनी में अन्तर, ग़लत व बर्दाश्त न किए जा सकने वाले अपने कामों को सही सिद्ध करने का फ़लसफ़ा, विवाह संबंध को नकली, उबाऊ और प्रतिभा का हनन करने वाला मानना, घर को दमघोटू कहकर घर और घरवाली की भर्त्सना करना) एवं कुठांओं (असंवाद व अलगाव की निर्मम स्थिति बनाए रखना, पत्नी व लेखक मित्रों के अपने से बेहतर लेखन को लेकर हीन भावना से ग्रस्त रहना, कुंठित मनोवृत्ति के कारण ही असफल प्रेम, तदनन्तर असफल विवाह का सूत्रधार होना, इसी मनोवृत्ति के तहत 'यहाँ तक पहुँचने की दौड़' का केन्द्रीय भाव मन्नू जी के अधूरे उपन्यास से उठा लेना, आदि आदि) से अंकित और टंकित राजेन्द्र जी का व्यक्तित्व; - तो दूसरी ओर उभरता है मन्नू जी का शालीन व्यक्तित्व - जो जीवन्तता, रचनात्मकता, सकारात्मक क्रान्ति, ओज व शक्ति से आपूरित, बचपन से लेकर 28 वर्ष की उम्र तक बेहद उर्जा व उत्साह के साथ जीवन में सधे कदमों से आगे बढ़ती रहीं। विवाहोपरान्त अपने 'एकमात्र भावनात्मक सहारे एवं लेखन के प्रेरणा स्रोत' - 'राजेन्द्र जी' से उपेक्षित, अवमानित व अपमानित होकर, टूट - टूट कर भी, ईश्वरीय देन के रूप में मिली अदम्य उर्जा व शक्ति के बल पर, विक्षिप्त बना देने वाली पीड़ा को झेलकर स्वयं को सहेज- समेट कर लेखन और अध्यापन के क्षेत्र में अनवरत ऊँची सीढ़ियाँ चढ़ती रहीं। संवेदनशीलता - वह भी नारी की और ऊपर से लेखिका की - इतनी नाज़ुक और छुई-मुई कि अंगुली के तनिक दबाव से भी उसमें अमिट निशान पड़ जाएँ - कब तक सही सलामत रहती ? लम्बे समय और उम्र के साथ, लगातार निर्मम चोटों से आहत हो किरचों में चूर चूर हो गई, सहनशक्ति चुकने लगी, बातें अधिक चुभने लगीं आत्मीयता की भूखी आत्मा, अपने अकेलेपन में शान्ति और सुकून पाने को तरसने लगी......! अदम्य शक्ति की एक निरीह तस्वीर !
मेरे मन में रह- रह कर यह प्रश्न उठता है कि संवेदनशील राजेन्द्र जी अपनी प्रेममयी, प्रबुद्ध, भावुक, योग्य व समर्पित पत्नी के साथ “समानान्तर ज़िन्दगी” के नाम पर छल- कपट क्यों करते रहे ? या मन्नू जी के इन गुणों व प्रतिभाओं के कारण ही वे और अधिक कुंठित महसूस करके, उनके साथ “सैडिस्ट” जैसा व्यवहार करते थे ! मन्नू जी की बीमारी में उन्हें अकेला छोड़ कर चले जाना, विवाह के बाद भी प्रेमिका मिता से संबंध बनाये रखना। न तो वे साथ रह कर भी साथ रहते थे और न ही संबंध विच्छेद करते थे। 35 वर्षों तक जो मन्नू जी को उन्होंने अधर में लटका कर रखा - क्या उनका यह बर्ताव अफ़सोस करने योग्य नहीं है ? क्या अपराध था मन्नू जी का - यही कि वे उनकी एकनिष्ठ पत्नी थी, उनसे आहत हो हो कर भी, उन्हें प्यार करती रही, जो चोटें, घाव बेरहमी से उन्हें मिले, उफ़ किए बिना उन्हें सिर आँखों लगाती रहीं- इस उम्मीद में कि आज नहीं तो कल, 'मुड़ मुड़ कर देखने वाले' राजेन्द्र एक बार मुड़ कर समग्रता में, अपनी मन्नू को एकनिष्ठ आत्मीयता से देखेगें और निराधार कुंठाओं और ग्रन्थियों को काटकर हमेशा के लिए उसके पास लौट आएगें ! लेकिन यह उम्मीद कुछ समय तक तो उम्मीद ही बनी रही और बाद में 'प्रतीक्षा' बन कर रह गई। इसे यदि एक निर्विवाद सत्य कहूँ, तो शायद अत्युक्ति न होगी कि संवेदनशील, विचारशील लेखक राजेन्द्र जी के व्यक्तित्व का कुंठित पक्ष ही अधिक मुखर और सक्रिय रहा, जिसके कारण उनका व्यक्तिगत, लेखकीय और वैवाहिक जीवन कभी स्वस्थ न रह सका, खुशी, उल्लास और सहजता के वातावरण में श्वास न ले सका। उनके उस स्वभाव के असह्य बोझ को सहा जीवन संगिनी - मन्नू ने। अपनी उन मानसिक और भावनात्मक यातनाओं का ब्यौरा देते हुए, विचारशील मन्नू जी ने पुरुष लेखकों की प्रतिक्रिया का भी उल्लेख इस प्रकार किया है -
“लेखक लोग धिक्कारेगें, फटकारेगें कि इतना दुखी और त्रस्त महसूस करने जैसा आखिर राजेन्द्र ने किया ही क्या है.....क्योंकि हर लेखक / पुरुष के जीवन में भरे पड़े होगें ऐसे प्रेम प्रसंग, आखिर उनकी बीवियाँ भी तो रहती हैं।”

(पृ. 194)


इस सन्दर्भ में इस तथ्य की ओर मैं सुधी पाठकों का ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगी कि अन्य लेखकों की पत्नियों से, मन्नू जी की स्थिति नितान्त अलग थी। क्यों ? क्योंकि मन्नू जी के साथ विवाह, राजेन्द्र जी पर थोपा हुआ नहीं था, अपितु यह मित्रता से प्रगाढ़ रूप लेता हुआ, पति-पत्नी संबंध में रुपान्तरित हुआ था। राजेन्द्र जी, मन्नू जी को स्वेच्छा से, प्यार से, सुशीला जी के सामने उनका हाथ पकड़ कर, इस क्रान्तिकारी संवाद के साथ

“ सुशीला जी, आप तो जानती ही हैं कि रस्म-रिवाज़ में न तो मेरा कोई खास विश्वास है, न दिलचस्पी, बट वी आर मैरिड !” (पृ. ४५) कह कर, अपने जीवन में सम्मानपूर्वक लाए थे। निश्चित ही , मन्नू जी थोपी गई पत्नियों की अपेक्षा श्रेष्ठ व सम्मानित स्थिति में होने के कारण, राजेन्द्र जी से मिलने वाली उपेक्षा से बुरी तरह छटपटाईं, हताशा और निराशा के बोझिल सन्नाटे में संज्ञाशून्य, वाणी विहीन तक होने की स्थिति में चली गई। प्रेम विवाह में पड़ी दरार अधिक त्रासदायक होती है - दिल को बहुत सालती है....।
मन्नू जी चाहती तो ३५ साल तक तिल -तिल ख़ाक होने के बजाय, एक ही झटके में अलग भी हो सकती थी, लेकिन राजेन्द्र जी के प्रति अपने प्रगाढ़ लगाव के कारण, जिसके तार पति के लेखकीय व्यक्तित्व से इस मज़बूती से जुड़े थे कि हज़ार निर्मम प्रहारों के बावज़ूद भी टूट नहीं पा रहे थे। पुस्तक के प्रारम्भ में मन्नू जी ने 'स्पष्टीकरण' में लिखा है –
“राजेन्द्र से विवाह करते ही जैसे लेखन का राजमार्ग खुल जाएगा।” x x x जब तक मेरे व्यक्तित्व का लेखक पक्ष सजीव, सक्रिय रहा, चाहकर भी मैं, राजेन्द्र से अलग नहीं हो पाई। राजेन्द्र की हरकतें मुझे तोड़ती थीं, तो मेरा लेखन, उससे मिलने वाला यश मुझे जोड़ देता था। “ ( पृ. २१५)

मुझे आश्चर्य होता है कि 1960 से भावनात्मक तूफ़ानों को झेलती हुई, पल-पल डूबती साँसों को जीवट से खींच कर, उनमें पुन: प्राण फूँकती हुई, मन्नू जी आज भी किस साहस से अपने अस्तित्व को बनाए हुए हैं ! मन्नू जी की इस 'गीता' में उनके जीवन के अन्य अतिमहत्वपूर्ण प्रसंगों में - राजेन्द्र जी से जुड़े प्रसंग जिस प्रखरता और प्रचंडता से उभर कर आए हैं, उनसे अन्य प्रसंग हर बार कहीं पीछे चले जाते हैं, न जाने कौन सी परतों में जाकर छुप जाते हैं और पति-पत्नी प्रसंग पाठक के दिलोदिमाग़ पर हावी हो जाते है।
मन्नू जी की यह कहानी, उनकी लेखकीय यात्रा के कोई छोटे मोटे उतार चढ़ावों की ही कहानी नहीं है, अपितु जीवन के उन बेरहम झंझावातों और भूकम्पों की कहानी भी है, जिनका एक झोंका, एक झटका ही व्यक्ति को तहस नहस कर देने के लिए काफ़ी होता है। मन्नू जी उन्हें भी झेल गईं। कुछ तड़की, कुछ भड़की -फिर सहज और शान्त बन गईं। उन बेरहम झंझावातों के कारण ही मन्नू जी की कलम एक लम्बे समय तक कुन्द रही। रचनात्मकता के सहारे जीवन का खालीपन भरती रहीं थी, और सन्नाटे को पीने की त्रासदी से गुज़री। किन्तु आज उन्हीं संघर्षों के बल पर वे उस तटस्थ स्थिति में पहुँच गई हैं, जहाँ उन्हें न दुख सताता है, न सुख ! एक शाश्वत सात्विक भाव में बनीं रहती हैं, और शायद इसी कारण वे फिर से लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हो गई हैं।
मन्नू जी के भीतर छुपी अदम्य नारी शक्ति, उस शाश्वत सात्विक भाव को शत् शत् नमन करते हुए, मैं कामना करती हूँ कि जब उन्होंने फिर से कलम उठा ही ली है, तो भविष्य में अब वे हम पाठकों को इसी तरह अपनी हृदयग्राही रचनाओं से कृतार्थ करती रहें।
ज़मीनी सच्चाइयों से रूबरू कराती ‘फेसबुक’: ‘‘आम औरत - जिंदा सवाल’’
( समीक्षापरक आलेख)

जीवन के हर मोड़ पर अपनी पहचान को तलाशती, नारी होने का जैसे दंड भोगती सी हर आम और खास औरत के लिए, ज़िंदगी इस सृष्टि की शुरुआत से एक ऐसा सवाल बन के उभरती रही है, जिसका कोई हल आज तक उसे नहीं मिल पाया I रामायण, महाभारत युग से नारी जीवन से जुड़े प्रश्न ‘चिरजीवी’ बने हुए आज २१वीं सदी में भी ज्यों के त्यों मुंह बाए खड़े हैं I नारी जीवन से जुड़े गंभीर सवालों को खंगालकर, फिर उसमें से एक -एक सवाल को खोल कर सामने रखती - ‘सुधा अरोड़ा’ की पुस्तक ‘आम औरत और ज़िंदा सवाल’ नारी विमर्श की प्रामाणिक दास्तान कहती है I पुस्तक में क्रमश: पांच अनुच्छेद हैं - आत्मकथ्य, वामा स्तंभ, आलेख, मीडिया में औरत, और धर्म और औरत I
आत्मकथ्य से लेकर अंतिम अनुच्छेद तक पुस्तक को भलीभांति सोचविचार के बाद, यथाक्रम बांधा गया है I ’आत्मकथ्य’ में बेहद सुरुचिपूर्ण ढंग से हृदयग्राही शैली में लेखिका ने अपने लेखकीय जीवन के बीजारोपण से लेकर उसके सहज पल्लवन तक की विकास यात्रा के पन्ने पाठक के सामने बड़े सहेज कर पलटे हैं I
सुधा जी ने किशोरावस्था में ही , जब वे मुश्किल से १७ – १८ साल की रही होंगी , लिखना शुरू कर दिया था और उनकी पहली कहानी ‘एक सेंटीमेंटल डायरी की मौत’ १९६६ में ‘सारिका‘ में प्रकाशित हुई थी I बकौल लेखिका -’मुझे उसने ( प्रकाशित कहानी ने ) बाकायदा धमकी दे डाली थी – खबरदार, जो अब डायरी के पन्नों पे रोना धोना किया I ’
(पृ. 13)
फिर तो जैसे उनके अंदर से कहानियों का सैलाब उमड़ पड़ा I सन 1964 से लेक 1966 तक उन्होंने बीस इक्कीस कहानियां लिख डालीं I
‘’ कहानियाँ लिखना उस मरगिल्ली सी काया में प्राण फूंक रहा था.उसे जीने का और अपनी बीमारी से लड़ने का एक कारण मिल गया I ‘’ (पृ. 14)
उस कोरी भावुकता भरी कच्ची उम्र में अकारण ही उमड़ उमड़ पड़ने वाला प्यार का, रुलाई का अतिरेक - यहाँ तक कि कभी - कभी ‘आत्मघात’ के शिकंजे में भी आ जाना, फिर उसका एकाएक गायब हो जाना, इन सबसे गुज़रती सुधा जी के अंदर छुपी सशक्त, तेजस्वी, मेधावी, रचनाशील लेखिका, उनके सहमे, डरे, निराशा व अकारण ही अकर्मण्यता से घिरे बाह्य व्यक्ति से जूझती, उन्हें भावनाओं के गुबार से उबार कर कुछ अर्थपूर्ण लिखने को झिंझोड़ती , धमकाती तो कभी पुचकारती और इस तरह किशोरावस्था की कश्मकश और जंग में धीरे धीरे उनमे से वह दमदार लेखिका निकली जिसने आंसुओं और कोरी भावनाओं में लिपटी कलम को तिलांजलि देकर, आनेवाले समय में ज़मीन से जुडी ज़िंदगी पे कलम गड़ा कर लिखना शुरू कर दिया I दुनिया , समाज , जीवन की धुरी - ‘नारी’ पर सुधा जी की कलम विशेष रूप से केंद्रित हो गई. कारण - भावनाओं और संवेदनाओं से लबरेज़ ‘दिल’ और किसी भी तरह के अन्याय और शोषण के खिलाफ विद्रोह करने को तैयार तर्क - वितर्क युक्त ‘दिमाग’, समय के साथ अपने आसपास व समाज में हर ओर घटते ‘नारी उत्पीडन’ से जाकर आत्मसात हो गया I इस तरह उनकी कलम सुकुमार कविताओं से भावुकतापूर्ण कहानियों और फिर जीवन की सच्चाईयों से भरी कहानियों पे धाराप्रवाह चलती हुई, पूरी ताकत के साथ हुमक कर ‘नारी-विमर्श’ पर पैनेपन के साथ चलने लगी I फिर तो नारी-विमर्श जैसे उनका, उनके लेखन, उनकी सामजिक गतिविधियों का पर्याय बन गया I
उत्तरोत्तर जीवंत होती अपनी लेखिनी के सन्दर्भ में सुधा जी ने स्पष्ट इस बात को स्वीकारा है कि लेखन की दूसरी पारी में ‘हेल्प संस्था’ का बहुत ‘सकारात्मक योगदान’ रहा. इस विषय में वे लिखती हैं –
‘’इसमें संदेह नहीं कि अगर ‘हेल्प’ की दुनिया से मेरा परिचय न हुआ होता और मैंने दोबारा लिखना शुरू न किया होता तो मैं आम घरेलू गृहिणी की तरह x x x x x एक सफल पति के घर की चारदीवारी में कैद, बेहद कुंठित, बात - बात में झल्लानेवाली, बाहर की दुनिया से मुंह छिपाने वाली एक सिजोफ्रेनिक पत्नी होती, जो अपने पति के सरनेम से जानी जाती I’’ (पृ. ३९)
लेखन में और लेखन के बाहर भी पीडित नारियों की काऊंसलिंग के माध्यम से नारी जीवन से जुडी समस्याओं से जूझना उनके जीवन का लक्ष्य बनता गया I इस जुझारु रुझान से तप कर निकली यह पुस्तक ‘आम औरत और ज़िंदा सवाल’ I इस पुस्तक के सभी अध्यायों में औरतों से जुड़े मुद्दों को जिस व्यवस्थित ढंग से पुस्तक रूप में संजोया गया है, औरतों से जुडी ज़मीनी सच्चाईयों से रूबरू कराया गया है,उनकी ओर पाठकों का ध्यान खींचा गया है तथा आततायी पुरुषों का जो पर्दाफाश किया गया है, वह चौंका देने वाला है, अकल्पनीय है - पर सरापा हकीकत ही हकीकत है I
नारी की उखडी अस्मिता और इयत्ता की जड़ो को फिर से रोपने की कटिबध्दता से कृतसंकल्प सुधा जी ने दूसरे अनुच्छेद – ‘वामा’ स्तंभ में विविध घटनाओ और किस्सों को मनोवैज्ञानिक व प्रामाणिक ढंग से प्रस्तुत किया है - जैसे राजस्थान के ‘भटेरी’ गाँव की ‘भंवरी देवी’ की दास्तान, समाज के उस क्रूर व आततायी रूप का खुलासा करती है, जो स्त्री के साथ जानवर से भी बदतर सुलूक करता है I भंवरी को कलंकिनी, वेश्या, झूठी करार करके, उसके मुंह पे कालिख पुतवा कर ज़िंदा जला देने की ‘केहडी पंचायत’ के सरपंच की वीभत्स घोषणा आज भी ‘पुरुष वर्चस्व’ की कथा बांचती नज़र आती है I यदि भंवरी के पक्ष में प्रमिला दंडवते, अहिल्यारांगनेकर, सुधा कारखानिस और रिंकी भट्टाचार्य आदि सहित अन्य १५-२० महिला संगठन न उठ खड़े हुए होते तो - सरपंच की उक्त नृशंस घोषणा को क्रियान्वित होते देर न लगती क्योंकि सच्चाई पे परदा डालते हुए, पंचायत से लेकर जयपुर सेशन कोर्ट तक का फैसला ‘भंवरी देवी’ के खिलाफ था I पंचायत से लेकर जयपुर सेशन कोर्ट तक पसरे पुरुष वर्चस्व के अन्यायपूर्ण रवैये के कारण ही बलात्कारी ‘बेगुनाह प्रमाणित कर’ बाइज़्ज़त बरी कर दिए गए I
इसी तरह ‘रूपकंवर’ के गुनाहगारों का आँख मीचकर पक्ष लिया गया और वह लपटों की बलि चढ़ा दी गई I महाराष्ट्र की आदिवासी लड़की पुलिस कस्टडी में दो लोगो की हवस का निवाला बनी, पर अंतत: गुनाहगारों को दंड नहीं मिला I ऐसे ही उत्तर प्रदेश में मुरादाबाद की ‘किसनवती’ को निर्वस्त्र कर, घुमाने पर भी उच्चवर्णीय जाटों के खिलाफ कोई भी कार्यवाही नहीं हुई I अगर गंभीरता से, गहराई से महसूस किया जाए तो भंवरी के साथ बलात्कार समूची समाज व्यवस्था के साथ बलात्कार है I किसनवती को निर्वस्त्र किया जाना, पूरे समाज को निर्वस्त्र किया जाना है I‘रूपकंवर’ का जलाया जाना, मानवीयता को जला कर राख करना है I हर केस में गुनाहगारों को सजा न मिलना, मानो क़ानून व्यवस्था द्वारा खुद का मखौल बनाना है और अपने को लचर सिध्द करना है. I औरत के शारीरिक शोषण, शारीरिक दोहन के सिर्फ भारत में ही नहीं, वरन समूचे विश्व में न जाने कितने दिल दहला देने वाले उदाहरण भरे पडे है I जैसे इसी पुस्तक में दर्ज पाकिस्तान की साफिया का केस. साफिया का अंधा होना, उसको मिलने वाले न्याय के आड़े आ गया, लेकिन क़ानून तो हज़ार सैक्शन वाली ऎसी पैनी आँखों का होता है कि बंद दरवाजों के पीछे घटे अपराध को भी दरवाजे चीर कर, बाहर खीच निकाल लाता है, तहखानों के अँधेरे में घटे जुर्म को भी ताड़ लेता है, लेकिन विडम्बना कि इस पर भी अंधा बना रहता है I क्यों ? क्योंकि उसकी आँखों में बेइंसाफी, बेईमानी का ‘मोतियाबिंद’ घर किए होता है I तो पहले ऐसे अंधे क़ानून का इलाज करा के उसके अंधेपन को दूर किया जाना चाहिए I किसी मजबूर अंधी औरत पे अंगुली उठाने के बजाय, हर देश का क़ानून पहले अपना ‘रिवीज़न’ करे, तभी वह बेगुनाह और निर्दोष को इन्साफ दे सकेगा, वरना रोज न जाने कितनी भंवरी, कितनी रूपकंवर, कितनी सफिया अन्याय और ज़ुल्म का शिकार होती रहेगीं और रोती, कलपती, मरती रहेगीं I
लेखिका ने नारी उत्पीडन से जुडी विविध घटनाओं को, आदर्शवाद और सहानुभूति की ऐनक लगाकर नहीं देखा, अपितु उनके आसपास उगी यथार्थ की बेतरतीब झाडियों को हटा कर, करीब से उनका बारीक अध्ययन किया है I असहाय बनी, अन्याय झेलती, वेदना पीती उन स्त्रियों के दर्द को महसूस किया है और लेखिका के उसी दर्द की अनुभूति से जन्मी है यह चिंतन-मंथन से गुंथी किताब I पहले दस्तावेज़ में लेखिका समझदारी से भरा सुझाव देती है कि मूल्यों और संस्कारों से सिक्त बेटी को सब कुछ देना - बस, ‘भिक्षापात्र की झोली’ मत देना वरना पढ़ी-लिखी, प्रतिभाशाली लड़की पति के घर में, पति से ‘घर-खर्च’ माँगते माँगते खुद ‘खर्च’ होकर रह जायेगी. घर की मालकिन बनने के बजाय, एक संभ्रांत भिखारी बन कर रह जायेगी I
‘’मध्यम वर्ग हो या उच्च मध्यम वर्ग, आवश्यकता इस बात की है कि आप अपनी बेटी की शादी में सब कुछ दें – अपना तजुर्बा , ऊंचे संस्कार, अच्छी तहजीब, पर अगर आप खुद ताजिंदगी एक घरेलू औरत या गृहिणी रहीं है, तो अपने‘भिक्षापात्र’ को, अपने तक ही सीमित रखें, क्योंकि वह विरासत में देने के लिए नहीं है.’’ (पृ. ४५)
हर औरत आदर्शों, मूल्यों और विनम्रता के खोल में लिपटी, ‘समर्पण और त्याग’ का पर्याय बन कर रह जाती है I उसकी अस्मिता, उसकी इयत्ता, पति के ‘दु;शासन’ के समक्ष उसके खुद के व्यक्तिव से मुट्ठी के रेत की भाँति फिसलती चली जाती है I उसका यह अपने से अपनापन छिनना, उसके आत्मविश्वास को इतना हिला देता है कि वह हर पल, बात बात में डगमगाई रहती है I जैसे पार्किन्सन के मारे की गर्दन हर समय हिलती - कंपकपाती रहती है, ठीक वैसे ही आत्मविश्वास की मारी स्त्री, हर समय कंपकंपायी रहती है I सुधा जी ने एक आलेख में इस सच्चाई को इस तरह बयान किया है –
‘’मध्यम वर्गीय भारतीय परिवार में एक लड़की की कंडीशनिंग इस तरह से की जाती है कि वह शादी के बाद एक लंबा समय दबावों को झेलने और नए परिवार के नए सदस्यों को अनुरूप अपने को ढालने में बिता देती है I अपनी पिछली पहचान को पूरी तरह भुलाते हुए,वह अपने को ‘आदर्श’ सिध्द करने में ही अपनी पूरी ताकत लगा देती है I’’
(पृ. 99 )
‘बेटी संज्ञा, बहू सर्वनाम’ इस चुटीले शीर्षक के तहत, लेखिका ने बुज़ुर्ग व तथाकथित समझदार मानी जाने वाली सास बनी औरतों के दोहरे मानदंडों पर आक्षेप करते हुए कितना सही लिखा है -----
‘’औसत ’मध्यम वर्गीय भारतीय सास की त्रासदी ही यह है कि वह ज़िंदगी भर औरत बनी रहती है,पर सास बनते ही अपना औरत होना भूल जाती है I जिन्हें अपना औरत होना याद रहता है, वे कभी अपनी बहू के प्रति अतार्किक नहीं होतीं, क्योंकि अंतत: एक औरत ही दूसरी औरत की तकलीफ को सही परिप्रेक्ष्य में देखने समझने की दृष्टि रखती है I’’
( पृ. 54 )
‘सती माता की महिमा’ आलेख में सुधाजी ने नारी की ‘सती’ होने के नाम पर होने वाली दुर्दशा का सच उकेरा है I राजस्थान के ‘सीकर’ जिले में होने वाला ‘सती ‘ मेला इस कुप्रथा की महिमा गाता रहा है I सदियों से चली आ रही औरत को ज़िंदा जलाए जाने की यह नृशंस प्रथा तर्क रहित, सीधे-सादे दिमाग वाली राजस्थानी औरतों को इस कदर अपनी गिरफत में ले चुकी है कि वे पूरे जोश खरोश से पति की मृत्यु पर, चिता में उसके साथ जलने को तन, मन से तैयार रहती हैं I
‘’सती के प्रभामंडल से अभिभूत सती मेलों से लौटती हुई महिलाओं में ऎसी जांबाज़ औरतों की कमी नहीं जो इस नश्वर जगत में अमरत्व का ओहदा और सती का महान दर्ज़ा पाने की ललक में पति की चिता पर कूदने का हौसला रखती हैं I’’ - ( पृ. 65 )
इस सन्दर्भ में मेरी अपनी व्याख्या है -वास्तव में ‘सती’ का तात्पर्य ‘सत्य’ का अनुसरण या ‘सत्य’ को उपलब्ध होना है I लेकिन सदियों से औरतों को आग में झोंकने की हिंसक प्रथा ‘सती’ शब्द का यह अर्थ गढने के लिए मुझे प्रेरित कर रही है - जिसे आगे आने वाले शब्दकोषों में दर्ज किया जाना चाहिए कि – ‘’सती का तात्पर्य है - ‘सताई हुई औरत’ जिसे जीते जी तो सुख - चैन है ही नहीं, पर मरते समय भी वह चीख पुकार, चीत्कार के साथ लपटों में झुलसती, जलती, धधकती, यानी - ‘सत - सत’ के मरती है - ऎसी किस्मत की मारी औरत कहलाती है -‘सती’ ‘’ I
कितना दुःख-दर्द, पीड़ा-वेदना भाग्य में लिखा कर लाती है वह...?!! समाज उसे कभी पति के नाम पर, तो कभी बच्चे न जनने के नाम पर, तो कभी एक भी बेटा न पैदा करने के नाम पे सताने से बाज़ नहीं आता I कभी उसके पत्नीत्व की परीक्षा, तो कभी उसके मातृत्व की परीक्षा, बेचारी की परीक्षा का अंत ही नहीं होता I पग-पग पे अंत होता है तो - उसके सुख का, खुशी का, सुकून का, चैन का I इनके अलावा उसके लिए सब अनंत होता है - दुःख, दर्द अन्याय, शोषण, दोहन, प्रताडना, अपमान I मनुस्मृति में औरत की तीनों अवस्थाओं - बाल्यावस्था, यौवनावस्था और वृध्दावस्था में उसके संरक्षण का नहीं, अपितु, ‘परजीवी’ होने का नियम उध्दृत किया गया है I यह एक ऎसी विद्रूप सच्चाई है जिसके तहत नारी को सम्मान पूर्ण संरक्षण’ नहीं दिया जाता अपितु उसका मंद गति से ‘क्षरण’ किया जाता है I और इस तरह बचपन से बुढापे तक आते आते वह पिता, पति और पुत्र के आश्रित रहने की इस कदर आदी हो जाती है कि उसके बिना अपने अस्तिस्व की वह कल्पना करना ही बिसार चुकी होती है I उसका इस तरह लालन-पालन किया जाता है कि वह शारीरिक, मानसिक और सबसे अधिक भावनात्मक रूप से परजीवी बन जाती है I भले ही घर बाहर के सारे काम वह कितनी ही योग्यता और सुघडता से करती हो, पर उसे अकेले जीना त्रासदायक लगता है I भावनात्मक रूप से वह पुरुष पर निर्भर रहना चाहती है, चाहे वह पिता हो, पति हो या पुत्र इससे उसका मनोबल बढता है, भावनाएं पोषित है और वह सबल और सशक्त महसूस करती है I पहले अनुच्छेद का अंतिम, पर अनंतिम आलेख ‘ कलाकार के सौ गुनाह माफ हैं ’ हर किसी को पढना चाहिए -अपने अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए I लेखिका ने इसके अंतर्गत बड़ी महत्वपूर्ण जानकारी दी है कि अक्सर बड़े बड़े ख्याति प्राप्त लेखक दो विपरीत व्यक्तित्व ओढ़े हुए दोहरा जीवन जीते है I दुनियावी व्यवहार के कारण थोड़े बहुत दोहरे व्यक्तित्व को अपनाने की छूट हर किसी को है I जैसे घर में हम एक आज़ाद, मस्त मूड में स्वेच्छा से रहते हैं, लेकिन जब हम बाहर की दुनिया में कहीं जाते आते हैं तो सामाजिक सभ्यता, उचित आचार- व्यवहार की पूर्ण औपचारिकता बरतते है I हमें व्यवहार का यह दोहरापन सामाजिक सद्भावना की दृष्टि से अपनाना होता है I हमारे इन दो तरह के व्यवहारों में जमीन आसमान जैसा अंतर कतई नहीं होता, अपितु वह अंतर बेहद सूक्ष्म होता है – और जिसकी , नैतिकता और अनुशासन के तहत हर इंसान से अपेक्षा भी की जाती है I लेकिन बड़े बड़े ख्याति प्राप्त लेखक व कलाकार के दोहरे व्यक्तित्व तो परस्पर इतने विपरीत होते हैं कि दूसरा व्यक्ति देखकर हैरत में ही पड़ जाए I एक व्यक्तित्व सवेदनशील, मननशील , भावुक रचनाकार का , तो दूसरा चोला - एक चरित्रहीन, लम्पट व्यक्ति का I इस संबंध में लेखिका ने बड़े भेदिया सूत्र तार-तार खोले हैं I उन्होंने बताया है कि – ‘’आस्कर वाइल्ड से लेकर वादलेयर तक ने कलाकार के असाधारण तरीके से जीने की हिमायत की है I सामान्य ढर्रे से बंधा हुआ जीवन किसी भी कलाकार को स्थितियों का गुलाम बना देता है, ज़रूरी है कि वह जीने के सामान्य ढाँचे को ध्वस्त करे I यह भी कहा गया है कि कलाकार में लुम्पन तत्व होना ही चाहिए I अगर वह थोड़ा आवारा नहीं है, ख़ूबसूरत औरत को देखकर उसमें, उसके साथ की इच्छा नहीं जागती तो, वह सही मायने में कलाकार नहीं है I
( पृ.129 )
यह एक परिचर्चा का विषय है कि ‘’लम्पटता और रचनात्मकता’’ का क्या चोली दामन का साथ है ? यदि किसी भी लेखक/ कलाकार के लिए स्वच्छंद जीवन शैली, उत्कृष्ट कोटि की रचनात्मकता के लिए इतनी ही अनिवार्य है, तो बेचारे प्रेमचंद तो आजकल के ‘महान रचनाकारों‘ से बहुत पिछडे हुए थे I वे तो एय्याशी, भोग-विलास से कोसो दूर थे I आश्चर्य की बात - फिर भी कालजयी साहित्य दे गए !! सूर, कबीर, तुलसी, प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त ये सब ‘लम्पटता की बातों’ में आजकल के कवियों और साहित्यकारों से बहुत पिछडे हुए थे I ये लोग सृजन ऊर्जा कहाँ से लेते थे ?
समझदार को इशारा काफी कि आजकल के रचनाकारों की ये सब दलीलें मात्र शोशेबाजी के सिवाय और कुछ नहीं है I उन्हें लम्पटता का बहाना चाहिए,सो रचनात्मकता को ही अपने निकृष्ट व्यक्तित्व की ढाल बना लिया I फिर भी प्रेमचंद और प्रसाद की तरह कुछ भी उम्दा न दे पाए I अब ज़रा ये दोहरे लोग अपनी दलीलो की सार्थकता को टटोलें और अपने मुंह पर हाथ फेर कर देखें कि उनक ये गिरगिटी तेवर किसको मूर्ख बनाने के लिए हैं ?
‘आत्महत्या से उभरे सवाल’, ‘औरत होने की सज़ा एक है’, ‘विकृति की बलिवेदी’, ‘सामंती गढों में सेध’, ‘सपनों की पोटली और पैरों तले ज़मीन’, ‘दबा ज्वालामुखी - फूटता लावा’ से लेकर ‘कलाकार के सौ गुनाह माफ’ तक औरत की त्रासदी के मल्टीडायमेन्शनल प्रतिबिम्ब बड़ी सच्चाई के साथ उभर कर आए है, जो पाठक को गंभीरता से सोचने के कई सूत्र थमा देते है I
इसी तरह तीसरे अनुच्छेद में - ‘’आक्रामकता के खिलाफ, एक आम औरत की आवाज़, जिसके निशान नहीं दिखते, मिथ और तथ्य,एक सपने की मौत, औरत को डायन और पागल ठहराने के पीछे, न्यायापालिका के इतिहास का खुरदुरा पन्ना’’ - इन विविध सच्ची घटनाओं के हवाले से, लेखिका ने सबके बीच होकर भी अकेली,असहाय, उदभ्रांत उस स्त्री के शारीरिक और मानसिक शोषण, भावनात्मक दोहन, पारिवारिक एवं सामाजिक संत्रास का ब्यौरा दिया है जो बेटी, बहन, पत्नी, माँ सब कुछ है, अगर नहीं है तो बस ‘इंसान’ नहीं है, मानवी नहीं है I चलती फिरती, कर्त्तव्य निबाहती एक मशीन है,जो यदि कर्त्तव्यवहन में कभी किसी तरह की कोताही कर बैठे तो ताड़ना, आलोचना और अमानवीय बर्ताव का शिकार बनती है I जो विचारशील समाजशास्त्री, समाज-सेवी संगठन, महिला संगठन, प्रताडित, अन्याय का शिकार हुई नारी की पैरवी भी करते हैं तो उनके प्रयास अस्थाई रूप से एक सीमा तक कारगर तो सिध्द होते है,लेकिन अंतत: उनकी आवाज़, उनका विद्रोह भी सदियों से चली आ रही सामाजिक रीतियों, रस्मों - रिवाज़ और परम्पराओं के विशाल समुद्र में गुम होकर रह जाता है I नतीजा - वही ‘ढाक के तीन पात’ I कुछ समय बाद फिर कोई भंवरी देवी, कोई किसनवती, कोई रूपकंवर कराहती, बिलखती उभर कर आती है,फिर वही नारी संत्रास और प्रताडना का इतिहास अपने को दोहराता है,’बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत बोलो’ मानो ये नियम - सिर्फ और सिर्फ औरत पे लागू कर देना चाहता है समाज I यह नहीं कहा जा सकता कि बदलाव नहीं आया है, पर वह इतना निरीह, सूक्ष्म और बेदम है कि उसका नामोंनिशाँ ही नज़र नहीं आता I नारी उत्थान, नारी अधिकारों को लेकर समाज का यदि एक फलक चेतानापूर्ण करवट लेता है, तो शेष पुरुषवादी फलक बदले में कई गुना तीखे और दबंग होकर मोर्चे पे डटे नज़र आते हैं I सो नारी से जुडा क्षीणकाय परिवर्तन ‘नहीं’ के बराबर रह जाता है I शिक्षित, शिष्ट, संभ्रांत, विचारशील पुरुष वर्ग जो जीवन से जुडी अनेक इकाईयों के प्रति प्रगतिशील एवं उदार है, वह ‘नारी रूपी इकाई’ के प्रति अनुदार और दकियानूसी ही बना रहता है I स्त्री को इंसान का दर्ज़ा देकर, खुली हवा में सांस लेने कि छूट देते, बलिष्ठ और साहसी पुरुष को शायद या तो असुरक्षा महसूस होने लगती है या मानहानि लगती है I मुझे आज तक पुरुष वर्ग की यह मानसिकता समझ नहीं आई I नारी पग-पग पे, पल-पल पुरुष के प्यार, ख्याल से अपने को तनिक भी अलग नहीं करती - उसके इस भावनात्मक लगाव, सघन प्रेम के बावजूद भी पुरुष भयाक्रांत रहता है कि नारी को आज़ाद इंसान का दर्ज़ा दिया नहीं कि वह ‘राज’ करने लगेगी या उसके हाथों से निकल जाएगी.... ये भ्रांतियां क्योंकर पुरुष को सताती है ? जबकि वस्तुस्थिति ठीक इसके विपरीत है I नारी घरेलू हो या कामकाजी, वह घर - बाहर के सारे काम अपनी क्षमता से अधिक ‘उफ़’ किए बिना, सहर्ष संभालती है, आफिस टाइम खत्म होते ही,पति और बच्चों के ख्याल से भरी तुरंत घर की ओर लपकती है, फिर भी उसे किसी बात का श्रेय नहीं दिया जाता I जबकि पुरुष इसके विपरीत आफिस से सीधे घर न आकर, दोस्तों के साथ घूमता फिरता, मौज-मस्ती करता देर से घर आता है.उससे यदि देर से आने का कारण कोई पूछ बैठे तो वह इसे अपमान समझ कर उलटे परिवार वालों पे चिल्लाने लगता है I न जाने कैसे खोखलेपन और अन्जानी असुरक्षा से वह बेबात ही घिरा रहता है ? स्वयं जैसा ढीला होता है, वैसा ही ढीला उसका सोच होता है I अपनी इस कुंठित मनोवृति के तहत वह स्त्री को ‘शक के रहस्यमय लेंस’ लगा-लगा कर देखता है I यदि अपनी विकृतियों से गढी सोच को पुरुष, औरत पे इसी तरह थोपता रहा, तो औरत तो कभी भी सुकून से जी नहीं सकेगी, चैन की सांस नहीं ले सकेगी क्योंकि सदियों से समाज के ठेकेदार पुरुष, समाज पे सांप की तरह कुन्डली मारे बैठे हैं I उसी की देखादेखी और उसकी धोखाधड़ी से खीजकर खुदा न खास्ता यदि औरत भी पुरुष के अपनाए रास्ते पे चल पड़ती है तो पुरुष उसे ताडने और फाडने पे उतारू हो जाता है I औरत सीधी राह चलती है तो भी भटका मर्द उसे अपनी तरह सोच कर शक करने से बाज़ नहीं आता I औरत के प्रति यह रवैया कहाँ तक जायज़ है? क्या औरत का दर्ज़ा एक गुलाम का है,या एक बंधक का?आज औरत देह के स्तर पर जो तथाकथित आज़ाद रूप अपनाए नज़र आती है, अगर थोड़ा गहराई से सोचे, उसकी ‘आज़ादी’ के रूप का विश्लेषण करें तो आप पाएगें कि उसे छोटे-छोटे कपडे पहना कर नचाना,गवाना, उसका यौन शोषण करना पुरुष शासित समाज द्वारा औरत के देह-दोहन का प्रमाण है I दो कपडे बदन से चिपकाए वह प्रोडक्ट का विज्ञापन दे रही है, सरकारी, गैर सरकारी प्रतिष्ठानों की परियोजनाओं का प्रचार-प्रसार कर रही है , ये सब विकृत पुरुष मानसिकता का ही विज्ञापन है परोक्ष रूप से I विज्ञापन वाशिंग पाउडर का होता है - कैमरा बार बार फोकस करता है विज्ञापन देती नारी की कमर और नाभि को I नहाने का साबुन हुआ तो फिर तो ‘लक्स’ से मिलने वाली मखमली कोमलता को प्रमाणित करने के नारी के लावण्य से भरपूर अंग प्रत्यंग को दिखाना जैसे विज्ञापन वालों का धर्म हो जाता है I ये विज्ञापन, नन्हे नन्हें कपड़ों में, बाज़ारों में लगे बड़े बड़े होर्डिंग्स में कैद स्त्री आज़ाद कम - पुरुष की गुलाम अधिक नज़र आती है I मधुर भंडारकर की ‘फैशन’ मूवी फैशन जगत की विद्रूपताओं और उसका शिकार हुई नारी की विवशता और विक्षिप्तता की सही कहानी पेश करती है I कहाँ आज़ाद है नारी ? बंधक की तरह उसके इशारों पे नाच रही है क्योंकि कही वह घर का खर्च चलाने के लिए, तो कही, अनाथ होने पर जीविका अर्जन के लिए अपनी इच्छा के खिलाफ जाकर यह सब करने को मजबूर होती है I अधिकतर स्त्रियां नौकरी करने लायक शिक्षा, योग्यता और क्षमता नहीं रखती I उस स्थिति में उनके पास ऐसे पेशों के अलावा और कोई निदान नहीं होता I इसी तरह कुछ अपवादों को छोडकर, कुछ परिवारों में सुशिक्षित और हर तरह से सक्षम पत्नी को इसलिए नौकरी नहीं करने दी जाती कि कहीं कमाऊ बन कर, घर पर हावी न हो जाए, और जो नौकरी की इजाज़त देते हैं, वे उसे जैसे धन उगलने की ए.टी. एम. मशीन समझने लगते हैं I ऐसे में स्त्री का बाहर जाकर नौकरी करना भी पति, अपनी पत्नी के कर्तव्यों में गिनने लगता है I जबकि अपने द्वारा लाई गई कमाई का एहसान वह पत्नी पर थोपने से बाज़ नहीं आता I दफ्तर की टेंशन, थकावट, काम का बोझ, न जाने क्या - क्या कह कर, वह स्वयं को नौकरी के लिए ‘शहीद’ होने की हजार बातें कहता नहीं थकता इन दोहरे मानदंडों से पुरुष कब अपने को अलग करेगा ?
वेदना, व्यथा, विवशता की शिकार नारी हर वर्ग में है I जितना बड़ा वर्ग, उतनी बड़ी विवशता..!! बल्कि निम्न वर्ग की स्त्री तो एकबारगी जुबान और हाथापाई -सबमें पुरुष की बराबरी कर लेती है, लेकिन मध्यम व उच्च वर्ग में पली बढ़ी स्त्री, उच्च शिक्षा-दीक्षा के कारण,संस्कारों के कारण चुप रह जाती है I जब पानी सर से गुजारने की नौबत आती है , तभी मुंह खोलने पे मजबूर होती है I इसलिए ही पढ़ी लिखी महिलाएं पुरुष द्वारा तरह-तरह से उपेक्षित होने पर, तमाम मानसिक व्यतिक्रमों और भावनात्मक अवरोधों के चलते, शारीरिक अस्वस्थता को झेलती जीती है I क्योंकि उसकी व्यथा का, विद्रोह का विरेचन ही नहीं हो पाता और जब होता है, तब तक वह अनेक रोगों का शिकार हो चुकी होती है I इतना ही नहीं पति भी अपने ढर्रे के जीवन में इतना रूढ़ हो चुका होता है कि औरत जब तब हिम्मत बटोर कर उसके सामने मुंह खोलती भी है, तो वाक् युध्द अप्रभावी रहता है I
जब तक पुरुष का ज़मीर नहीं जागेगा, उसकी चेतना करवट नहीं लेगी, तब तक ‘नारी-विमर्श’ फोरम के तहत आयोजित कार्यक्रम, व्याख्यान तथा विविध कार्यवाहियां सपाट ही जाएगीं I नारी की स्थिति में सुधार तभी आएगा, जब समझदार पुरुष वर्ग कुंठित मनोवृति वाले पुरुषों की मानसिकता बदलने में सहयोग दे और नारी को मनुष्य /मानवी मानने की दृष्टि विकसित करें I पुरुष के बढ़ते अतिरिक्त वर्चस्व को सही तरह से रोकने के परिणामोन्मुख प्रयास किए जाएं I पुरुष व्यक्तिगत, सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर नारी के प्रति अपनी कुंठित मनोवृति और रूढ़िवादी सोच को बदले, समाप्त करे I नारी की आजादी बाह्य नहीं अपितु आतंरिक पटल से जुडी है I जब तक पुरुषसत्तात्मकता अपने मन में संजो कर रखी स्त्री के प्रति अपने सामंती सोचों को नहीं काट फेकेगी , तब तक नारी इंसान के रूप में अपने को स्वतन्त्र महसूस नही कर सकेगी I पुरुष की मानसिकता में परिवर्तन आते ही, पुरुष के व्यवहार में भी स्वत: ही परिवर्तन आना शुरू होगा I उसमें आए उदार परिवर्तनॉ की गूँज अपने आप ही स्त्री तक पहुंचेगी I तब वह सहजता और सम्मान के साथ जी सकेगी. घुट-घुट कर, किलस-किलस कर जीना भी कोई जीना है ? हर छोटी बड़ी बात में उसे जंग लड़नी पडती है I स्त्री को कभी क़ानून की शरण लेनी पडती है तो कभी महिला संगठन उसकी पैरवी करते हैं I बरसों से यह जद्दोजहद चली आ रही है I लोगों का तर्क है कि नारी तो मुक्त है, आज़ाद है I पर नारी कहाँ आज़ाद है? जहां तक, जब तक पुरुष के स्वार्थ पूरे होते है, उतनी देर की आज़ादी पुरुष मतलब उसे देता है, उसके बाद तुरंत, बिना बोले आँख के क्रूर इशारे से कहता है कि ‘’आ जाओ अपने दबे ढके सेविका रूप में.’ यह आजादी है ? उसे इंसान समझा जाना है? क्या आपने किसी ऐसे पुरुष को पत्नी द्वारा छोडते या तलाक देते देखा और सुना है जो बच्चा दे पाने में असमर्थ हो? यह तो एक प्राकृतिक संयोग है I लकिन इसके विपरीत यदि पत्नी बाँझ है तो अच्छे पढ़े- लिखे पुरुष और उसका समूचा परिवार दूसरी पत्नी लाने पे आमदा हो जाते हैं - कुछ अपवाद छोड़ दे तो I
बहुत से लोग कहते है कि नारी अस्मिता को अक्षुण्ण बनाए जानी की कोशिश की जानी चाहिए I लेकिन जिस चीज़ का आता-पता ही नहीं, उसे अक्षुण्ण कैसे बनाया जा सकता है ? तो ऐसी खोखली बातों और सुझावों से कोई फ़ायदा नहीं जिनके पाँव ही न हों I सतही स्तर पर, सतही तरह से जीवन और समाज का अभिन्न अंग , बल्कि यूं कहिए कि केन्द्रीभूत इकाई - जो मानव-जाति के जन्म से लेकर संवर्धन तक की मूल धुरी है - उस नारी के अस्तित्व से जुडी गंभीर समस्या की सतही चर्चा करना , उससे पल्ला झाड़ कर बैठ जाने जैसा है, उसका मखौल बनाना है या फिर नारी मुक्ति के नाम पे ‘देह-मुक्ति’ का नारा लगाना - यह सब पुरुष द्वारा नारी के यौन शोषण के शोशे हैं I पुरुषों द्वारा नारी के इस कदर शोषण व उत्पीडन के चलते, लेखिका ने उस चिंतनशील पुरुष वर्ग को नज़रंदाज़ नहीं किया, बल्कि सम्मान के साथ उस वर्ग का उल्लेख किया है जो दिल से, बड़ी निष्ठा से अन्याय और शोषण का शिकार स्त्री का हिमायती है I इतना ही नहीं उस दिशा में नारी को न्याय दिलाने, उसके साथ होने वाले शोषण को खत्म करने के लिए निरंतर कटिबध्द है I नि:संदेह ऐसे पुरुष सराहना के योग्य है और धन्यवाद के पात्र
चौथे अनुच्छेद – ‘मीडिया में औरत’ में सुधा जी ने बेहद संवेदनशीलता के साथ सच्चाई को महसूस करते हुए, भंवरी के साथ हुई वारदात और अन्याय पर बनी फिल्म ‘बवंडर’ तथा उपभोक्ता संस्कृति की बलि चढने को विवश नारी की त्रासदी दर्शाती फिल्म ‘आस्था’ पर टिप्पणी करते हुए, इन फिल्मों के निर्माता निर्देशको पे करारा प्रहार किया है I उनकी नीयत की असलियत उघाडी है कि किसी भी स्त्री के साथ शारीरिक दोहन की हुई दुर्भाग्यपूर्ण घटना के फिल्मांकन को लेकर वे किस प्रकार अपने दोहरे मानदंडों के मध्य दोलायमान रहते हैं I ऎसे गंभीर सामाजिक मुद्दों को वे ‘यश और मुद्रा अर्जन’ - दोनों स्तरों पर येनकेन प्रकारेंण ‘कैश’ करने को लालायित रहते है I फिल्मांकन के अंतिम पड़ाव तक पहुंचते - पहुंचते, उनका ध्यान ऎसी घटनाओं के प्रति उनके सामाजिक व नैतिक दायित्व से फिसल कर, सिर्फ अधिकाधिक अर्थोपार्जन तक सीमित रह जाता है I क्योंकि मुद्राएं कमाने के फेर में वे मूल घटना में ऐसे खिचडी परिवर्तन कर देते है और दर्शकों की भावनाएं दोहने के लिए ऐसे झूठे व नाटकीय दृश्य जोड़ देते है कि घटना सच्चाई से दूर चली जाती है I इससे न तो घटना, न सामाजिक समस्या, और न ही अन्याय का शिकार हुई नारी के साथ न्याय हो पाता है I झाड झंखाड की तरह, रह रह कर उग आने वाले ऐसे मुद्दों के मुख्य पहलुओं को दर्शाने, उचित ढंग से मैगनीफाई करने व दर्शकों को उनके बारे में सकारात्मक रूप से सोचने के लिए झकझोर देने का जो प्रांजल लक्ष्य वे शुरू में लेकर चलते है, वह फिल्म पूरी होने तक धुल-धूसरित हो जाता है I ऎसी फिल्मों को बनाकर पुरस्कार और मोटी मोटी रकम पाते हैं निर्माता - निर्देशक, लेकिन अपने गाँव, सगे - संबंधियों की गालियाँ खाती है; फिल्म की प्रेरणा बनी भंवरी जैसी निरीह औरते I सो लेखिका का सवाल है कि लक्ष्य से खुद भटका समाज पीड़ित नारी को कैसे न्याय दिला सकता है ? वे खेद के साथ निखती हैं –
‘’ हम जैसे तथाकथित ‘क्रिएटिव’ कलाकार, अभिनेता, रचनाकार - जीते जागते लोगों के संघर्ष को अपनी कला में, अपने हक में,अपने नाम के लिए सिर्फ इस्तेमाल करना जानते हैं, उनके मकसद को मंजिल तक पहुंचाने में कोई भूमिका नहीं निभाते I’’
(पृ. २१९ )


ऐसी गैर जिम्मेदाराना सामाजिक कार्यवाहियों द्वारा शोषित और प्रताडित नारी पुन: हाशिए पे फेक दी जाती है I इस तरह जिस शोषण, दोहन से वह कुछ उबरी थी, फिर से उसी में डूब जाती है I गुमनामी से बदनामी की डगर पे इधर से उधर घसीटी जाकर, उसकी हालत और भी बद से बदतर हो जाती है I उसकी बेईज्ज़ती, बलात्कार, जो पहले उस तक ही सीमित था, अब उजागर होने पर, अधिक भयावह और भारी होकर उसे दबोचता है I इस तरह उसकी यातना चौगुनी होकर दिन-रात उसे कचोटती है I
इसी तरह मटुकनाथ और जूली का ‘संयोग’ या मटुकनाथ और उसकी पत्नी का ‘वियोग’ उसे क्या नाम दिया जाए ? यह घटना भी पुरुष वर्चस्व और नारी उत्पीडन की एक और कड़ी है I मीडिया का हो-हल्ला, शोर-शराबा, लालू जी के चटपटे सुझाव, जनता की प्रतिक्रियाएं - नतीजा ? हम सबने देखा ही कि प्रेमिका पत्नी पे इस तरह भारी पडी कि नेता से लेकर जनता तक, किसी ने भी ‘मटुकनाथ और जूली’ यानी प्रेमी और प्रेमिका को अलग होने का सुझाव नहीं दिया, किसी ने दिया भी तो दबे स्वर से - जोर देकर नहीं कहा, उलटे पत्नी को पति की प्रेमिका सहित स्वीकार लेने और शान्ति बनाए रखने का २१ वीं सदी स्टाइल हास्यास्पद व बुध्दिहीन सुझाव देने में किसी ने कोताही नहीं बरती I किसी ने भी जूली को समझाकर , मटुक और उसकी पत्नी के वैवाहिक जीवन से शराफत से दूर हो जाने की नेक और न्यायपूर्ण बात नहीं कही I सब तमाशायी बने, पत्नी अधिकारों का हनन होते देखते रहे I अपने नए प्रेम के मद में चूर मटुकनाथ ने यह तक कहा कि वह अपनी पत्नी को आज़ादी से जीने पूरी छूट देते है, कौन मना करता है, ये भी अपने ढंग से ज़िंदगी जिए Iऐसा कहते समय पति कहीं मन में आश्वस्त होता है कि पत्नी तो रो - झींक कर घरबार और बच्चों को सम्हालेगी ही; आगे सुधाजी के शब्दों में –
‘’ लंबे अरसे तक अपने आका की लंबी गुलामी करते हुए एक अदद बीवी इस कदर उसकी आदी हो जाती है कि एकाएक मिली आजादी के सुख को भी पहचान नहीं पाती I x x x x अपने पिंजरे को मुग्धभाव से देखती है और उसका खुला हुआ दरवाजा उसे लुभा नहीं पाता I सालों में वह अपने कतरे हुए पंखों की आदी हो जाती है I’’
(पृ. २३८)

पांचवे अनुच्छेद – ‘ धर्म और औरत ’ के अंतर्गत सुधा जी ने औरत की जिन्दगी में धर्म के खलल से बाधित होने वाले इन्साफ, बेइंसाफी से बाधित होने वाली जीवन की सहजता, असहजता से बाधित होने वाला उसका सुख-चैन, इस तरह एक के बाद एक उपजती दुःख की श्रंखला का उल्लेख पाकिस्तान की निर्दोष साफिया की दर्दनाक कहानी से किया है I अपने मालिक और उसके बेटे द्वारा किए गए बलात्कार से गर्भवती हुई, घरेलू अंधी नौकरानी ‘साफिया’ के पिता ने जब बेटी के गुनहगारों के खिलाफ, शरीयत कोर्ट में मुकदमा दायर किया तो कोर्ट ने गुनाहगारों को सज़ा न दे कर, साफिया के औरत होने को और उसके अंधेपन को आधार बना कर, उसके आरोप, उसकी गवाही को संदिग्ध माना I उलटे उसके कुवांरी होने के बावजूद गर्भवती होने से, उस पर नाजायज़ शारीरिक संबंध बनाने के लिए दोषी ठहराया गया I हदूद क़ानून के अनुसार ऐसे अपराध की सज़ा यह है कि गुनाहगार पर तब तक पत्थरों की बौछार की जाए, जब तक वह मर न जाए I लेकिन चूंकि वह अंधी है तो उस पर दया करते हुए उसे दस साल की कैद और सौ कोडों की सजा दी गई I अब ज़रा सोचिए, यह उस निरीह के साथ न्याय था किसी भी दृष्टि से ? इंसानियत, क़ानून और धर्म सब अपाहिज हो गए -शरीयत कोर्ट के तर्कहीन फैसले के सामने I तब १९७९ में हदूद क़ानून के विरोध में ‘वीमेंस एक्शन फोरम’ की नींव पडी और वहाँ की महिलाओं ने साफिया के साथ होने वाली बेइंसाफी के खिलाफ आवाज़ उठाई I वे साफिया और अन्य कुछ और औरतों को आज़ाद कराने में सफल ज़रूर रहीं पर पाकिस्तान में न्याय के लिए औरतों के बढ़ते हौसलों को देख, नारी विरोधी क़ानून बनाए गए, उनके साथ तरह तरह के अन्याय और अत्याचार बढ़ने लगे I परिणामस्वरूप ज़ुल्म की शिकार महिलाएं, प्रोफैसर डा. रिफअत हसन से मिली, जिससे उनकी समस्या का सही निदान मिल सके I पिछले बीस वर्षों से अमरीका में इस्लामिक स्टडीज की प्रोफैसर - डा. रिफअत हसन, धर्म-ग्रंथों की भ्रामक व्याख्या और कुरआन की आयतों के भ्रामक विश्लेषण के तहत पाकिस्तान में अन्यायपूर्ण, पोंगापंथी कानूनों के लागू होने के आधारभूत कारणों की खोज करने में लगी है I डा. रिफअत हसन ने १९८४ से शिरकत में आए ‘कानून-ए-शहादत’ जिसके अनुसार कोई भी औरत न तो अपने नाम से बैंक एकाउंट खोल सकती है, नही किसी दस्तावेज़ पर उसके हस्ताक्षर क़ानून सम्मत हैं - कुरआन की उस आयत की एकदम गलत व्याख्या है जिसके अनुसार दो औरत मिलकर एक पुरुष के बराबर हैं और एक औरत का दर्ज़ा आधे पुरुष के समान है I डा. रिफअत हसन ने फातिमा मेर्निसी और लैला अहमद के साथ मिलकर कुरआन की नारीवादी व्याख्या की और मर्दों के मनमाने और सरासर गलत नज़रिए का तर्क सहित खुलासा किया I इस पुस्तक में लेखिका ने असगर अली इंजीनियर की पुस्तक ‘प्राब्लम्स आफ मुस्लिम वीमेन इन इंडिया’ का उल्लेख करते हुए सुधा जी ने लिखा है कि –
‘’कुरान की अंतिम व्याख्या यही है कि ‘औरत और मर्द सामान हैं’ I कुरआन के चौथे अध्याय की ३४वी आयत की व्याख्या यह नहीं है कि मर्द को औरत पे शासन करने के लिए भेजा गाता है, अपितु डा. रिफअत हसन के अनुसार – ‘’पुरुष औरतों के संरक्षक हैं क्योंकि वे धन कमा कर लाते हैं और अपनी कमाई दौलत में से घर की औरतों पे खर्च करते हैं I’’
( पृ. 251)
क्योंकि पहले अर्थोपार्जन का काम सिर्फ पुरुष ही करते थे I डा. रिफअत हसन ने स्वयं इस सच्चाई को स्वीकारा है कि तरक्की पसंद पाकिस्तान में आज हर क्षेत्र में पढ़ी-बिखी, समझदार महिलाओं कि मौजूदगी रूढिगत सोच वाले मुसलमानों के लिए हिला देने वाली चुनौती बन कर सामने आई, इसलिए औरतों को नेस्तनाबूद करने के लिए, कट्टरपंथियों ने कुरआन की सही आयतों की अपनी गलत और तंग सोच के अनुरूप व्याख्या कर तर्कहीन नियम बना दिए I ऐसे नियमों का विरोध तो होना ही था, जो कुरआन की सरासर गलत छवि पेश करें I इसी तरह कुरआन में कहीं भी ऐसा नहीं कहा गया है कि औरते मर्दों के साथ नमाज़ अता नहीं कर सकतीं I सारा मुस्लिम समाज इस सच्चाई को जानता है कि हज के मौके पर व रसूल अल्लाह के वक्त औरत-मर्द सब साथ-साथ नमाज़ पढते हैं I ईरान, मक्का, कहाँ नहीं औरतें मर्दों के साथ नमाज़ पढतीं ? प्रो. जीनत शौकत अली स्पष्ट कहा है – ‘हज़रत मोहम्मद पहले फेमनिस्ट थे.’ ’’( पृ. 254 )
मुस्लिम ला बोर्ड के उपाध्यक्ष मौलाना कल्वे सादिक और विचारक मौलाना सज्जाद नदवी ने खुलासा करते हुए बताया कि धार्मिक मुल्लाओं ने औरतों के मर्दों के साथ नमाज़ पढने पर पाबंदी इस कारण से लगाई कि नमाज़ के समय औरतों के साथ होने से, मर्द अपने पर संयम खो देते हैं I मस्जिद को, समाज को पाक, साफ़ रखने के लिए ज़रूरी है कि औरतें घर में रह कर नमाज़ अता करें I मतलब कि सार्वजनिक स्थलों पर, इबादतगाह में औरतों की मौजूदगी मर्दों की खुद की कमज़ोर मनोवृति के कारण आपत्तिजनक है I अपनी कमी को छुपा कर कुरान की गलत व्याख्या करके, मर्दों के मन में उठने वाली यौन प्रवृतियों के लिए औरतों को ज़िम्मेदार ठहराना क्या किसी गुनाह से कम है ? अपनी कमज़ोर प्रवृति के कारण औरत को एक पाक जगह में जाने से रोक दिया गया, पर अपनी गलत मनोवृति के लिए मर्दों ने अपने को गुनाहगार मानना गंवारा न किया I
प्रो. जीनत शौकत अली का कहना है – ‘’ साम्यवाद के ढह जाने के बाद, पश्चिमी देशों का सबसे बड़ा शत्रु इस्लाम ही है. वे विश्व में यह भ्रामक धारणा फैलाते है कि इस्लाम फासीवाद, आतंकवाद और अतार्किकवाद का पर्याय है.’’ (पृ. 247 )
लेखिका ने स्पष्ट इस बारे लिखा है कि आज हर आधुनिक समाज में चाहे वह मुस्लिम हो या हिन्दू, औरते खूब शिक्षा हासिल कर रही हैं और डाक्टर, इंजीनियर, प्रोफैसर बैंक, आदि सभी क्षेत्रों में नौकरियों में भी आगे है I काहिरा, तेहरान, कराची, हर जगह औरतें इज़्ज़त से व्यवसाय में लगी है I ये ही औरते,जब इबादत की बात आती है तो, मस्जिद में जाने से रोक दी जाती हैं I ठीक है मुल्ला - मौलवी उन्हें रोके, लेकिन सही कारण उजागर करके रोके, उन्हें अपराधी महसूस करा कर नहीं I उनके साथ भावनात्मक अन्याय क्यों किया जाता है? पाबंदी झेलने की तो हर जाति की औरत को आदत है, लेकिन ईमानदारी से सही तर्क देकर यदि औरत को कोई काम करने से रोका जाए तो, वह तरीका पाक और स्वीकार्य होता है I उसे झूठे ही जायज़- नाजायज़ के घेरे में बांधना - उसके साथ सरासर ज्यादती है I धर्म के नाम पर औरत का शोषण है I इसी तरह मजबूर अंधी साफिया जैसी औरतों को दूसरे के गुनाह की सज़ा देना, किसी पाप से कम नहीं I
लेखिका ने उद्धृत किया कि ड़ा रिफअत के अनुसार इस्लाम के अनुसार खुदा को कैसे समझा जाए, और दूसरी बात यह कि खुदा एक पुलिस मैन की तरह है जिसके पास सही और गलत काम की लंबी फेहरिस्त है I उसके अनुसार वह लोगों को सज़ा देता है - इन दो अवधारणाओं को लेकर संघर्ष जारी है तथा इनके साथ जुड़ा है औरतों की अस्मिता का प्रश्न, उनके प्रति उदारता व अनुदारता का प्रश्न. (पृ. २५५ )
अंत में मुझे जयशंकर प्रसाद की नारी के लिए कही गई और सबके द्वारा अक्सर दोहराई जाने वाली मृदुल पंक्तियाँ याद आ रही हैं –
‘’नारी तुम केवल श्रध्दा हो, विश्वास रजत नग पग तल में
पीयूष स्र्तोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में.’’
इन पंक्तियों को पढकर दिल भर आता है कि ‘श्रध्दा और विश्वास’ की देवी की किस्मत में कितनी चोटे, कितनी दुर्गति लिखी है ? आज न तो समाज के पास प्रसाद जी की तरह नारी को देखने की वह स्नेह व सम्मान भरी दृष्टि है और न आज वह ‘पीयूष स्र्तोत’ सी नारी अपार दुःख झेलते - झेलते पीयूष सरीखी रह गई है I क्योंकि घर-परिवार को अमृत से सींचने वाली उस नारी को बेदर्द दुनिया ने इतना गरल पिलाया कि आज वह ‘गरल’ पी – पी कर, खुद गरल ही बन गई है I शिव की भाँति ज़मीनी सच्चाईयों के कडुवे गरल को कंठ में उतार कर, तिल-तिल भावनात्मक और मानासिक घुटन में सांस लेती हुई, धीरे- धीरे शरीर में फैलते उसके विषैले असर से, वह निरंतर मर रही है I भावनात्मक और मानासिक आघात, शारीरिक आघातों से कहीं अधिक तीखे और जानलेवा होते है I वे दिखते नहीं पर, घुन की तरह किसी को भी अंदर ही अंदर खोखला कर डालते हैं I समाज के विविध तबकों में तरह तरह की पीडाएं और कष्ट झेलती स्त्री को एक नहीं अनेक घुन लग गए है, जो बेरहमी से उसे जर्जर बनाए डाल रहें है I काश कि फिर से ‘सत युग’ आ जाए और नारी को वही पहले वाला श्रध्दा और विश्वास भरा स्थान समाज में मिल जाए कि वह अपने नारी होने पर गर्व कर सके !!
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आधुनिक नारी और परम्परागत "इमेज"
आधुनिक नारी यानी "आज की नारी" गृहस्थी के सीमित दायरे से निकल कर समाज के विभिन्न क्षेत्रों में पदार्पण कर चुकी है जिससे उसकी परम्परागत इमेज में एकाएक परिवर्तन आया है। समय की आवश्यकता, आर्थिक परिस्थितियाँ व बदलते हुए सामाजिक मूल्य इस परिवर्तन के कारण हैं । लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या हमारा पुरूष प्रधान समाज आज की कर्मठ नारी को उसकी परम्परागत दीन हीन इमेज से अलग कर पाया है? हमारा पुरूष वर्ग आज की नारी से आशा करता है कि वह पढ़ी लिखी, नौकरी पेशा, घर सम्हालने बच्चों के पालन पोषण व प्रत्येक क्षेत्र में अपने कर्तव्य निर्वाह करने में पूर्ण रूपेण दक्ष एवं प्रवीण हो, लेकिन साथ ही व्यवहार व आचरण में पुराने जमाने सी दबी ढकी व्यक्तित्वहीन भी बनी रहे, जिससे पुरूष के अहं की तुष्टि होती रहे।
परिवर्तनशील जीवन में आधुनिक नारी का परम्परागत इमेज को बनाए रखना वैसे भी असंभव है, क्योंकि संसार में कोई वस्तु दूसरे रूप को प्राप्त हो कर अपने पूर्णरूप से एकदम भिन्न दिखाई देने लगती है। उसका पहला रूप, पहली इमेज इस लगातार परिवर्तनशील समाज में स्थायी कैसे रह सकती है? जैसे एक छोटा सा बीज विकसित होकर फूल के रूप में अभिव्यक्त हो समष्टि को अपनी सुवास से आपूरित कर देता है उसी प्रकार आज नारी विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा और क्षमता को प्रस्फुटित कर पहले से एक नितान्त भिन्न किन्तु सक्षम रूप को प्राप्त हो रही है। निःसन्देह परिवर्तन विकास की पहली शर्त है। जब नारी से विभिन्न क्षेत्रों में विकास की आशा की गई तो उसके दृष्टिकोण, मन मस्तिष्क व विचारधारा में परिवर्तन आया। तदोपरान्त वह विकास की सीढ़ी चढ़ती गई और आज जब वह एक डाक्टर, प्रोफेसर, आई. ए. एस. अधिकारी, इंजीनियर, वकील या पुलिस अधिकारी के रूप में सामने आई तो उसकी परम्परागत इमेज स्वतः ही धूमिल होती गई। उसकी आधुनिक इमेज का तात्पर्य यह नहीं कि उसकी मूल प्रकृति ही बदल गई। पुरूष के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने का तात्पर्य यह नहीं कि नारी के भीतर विद्यमान माँ की ममता, पत्नी का प्रेमल रूप या बहिन का कोमल स्नेह जड़ हो गया है, वरन अंतरतम में नारी इन्हीं रूपों में जीती हुई अति संवेदनशील बनी हुई है।
बौद्धिक दृष्टि से नारी आज भले ही पुरूष के समान मानसिक स्तर को प्राप्त हो गई है, लेकिन शारीरिक दृष्टि से वह सदा की भाँति अबला ही है। पुरूष से पीछे है । यह तो प्रकृति का विधान है, उसे नारी चाहकर भी नहीं बदल सकती। क्योंकि नारी जैसी सशक्त और समर्थ नजर आती है यदि वह सच में उतनी ही सशक्त हो गई होती तो आज दहेज की दुहाई देकर दुल्हनों की होती इस निर्ममता से नहीं जलाई जाती। पुरूष वर्ग द्वारा नारी वर्ग पर अत्याचार समाप्त हो जाता। महानगरों की भीड़ भरी बसों व लोकल ट्रेनों में उसके साथ दुर्व्यवहार न होता। घर में एक माँ, बहिन या पत्नी के रूप में उसे बात बात पर पुरूष वर्ग से अपमान न सहना न पड़ता। इस सारे दमन, शोषण का बार बार एक ही कारण उभर कर सामने आता है - और वह है कि नारी को एक नवीन धरातल पर धकेल कर, पुरूष द्वारा अपनी उस ही परम्परागत, कुण्ठित व विकृत मानसिकता को न बदलना।
यदि अधिक गहराई से विचार किया जाए तो हम पायेगें कि परम्परागत इमेज का अभाव (यानी आधुनिक रूप) तथा उसका होना (यानी परम्परागत दीन दयनीय रूप) दोनों ही नारी पीड़न के कारण हैं। क्योंकि जो पुरूष नारी से यह अपेक्षा करता है कि वह डाक्टर, इंजीनियर या प्रशासनिक अधिकारी बन समाज में उसकी प्रतिष्ठा को चार चाँद लगाये, साथ ही आर्थिक दृष्टि से भी सहायक बने, और जब वह बेटी, पत्नी या बहन, अपने पिता, पति या भाई की इच्छानुरूप बन सामने आती है तो पुरूष गर्व से निःसन्देह फूला नहीं समाता। लेकिन विडम्बना देखिए कि जब वही बेटी, पत्नी या बहिन किसी मुद्दे पर पुरूष का कभी विरोध करती है और अपने विकसित मस्तिष्क के नए क्रान्तिकारी विचारों को उसके समक्ष प्रस्तुत करती है तो पुरूष एकाएक असामान्य हो आगबबूला हो उठता है। कुछ अपवादों को छोड़कर समान्य रूप से पुरूष घर से लेकर समाज के विभिन्नक क्षेत्रों में नारी का दमन व शोषण करता पाया जाता है। कभी कभी तो पुरूष का अहं नारी की परम्परागत दीन- हीन छवि से आधुनिक समर्थ व सशक्त रूप की तुलना कर इतना विकृत हो उठता है कि यह उसके प्राण लेने से भी नहीं चूकता। दूसरी ऒर, जो नारी आज भी अपने परम्परागत रूप में जी रही है, वह अपने दुर्बल, असहाय व निरीह से रूप के कारण पुरूष को शोषण व उत्पीड़न का कारण बनती है। ऐसी स्त्री को तो पुरूष अकारण ही समय समय पर अपमानित करता है, तथा उसे अनपेक्षित वस्तु की संज्ञा दे तरह तरह से उपेक्षित कर चोट पहुँचाता है। अतः नारी का दोनों ही रूपों में शोषण है।
अब प्रश्न उठता है कि नारी की इस दशा के लिए नारी स्वयं उत्तरदायी है या हमारी पुरूष प्रधान समाज ? या नारी का पुरूष से हर कार्यक्षेत्र में आगे बढ़ते जाने के कारण, चोट खाया पुरूष का अहं ? पुरूष वर्ग यह क्यों नहीं सोचता कि एक मानसिक, बौद्धिक दृष्टि से उन्नत व विकसित नारी, अविकसित व जड़ बौद्धिक स्तर वाली नारी की भाँति पुरूष की प्रताड़ना, उसका अन्याय कैसे सह सकती है ? या तो उसे पहले जैसा ही अनपढ़, अविकसित रहने दिया जाता, तब तो वह सीमाऒं में बंधी, सब ऒर से अपने को निवर्तित किए, एक कठपुतली की तरह जी सकती थी। लेकिन आज नारी की क्षमताऒं व प्रतिभाऒं को प्रत्येक क्षेत्र में उभरकर उससे कठपुतली बने रहने की अपेक्षा करना पुरूष के अहंकारी व अन्यायी दृष्टिकोण का परिचायक नहीं तो और क्या है ?
वास्तव में आज नारी समय की जरूरत के कारण अपनी परम्परागत इमेज से अलग हो जाने पर भी, पुरूष की अहंमयंता के कारण पूर्णतया उससे अलग नहीं हो पाई है। अप्रत्यक्ष रूप से हमारा पुरूष वर्ग आज भी उसे उस परम्परागत रूप से जोड़े रखना चाहता है। निःसन्देह इन दो पाटों के बीच पिसने वाले घुन से कम दयनीय नहीं है। इस दयनीय दशा से मुक्त होने हेतु नारी वर्ग में जो संघर्ष व्याप्त है वह तब तक जारी रहेगा जब तक कि पुरूष वर्ग नारी के प्रति अपने दृष्टिकोण को नहीं बदलता।