Sunday, July 18, 2010

अकेले होने की ज़मीनी सच्चाइयाँ

सृष्टि सृजन की मूल ( प्रकृति और पुरुष के संयोग से नारी इस समूची सृष्टि की नींव रूपा मानी गई है )
घर - परिवार की धुरी , जन्मदात्री होने के कारण धरती को जीवन से स्पंदित करने वाली , अनेक प्रकार की रचनात्मकता की शिलाधार ‘औरत’ खुद कितनी निराधार और जमीन से उखड़ी हुई महसूस करती है जब उसे अकेले जीवन जीना पड़ता है .
सदियों से इस समाज के नियम कायदों से परे प्रकृति ने नारी और पुरुष को एक दूसरे के पूरक के रूप में कुछ सहज स्वभाव, गुण और प्रवृतियाँ प्रदान की और उनके आधार पर स्वतः दोनों का ‘कर्त्तव्य-विधान’ रूपाकार लेता गया . सृष्टि रचना के आरम्भ से ही नारी स्वभाव से ही अधिक संवेदनशील, भावुक , करुणामयी और सहनशील रही , तो पुरुष उसकी तुलना में अधिक व्यवहारिक, कठोर, कम संवेदनशील, और कम भावुक रहा.
नारी ‘अबला’ की अवधारणा के कारण नहीं बल्कि अपने सहज संवेदनशील , सुकुमार स्वभाव के कारण पुरुष पर अवलम्बित होने को बाध्य होती है . उसके सान्निध्य से मिलने वाला सुरक्षा , सुकून और सुख का एहसास उसके नारीत्व को पूर्णता देता है .यों पुरुष भी नारी के बिना अधूरा होता है भले ही उसका ‘अहंकार’ उसे यह मानने से रोके लेकिन उसके जीवन को पूर्णता के चरम बिंदु पर पहुँचाने वाली नारी ही है. उसके बिना वह आधा अधूरा है .
किसी पुरुष को यदि कारणवश अकेले जीवन जीना पड़ जाए तो अकेलापन तो वह भी निश्चितरूप से महसूस करता है – आखिर वह भी इंसान है, लेकिन नारी की तरह वह उस अकेलेपन से टूटता नहीं , वरन स्वयं को अनेक सही - गलत तरीकों से सुख से सराबोर करने की जोड़ तोड़ में लग जाता है . यह उसकी प्रवृति है , सहज स्वभाव है . उसकी आंतरिक पुरुष प्रवृतियाँ उसे ऐसा करने को मजबूर करती हैं .
यह सच है कि नारी में साहस , ऊर्जा और सुलझे सोच विचार की कमी नहीं होती बल्कि जीवन के अनेक कगारों पर वह पुरुषों से भी अधिक साहसी और हिम्मतवाली सिध्द होती रही है - चाहे वह दुःख - तकलीफ झेलने का साहस हो या पिता का घर छोड़ कर पति के घर को सम्हालते हुए नया जीवन शुरू करने का साहस हो, या सुबह से उठकर एक साथ कई कामों को करने का साहस हो, या बदलते समय के साथ पत्नी और माँ की जिम्मेदारियों के साथ नौकरी की जिम्मेदारी सम्हालने का साहस हो, या विपरीत परिस्थितियों में सबका मनोबल बनाए रखने का साहस हो, निर्विवादरूप से यह ‘साहस’ तत्व नारी में पुरुष की अपेक्षा कई गुना अधिक होता है . बल्कि ‘पौरुष’ का प्रतीक पुरुष अक्सर घर - परिवार से लेकर बाह्य जगत तक जरा सी परेशानी में भी खीजता, झुंझलाता, भावनात्मक असुरक्षा का शिकार हो – बच्चे की तरह चीखता चिल्लाता नज़र आता है और उसके इस उबाल का शिकार होती रही है नारी – कभी माँ के रूप में, तो कभी बहन, कभी बेटी और कभी अनंतिम - पत्नी रूप में. औरत को पत्नी के रूप में पाकर तो जैसे पुरुष को उस पर हर कुरूप और नकारात्मक ज्वार को उगलने का लाइसेंस मिल जाता है. खैर, यदि दुर्भाग्य से पुरुष नारी विहीन है तो वह शराब और सिगरेट के सहारे अपने अकेलेपन का विरेचन करता नजर आता है. उसका इस तरह बिफरना और बिखरना उसके पौरुष पर निश्चित ही प्रश्नचिन्ह लगाता है.
जीवन के हर कगार , हर परिस्थिति में अदम्य धैर्य और साहस से ऊर्जित नारी जब प्रकृति द्वारा रचित नियम और प्रवाह के प्रतिकूल पुरुष के बिना , अकेले जीने की यातना से गुजरती है तो वह एक साथ आंतरिक भावनात्मक वेदना और बाहरी दुनिया के झंझावातों से जूझने को विवश होती है. जूझती जाती है और जीती जाती है. नारी के सहज स्वभाव के विरुध्द यह जुझारू जीवन शैली पग-पग पर उसे तोड़ती है, जैसे उसे तौलती है., उसकी परीक्षा लेती है. इस तरह उसका जीवन एक अनवरत संघर्ष बनकर रह जाता है. एक ओर पुरुष का अभाव उसे सालता है तो दूसरी ओर समाज उसे घालता है.
मैंने तलाकशुदा होने के कारण अकेलेपन के सन्नाटे और संघर्षों की त्रासदी को जिस तरह झेला है उसे शब्दों में ढालना मुश्किल ही नहीं , असम्भव है . कहा जाता है कि विपरीत परिस्थितियाँ इंसान के अंदर छुपी क्षमताओं को उभार देती है. ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ. अन्दर से उपजी कतरा-कतरा हिम्मत के साथ-साथ, संभवत: आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के कारण विकट हालातों में भी मेरा मनोबल बना रहा. फिर भी अक्सर मैं असुरक्षा के भंवर में डूबती उतराती रहती . अपने मासूम बेटे और बेटी को देख कर, उनकी सुरक्षा की भावना से सक्रिय हुई . मैं सब कुछ भूल कर सामने मुंह बाई समस्या से जंग करने में जुट जाती थी और समाधान होने पर ही चैन की साँस लेती. पर मानसिक और शारीरिक शक्ति खर्च होने पर , चैन के क्षणों में इतनी असहाय, निरीह और कमजोर महसूस करने लगती कि सुकून का ,चैन का सुख भी न उठा पाती. एक खुश्क खालीपन मुझे घेरे रहता. लेकिन कुछ समय बाद फिर अपने को समेटती , अगली सुबह सहज ही उपजी शक्ति और ऊर्जा को संजोए दिन के शुरुआत करती . ऐसे में अकेलापन मुझे भयावह लगा .
संवेदनशीलता यदि एक ओर उदात्त गुण है तो दूसरी ओर यह रुलाता, झिकाता भी बहुत है. इसने मुझे जीवन में हमेशा कमज़ोर बनाया , मूर्ख बनाया और धोखों से रूबरू करवाया. फिर धीरे-धीरे व्यवहारिक बुद्धि ने पाठ पढ़ाया और बीतते समय के साथ संवेदनशीलता व व्यवहारिक बुद्धि के संतुलित पहियों पर जीवन का एक सुघड़ ढर्रा बना . घर में बच्चों के खाने-पीने , उनके भावनात्मक और शारीरिक स्वास्थ्य लेकर उनका एडमीशन कराने , उन्हें होमवर्क कराने तक के सारे छोटे बड़े काम मैं बड़ी जिम्मेदारी और कुशलता से ज़रूर करती पर दिन के अंत में एक असुरक्षा और खालीपन फिर मुझ पर हावी हो जाता. बेचारगी का भाव आँखों और चहरे पर तिर आता. पर बच्चों पर अपने ये भाव ज़ाहिर न होने देने का भरसक प्रयत्न करती. उनकी माँ होने के साथ – साथ मैं उनका पिता भी बनती. पिता की भूमिका में उनके लिए अच्छे स्कूल का चयन, दाखिले की भागदौड़, उनकी रूचि के अनुसार विषयों के चयन में मदद, फ़िर कॉपी किताब, स्कूल ड्रेस खरीदना, पढाई के अलावा अन्य रचनात्मक गतिविधियों के लिए उन्हें प्रोत्साहित कर, उनका मनोबल बढ़ाना – ये सब करते मैं जरा न थकती. फिर माँ के खोल में घुसते ही मैं दोनों के लिए उनकी मनपसंद चीज़े पकाने के साथ-साथ, उन्हें चुमकारती-पुचकारती अच्छे बुरे की पहचान करने की और साहसी व निर्भय बनाने की सीख देती जाती. सोने से पहले मुझसे कहानी सुनना दोनों का अटल नियम था . जैसे – जैसे वे बड़े होते गए, उनकी हर उलझन में उनके साथ चट्टान की तरह खड़ी हो जाती. जीवट से दोहरी भूमिकाएं निबाहती वही मैं अपनी समस्याओं में उलझ कर टूटने लगती, तितर- बितर होने लगती. विश्वविद्यालय की विभागीय राजनीति से अपना दामन बचाने की चाणक्य कूटनीति मुझे कभी समझ न आ सकी. क्लास में जाकर, विषय में डूबकर छात्रों को पढाने तक मेरी दुनिया सिमटी होती या फिर रचनात्मक गतिविधियों में उनके साथ लगी रहती. अगर कभी कोई साथी कहता कि विभाग में फलां के खिलाफ मुझे उसका साथ देना है तो मेरा दिल बैठने लगता, तरह - तरह की शंकाएं मुंह बाये मुझे डरातीं कि सच्चाई क्या है, कौन मक्कारी का मुखौटा लगाए है, कौन सच में निर्दोष है – इन सब पचड़ो में न पड़कर मैं अकेली होने के कारण अपनी शक्ति और ऊर्जा बच्चों के लिए संजों कर रखना चाहती थी. प्राचार्य, अध्यक्ष व साथियों के राजनितिक चक्रव्यूह में न पड़कर, ईमानदारी से अपना काम करते हुए, अपने उसूलों पर कायम रहना चाहती. व्यर्थ की जोड़-तोड़, छीछालेदर के सड़ान्ध भरे तालाब में रहकर , अपनी साँसें कायम रखना , नौकरी बनाए रखना, एक अजीबोगरीब रस्साकशी होती थी मेरे लिए. मेरी इस जंग का सिलसिला तो विश्वविद्यालय से लेकर मंत्रालय तक की नौकरी में बराबर चलता रहा.
मैंने अकेले होने का सबसे अधिक खामियाजा झेला व्यक्तिगत और पारिवारिक स्तर पर. बाज़ार जाकर , जांच-परख करके महीने भर का सामान लाने में मेरी रूह कांपती थी. बिजली का फ्यूज उड़ने पर उसे ठीक करना या पडौसी की मदद लेना, मीटर खराब हो जाए, बिजली का बड़ा सा गलत बिल आ जाए, या भारी सामान उठाने-रखने के लिए दूसरों का मुंह तकना पड़े, कार से पेट्रोल लीक होने लगे, कार की डाउन बैटरी को रेज़ देनी हो , सील्ड डिब्बे या बोतल का ढक्कन ज़्यादा कसा हो तो , मैं निरीह सी हो जाती. शाम से रात १०-११ बजे तक का कोई जाने लायक समारोह हो तो, तब तो अकेला होना बेहद अखरता. देर शाम तक आयोजित होने वाले अच्छे-अच्छे कार्यक्रमों को देखने से मैं हमेशा वंचित रही. ऐसे सुन्दर कार्यक्रमों की अगले दिन अखबार में रिपोर्ट पढ़कर ही खुश हो लेती थी. ऐसे में अकेलापन मुझे पीड़ादायक लगा.
जीवन के संघर्षों में अनेक बार जबरदस्ती अपने पर हावी हुए पुरुष मददगारों से मैं बड़ी परेशान रही. चहरे पर छपी उनकी मांसल अपेक्षाएं मुझे सिर से पाँव तक हिला जाती. उनकी मदद मेरे लिए जी का जंजाल बन जाती थी. वैसे तो मैं प्रत्यक्ष सामजिक कारणों व पर पुरुष की अतिशय ख्याल दिखाने की ‘उदारता’ की वजह से मदद ही नहीं लेती थी और कभी मजबूरीवश एक – दो बार मदद ले ली तो ‘उदारमन मददगार’ काम खत्म हो जाने पर भी मदद देने को तैनात रहता. अपने को ज़बरदस्ती मेरा गार्जियन समझने लगता. पहले तो मैं सब्र के घूंट पीती उससे नम्रता से पेश आती रहती लेकिन जब वह ख्याल करने से बाज़ नहीं आता तो मुझे पिंड छुडाने के लिए, मजबूरन उसे सख्ती से रास्ता दिखाना पड़ता. जब मैं भारत सरकार द्वारा दिल्ली के मानव संसाधन विकास मंत्रालय में शिक्षा सलाहकार के पद पर नियुक्त हुई तो विश्वविद्यालय से एकदम अलग ब्यूरोक्रेटिक माहौल से समीकरण बैठाने में मुझे इतना लम्बा समय लगा की तब तक मेरा वहाँ से जाने का समय आ गया. वहाँ का फ़ाइल वर्क, षड्यंत्रों भरा विशुध्द राजनीतिक वातावरण, लोगों का एक इंच मुस्कान लिए मिलना और एक दूसरे की जड़ कटाने की साजिशों में लगे रहना . इस शह और मात के खेल में, मैं मन ही मन घुटती रहती. एक बार तो एक अधिकारी ने मुझ पर बैंगलोर की औफिशियल विजिट पे अपने साथ चलने का इतना दबाव डाला कि मुझे नौकरी जाने का भय लगने लगा. पर उससे अधिक भय मुझे औफिशियल विजिट पे जाने से लग रहा था. बहुत सोच विचार के बाद मैं निदेशक के पास गयी और उनसे खोजबीन कर मालूम किया कि दिल्ली से बाहर की औफिशियल विजिट कितनी ज़रूरी होती हैं. वे बुज़ुर्ग ऑफिसर बड़े अच्छे और सच्चे थे. वे बोले कि – ‘ज़रूरी होती हैं क्योंकि विजिट से एक्सपोज़र मिलता है और तथ्यों की प्रमाणिकता का पता चलता है. लेकिन कोई नहीं जा पाए तो आपका मातहत जाकर, जांच -पडताल कर सकता है और विस्तृत रिपोर्ट लाकर आपको दे सकता है. यह सुनकर मै ऐसी आश्वस्त हुई कि मैंने तुरंत दूसरे अधिकारी को जाकर हिम्मत के साथ बड़ी विनम्रता से मना कर दिया. वे जनाब मुंह बनाते मेरी ‘मनाही’ पर खामोश रहे. शायद उन्हें मेरी मनाही के पीछे झलकते आत्मविश्वास में, मेरी संपूर्ण व सही जानकारी साफ़ नज़र आ रही थी. इस घटना के बाद मैंने उस नाराज़ अधिकारी द्वारा अपनी सी.आर. ( कांफिडेन्शियल रिपोर्ट ) बिगड़वाने की पूरी तैयारी कर ली थी. पर मैंने अपने को आश्वस्त किया कि सी.आर. ही बिगड़ेगी, जीवन तो नहीं बिगड़ेगा . उस दिन मैंने निर्णय कर लिया था कि भविष्य में यदि कभी ऐसा कोई अप्रत्याशित पहाड़ मुझ पर कभी टूटने को हुआ तो , मैं उस पहाड़ को तर्जनी दिखा कर, अपनी विश्वविद्यालय की नौकरी पर डेप्युटेशन की अवधी से पहले ही वापिस चली जाऊंगी, पर गलत लोगों, गलत जीवन शैली से कभी समझौता नहीं करूंगी . ऐसे में अकेलापन मुझे कसैलेपन से भर-भर गया और विकृतियों को न्योतने वाला लगा.
एक बार बेटे के स्कूल में अभिभावकों के लिए विशेष रूप से आयोजित ‘त्वरित काव्य रचना’ और ‘चित्रकला’ प्रतियोगिता में भाग लेने से मैं इसलिए वंचित रही, क्योंकि मैं जीवनसाथी रहित थी – अकेली थी. जबकि इन दोनों ही विषयों में, मैं सिध्दहस्त थी. उस दिन मैं मन मसोस कर दूसरे मातापिता को काव्य रचना और चित्रकला के लिए लड़खड़ाते , जंग करते देखती रही और अपने अकेलेपन का शोक मनाती रही. न जाने क्यों इतनी छोटी सी बात के लिए मेरे अन्दर ही अन्दर रुलाई फूटती रही. उस दिन अकेलापन मुझे शूल जैसा चुभन भरा लगा.
इसी तरह , एक बार मैं तेज बुखार से तप रही थी. सर दर्द से फटा जा रहा था. दोनों बच्चे छोटे नहीं तो इतने बडे भी नहीं थे कि मेरी बीमारी में क्षीण मनोबल हुए बिना, मेरी सेवा टहल कर सकते. बीमारी के उन ‘असहाय पलों’ में अपने दोनों बच्चों के लिए मेरी ममता और भी उमड़ पडी थी. लेकिन आशा के विपरीत उस ज़रूरत के समय में दोनों बच्चों ने जिस ख्याल, प्यार और जिम्मेदारी से मेरी सेवा की थी, उससे मुझे लगा कि बच्चे एकाएक बड़े हो गए हैं. उस दिन अनजाने ही मेरे होनहार बच्चों को कुछ अमूल्य खूबियों से लबरेज़ कर देनेवाला अकेलापन मुझे अद्भुत शक्ति से भरपूर लगा था.
जीवन की ढेर सारी विषमताओं के बावजूद अपने वजूद को साबुत बनाए रखना, जंग जीतने से कम नहीं होता. शुरू - शुरू में अकेले होने के खौफ से भरी मैं , इसके उस सकारात्मक पक्ष को नहीं देख पाती थी जो जीवन की आँधियों में भी मुझे जीने की शक्ति देता था, संघर्षों का सामना करने का साहस जगाता था, मेरे अंदर छुपी क्षमताओं को तराशता था. ऐसे क्षणों मुझे इस अकेलेपन पे नाज़ होता था.
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