ज़मीनी सच्चाइयों से रूबरू कराती ‘फेसबुक’: ‘‘आम औरत - जिंदा सवाल’’
( समीक्षापरक आलेख)
जीवन के हर मोड़ पर अपनी पहचान को तलाशती, नारी होने का जैसे दंड भोगती सी हर आम और खास औरत के लिए, ज़िंदगी इस सृष्टि की शुरुआत से एक ऐसा सवाल बन के उभरती रही है, जिसका कोई हल आज तक उसे नहीं मिल पाया I रामायण, महाभारत युग से नारी जीवन से जुड़े प्रश्न ‘चिरजीवी’ बने हुए आज २१वीं सदी में भी ज्यों के त्यों मुंह बाए खड़े हैं I नारी जीवन से जुड़े गंभीर सवालों को खंगालकर, फिर उसमें से एक -एक सवाल को खोल कर सामने रखती - ‘सुधा अरोड़ा’ की पुस्तक ‘आम औरत और ज़िंदा सवाल’ नारी विमर्श की प्रामाणिक दास्तान कहती है I पुस्तक में क्रमश: पांच अनुच्छेद हैं - आत्मकथ्य, वामा स्तंभ, आलेख, मीडिया में औरत, और धर्म और औरत I
आत्मकथ्य से लेकर अंतिम अनुच्छेद तक पुस्तक को भलीभांति सोचविचार के बाद, यथाक्रम बांधा गया है I ’आत्मकथ्य’ में बेहद सुरुचिपूर्ण ढंग से हृदयग्राही शैली में लेखिका ने अपने लेखकीय जीवन के बीजारोपण से लेकर उसके सहज पल्लवन तक की विकास यात्रा के पन्ने पाठक के सामने बड़े सहेज कर पलटे हैं I
सुधा जी ने किशोरावस्था में ही , जब वे मुश्किल से १७ – १८ साल की रही होंगी , लिखना शुरू कर दिया था और उनकी पहली कहानी ‘एक सेंटीमेंटल डायरी की मौत’ १९६६ में ‘सारिका‘ में प्रकाशित हुई थी I बकौल लेखिका -’मुझे उसने ( प्रकाशित कहानी ने ) बाकायदा धमकी दे डाली थी – खबरदार, जो अब डायरी के पन्नों पे रोना धोना किया I ’
(पृ. 13)
फिर तो जैसे उनके अंदर से कहानियों का सैलाब उमड़ पड़ा I सन 1964 से लेक 1966 तक उन्होंने बीस इक्कीस कहानियां लिख डालीं I
‘’ कहानियाँ लिखना उस मरगिल्ली सी काया में प्राण फूंक रहा था.उसे जीने का और अपनी बीमारी से लड़ने का एक कारण मिल गया I ‘’ (पृ. 14)
उस कोरी भावुकता भरी कच्ची उम्र में अकारण ही उमड़ उमड़ पड़ने वाला प्यार का, रुलाई का अतिरेक - यहाँ तक कि कभी - कभी ‘आत्मघात’ के शिकंजे में भी आ जाना, फिर उसका एकाएक गायब हो जाना, इन सबसे गुज़रती सुधा जी के अंदर छुपी सशक्त, तेजस्वी, मेधावी, रचनाशील लेखिका, उनके सहमे, डरे, निराशा व अकारण ही अकर्मण्यता से घिरे बाह्य व्यक्ति से जूझती, उन्हें भावनाओं के गुबार से उबार कर कुछ अर्थपूर्ण लिखने को झिंझोड़ती , धमकाती तो कभी पुचकारती और इस तरह किशोरावस्था की कश्मकश और जंग में धीरे धीरे उनमे से वह दमदार लेखिका निकली जिसने आंसुओं और कोरी भावनाओं में लिपटी कलम को तिलांजलि देकर, आनेवाले समय में ज़मीन से जुडी ज़िंदगी पे कलम गड़ा कर लिखना शुरू कर दिया I दुनिया , समाज , जीवन की धुरी - ‘नारी’ पर सुधा जी की कलम विशेष रूप से केंद्रित हो गई. कारण - भावनाओं और संवेदनाओं से लबरेज़ ‘दिल’ और किसी भी तरह के अन्याय और शोषण के खिलाफ विद्रोह करने को तैयार तर्क - वितर्क युक्त ‘दिमाग’, समय के साथ अपने आसपास व समाज में हर ओर घटते ‘नारी उत्पीडन’ से जाकर आत्मसात हो गया I इस तरह उनकी कलम सुकुमार कविताओं से भावुकतापूर्ण कहानियों और फिर जीवन की सच्चाईयों से भरी कहानियों पे धाराप्रवाह चलती हुई, पूरी ताकत के साथ हुमक कर ‘नारी-विमर्श’ पर पैनेपन के साथ चलने लगी I फिर तो नारी-विमर्श जैसे उनका, उनके लेखन, उनकी सामजिक गतिविधियों का पर्याय बन गया I
उत्तरोत्तर जीवंत होती अपनी लेखिनी के सन्दर्भ में सुधा जी ने स्पष्ट इस बात को स्वीकारा है कि लेखन की दूसरी पारी में ‘हेल्प संस्था’ का बहुत ‘सकारात्मक योगदान’ रहा. इस विषय में वे लिखती हैं –
‘’इसमें संदेह नहीं कि अगर ‘हेल्प’ की दुनिया से मेरा परिचय न हुआ होता और मैंने दोबारा लिखना शुरू न किया होता तो मैं आम घरेलू गृहिणी की तरह x x x x x एक सफल पति के घर की चारदीवारी में कैद, बेहद कुंठित, बात - बात में झल्लानेवाली, बाहर की दुनिया से मुंह छिपाने वाली एक सिजोफ्रेनिक पत्नी होती, जो अपने पति के सरनेम से जानी जाती I’’ (पृ. ३९)
लेखन में और लेखन के बाहर भी पीडित नारियों की काऊंसलिंग के माध्यम से नारी जीवन से जुडी समस्याओं से जूझना उनके जीवन का लक्ष्य बनता गया I इस जुझारु रुझान से तप कर निकली यह पुस्तक ‘आम औरत और ज़िंदा सवाल’ I इस पुस्तक के सभी अध्यायों में औरतों से जुड़े मुद्दों को जिस व्यवस्थित ढंग से पुस्तक रूप में संजोया गया है, औरतों से जुडी ज़मीनी सच्चाईयों से रूबरू कराया गया है,उनकी ओर पाठकों का ध्यान खींचा गया है तथा आततायी पुरुषों का जो पर्दाफाश किया गया है, वह चौंका देने वाला है, अकल्पनीय है - पर सरापा हकीकत ही हकीकत है I
नारी की उखडी अस्मिता और इयत्ता की जड़ो को फिर से रोपने की कटिबध्दता से कृतसंकल्प सुधा जी ने दूसरे अनुच्छेद – ‘वामा’ स्तंभ में विविध घटनाओ और किस्सों को मनोवैज्ञानिक व प्रामाणिक ढंग से प्रस्तुत किया है - जैसे राजस्थान के ‘भटेरी’ गाँव की ‘भंवरी देवी’ की दास्तान, समाज के उस क्रूर व आततायी रूप का खुलासा करती है, जो स्त्री के साथ जानवर से भी बदतर सुलूक करता है I भंवरी को कलंकिनी, वेश्या, झूठी करार करके, उसके मुंह पे कालिख पुतवा कर ज़िंदा जला देने की ‘केहडी पंचायत’ के सरपंच की वीभत्स घोषणा आज भी ‘पुरुष वर्चस्व’ की कथा बांचती नज़र आती है I यदि भंवरी के पक्ष में प्रमिला दंडवते, अहिल्यारांगनेकर, सुधा कारखानिस और रिंकी भट्टाचार्य आदि सहित अन्य १५-२० महिला संगठन न उठ खड़े हुए होते तो - सरपंच की उक्त नृशंस घोषणा को क्रियान्वित होते देर न लगती क्योंकि सच्चाई पे परदा डालते हुए, पंचायत से लेकर जयपुर सेशन कोर्ट तक का फैसला ‘भंवरी देवी’ के खिलाफ था I पंचायत से लेकर जयपुर सेशन कोर्ट तक पसरे पुरुष वर्चस्व के अन्यायपूर्ण रवैये के कारण ही बलात्कारी ‘बेगुनाह प्रमाणित कर’ बाइज़्ज़त बरी कर दिए गए I
इसी तरह ‘रूपकंवर’ के गुनाहगारों का आँख मीचकर पक्ष लिया गया और वह लपटों की बलि चढ़ा दी गई I महाराष्ट्र की आदिवासी लड़की पुलिस कस्टडी में दो लोगो की हवस का निवाला बनी, पर अंतत: गुनाहगारों को दंड नहीं मिला I ऐसे ही उत्तर प्रदेश में मुरादाबाद की ‘किसनवती’ को निर्वस्त्र कर, घुमाने पर भी उच्चवर्णीय जाटों के खिलाफ कोई भी कार्यवाही नहीं हुई I अगर गंभीरता से, गहराई से महसूस किया जाए तो भंवरी के साथ बलात्कार समूची समाज व्यवस्था के साथ बलात्कार है I किसनवती को निर्वस्त्र किया जाना, पूरे समाज को निर्वस्त्र किया जाना है I‘रूपकंवर’ का जलाया जाना, मानवीयता को जला कर राख करना है I हर केस में गुनाहगारों को सजा न मिलना, मानो क़ानून व्यवस्था द्वारा खुद का मखौल बनाना है और अपने को लचर सिध्द करना है. I औरत के शारीरिक शोषण, शारीरिक दोहन के सिर्फ भारत में ही नहीं, वरन समूचे विश्व में न जाने कितने दिल दहला देने वाले उदाहरण भरे पडे है I जैसे इसी पुस्तक में दर्ज पाकिस्तान की साफिया का केस. साफिया का अंधा होना, उसको मिलने वाले न्याय के आड़े आ गया, लेकिन क़ानून तो हज़ार सैक्शन वाली ऎसी पैनी आँखों का होता है कि बंद दरवाजों के पीछे घटे अपराध को भी दरवाजे चीर कर, बाहर खीच निकाल लाता है, तहखानों के अँधेरे में घटे जुर्म को भी ताड़ लेता है, लेकिन विडम्बना कि इस पर भी अंधा बना रहता है I क्यों ? क्योंकि उसकी आँखों में बेइंसाफी, बेईमानी का ‘मोतियाबिंद’ घर किए होता है I तो पहले ऐसे अंधे क़ानून का इलाज करा के उसके अंधेपन को दूर किया जाना चाहिए I किसी मजबूर अंधी औरत पे अंगुली उठाने के बजाय, हर देश का क़ानून पहले अपना ‘रिवीज़न’ करे, तभी वह बेगुनाह और निर्दोष को इन्साफ दे सकेगा, वरना रोज न जाने कितनी भंवरी, कितनी रूपकंवर, कितनी सफिया अन्याय और ज़ुल्म का शिकार होती रहेगीं और रोती, कलपती, मरती रहेगीं I
लेखिका ने नारी उत्पीडन से जुडी विविध घटनाओं को, आदर्शवाद और सहानुभूति की ऐनक लगाकर नहीं देखा, अपितु उनके आसपास उगी यथार्थ की बेतरतीब झाडियों को हटा कर, करीब से उनका बारीक अध्ययन किया है I असहाय बनी, अन्याय झेलती, वेदना पीती उन स्त्रियों के दर्द को महसूस किया है और लेखिका के उसी दर्द की अनुभूति से जन्मी है यह चिंतन-मंथन से गुंथी किताब I पहले दस्तावेज़ में लेखिका समझदारी से भरा सुझाव देती है कि मूल्यों और संस्कारों से सिक्त बेटी को सब कुछ देना - बस, ‘भिक्षापात्र की झोली’ मत देना वरना पढ़ी-लिखी, प्रतिभाशाली लड़की पति के घर में, पति से ‘घर-खर्च’ माँगते माँगते खुद ‘खर्च’ होकर रह जायेगी. घर की मालकिन बनने के बजाय, एक संभ्रांत भिखारी बन कर रह जायेगी I
‘’मध्यम वर्ग हो या उच्च मध्यम वर्ग, आवश्यकता इस बात की है कि आप अपनी बेटी की शादी में सब कुछ दें – अपना तजुर्बा , ऊंचे संस्कार, अच्छी तहजीब, पर अगर आप खुद ताजिंदगी एक घरेलू औरत या गृहिणी रहीं है, तो अपने‘भिक्षापात्र’ को, अपने तक ही सीमित रखें, क्योंकि वह विरासत में देने के लिए नहीं है.’’ (पृ. ४५)
हर औरत आदर्शों, मूल्यों और विनम्रता के खोल में लिपटी, ‘समर्पण और त्याग’ का पर्याय बन कर रह जाती है I उसकी अस्मिता, उसकी इयत्ता, पति के ‘दु;शासन’ के समक्ष उसके खुद के व्यक्तिव से मुट्ठी के रेत की भाँति फिसलती चली जाती है I उसका यह अपने से अपनापन छिनना, उसके आत्मविश्वास को इतना हिला देता है कि वह हर पल, बात बात में डगमगाई रहती है I जैसे पार्किन्सन के मारे की गर्दन हर समय हिलती - कंपकपाती रहती है, ठीक वैसे ही आत्मविश्वास की मारी स्त्री, हर समय कंपकंपायी रहती है I सुधा जी ने एक आलेख में इस सच्चाई को इस तरह बयान किया है –
‘’मध्यम वर्गीय भारतीय परिवार में एक लड़की की कंडीशनिंग इस तरह से की जाती है कि वह शादी के बाद एक लंबा समय दबावों को झेलने और नए परिवार के नए सदस्यों को अनुरूप अपने को ढालने में बिता देती है I अपनी पिछली पहचान को पूरी तरह भुलाते हुए,वह अपने को ‘आदर्श’ सिध्द करने में ही अपनी पूरी ताकत लगा देती है I’’
(पृ. 99 )
‘बेटी संज्ञा, बहू सर्वनाम’ इस चुटीले शीर्षक के तहत, लेखिका ने बुज़ुर्ग व तथाकथित समझदार मानी जाने वाली सास बनी औरतों के दोहरे मानदंडों पर आक्षेप करते हुए कितना सही लिखा है -----
‘’औसत ’मध्यम वर्गीय भारतीय सास की त्रासदी ही यह है कि वह ज़िंदगी भर औरत बनी रहती है,पर सास बनते ही अपना औरत होना भूल जाती है I जिन्हें अपना औरत होना याद रहता है, वे कभी अपनी बहू के प्रति अतार्किक नहीं होतीं, क्योंकि अंतत: एक औरत ही दूसरी औरत की तकलीफ को सही परिप्रेक्ष्य में देखने समझने की दृष्टि रखती है I’’
( पृ. 54 )
‘सती माता की महिमा’ आलेख में सुधाजी ने नारी की ‘सती’ होने के नाम पर होने वाली दुर्दशा का सच उकेरा है I राजस्थान के ‘सीकर’ जिले में होने वाला ‘सती ‘ मेला इस कुप्रथा की महिमा गाता रहा है I सदियों से चली आ रही औरत को ज़िंदा जलाए जाने की यह नृशंस प्रथा तर्क रहित, सीधे-सादे दिमाग वाली राजस्थानी औरतों को इस कदर अपनी गिरफत में ले चुकी है कि वे पूरे जोश खरोश से पति की मृत्यु पर, चिता में उसके साथ जलने को तन, मन से तैयार रहती हैं I
‘’सती के प्रभामंडल से अभिभूत सती मेलों से लौटती हुई महिलाओं में ऎसी जांबाज़ औरतों की कमी नहीं जो इस नश्वर जगत में अमरत्व का ओहदा और सती का महान दर्ज़ा पाने की ललक में पति की चिता पर कूदने का हौसला रखती हैं I’’ - ( पृ. 65 )
इस सन्दर्भ में मेरी अपनी व्याख्या है -वास्तव में ‘सती’ का तात्पर्य ‘सत्य’ का अनुसरण या ‘सत्य’ को उपलब्ध होना है I लेकिन सदियों से औरतों को आग में झोंकने की हिंसक प्रथा ‘सती’ शब्द का यह अर्थ गढने के लिए मुझे प्रेरित कर रही है - जिसे आगे आने वाले शब्दकोषों में दर्ज किया जाना चाहिए कि – ‘’सती का तात्पर्य है - ‘सताई हुई औरत’ जिसे जीते जी तो सुख - चैन है ही नहीं, पर मरते समय भी वह चीख पुकार, चीत्कार के साथ लपटों में झुलसती, जलती, धधकती, यानी - ‘सत - सत’ के मरती है - ऎसी किस्मत की मारी औरत कहलाती है -‘सती’ ‘’ I
कितना दुःख-दर्द, पीड़ा-वेदना भाग्य में लिखा कर लाती है वह...?!! समाज उसे कभी पति के नाम पर, तो कभी बच्चे न जनने के नाम पर, तो कभी एक भी बेटा न पैदा करने के नाम पे सताने से बाज़ नहीं आता I कभी उसके पत्नीत्व की परीक्षा, तो कभी उसके मातृत्व की परीक्षा, बेचारी की परीक्षा का अंत ही नहीं होता I पग-पग पे अंत होता है तो - उसके सुख का, खुशी का, सुकून का, चैन का I इनके अलावा उसके लिए सब अनंत होता है - दुःख, दर्द अन्याय, शोषण, दोहन, प्रताडना, अपमान I मनुस्मृति में औरत की तीनों अवस्थाओं - बाल्यावस्था, यौवनावस्था और वृध्दावस्था में उसके संरक्षण का नहीं, अपितु, ‘परजीवी’ होने का नियम उध्दृत किया गया है I यह एक ऎसी विद्रूप सच्चाई है जिसके तहत नारी को सम्मान पूर्ण संरक्षण’ नहीं दिया जाता अपितु उसका मंद गति से ‘क्षरण’ किया जाता है I और इस तरह बचपन से बुढापे तक आते आते वह पिता, पति और पुत्र के आश्रित रहने की इस कदर आदी हो जाती है कि उसके बिना अपने अस्तिस्व की वह कल्पना करना ही बिसार चुकी होती है I उसका इस तरह लालन-पालन किया जाता है कि वह शारीरिक, मानसिक और सबसे अधिक भावनात्मक रूप से परजीवी बन जाती है I भले ही घर बाहर के सारे काम वह कितनी ही योग्यता और सुघडता से करती हो, पर उसे अकेले जीना त्रासदायक लगता है I भावनात्मक रूप से वह पुरुष पर निर्भर रहना चाहती है, चाहे वह पिता हो, पति हो या पुत्र इससे उसका मनोबल बढता है, भावनाएं पोषित है और वह सबल और सशक्त महसूस करती है I पहले अनुच्छेद का अंतिम, पर अनंतिम आलेख ‘ कलाकार के सौ गुनाह माफ हैं ’ हर किसी को पढना चाहिए -अपने अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए I लेखिका ने इसके अंतर्गत बड़ी महत्वपूर्ण जानकारी दी है कि अक्सर बड़े बड़े ख्याति प्राप्त लेखक दो विपरीत व्यक्तित्व ओढ़े हुए दोहरा जीवन जीते है I दुनियावी व्यवहार के कारण थोड़े बहुत दोहरे व्यक्तित्व को अपनाने की छूट हर किसी को है I जैसे घर में हम एक आज़ाद, मस्त मूड में स्वेच्छा से रहते हैं, लेकिन जब हम बाहर की दुनिया में कहीं जाते आते हैं तो सामाजिक सभ्यता, उचित आचार- व्यवहार की पूर्ण औपचारिकता बरतते है I हमें व्यवहार का यह दोहरापन सामाजिक सद्भावना की दृष्टि से अपनाना होता है I हमारे इन दो तरह के व्यवहारों में जमीन आसमान जैसा अंतर कतई नहीं होता, अपितु वह अंतर बेहद सूक्ष्म होता है – और जिसकी , नैतिकता और अनुशासन के तहत हर इंसान से अपेक्षा भी की जाती है I लेकिन बड़े बड़े ख्याति प्राप्त लेखक व कलाकार के दोहरे व्यक्तित्व तो परस्पर इतने विपरीत होते हैं कि दूसरा व्यक्ति देखकर हैरत में ही पड़ जाए I एक व्यक्तित्व सवेदनशील, मननशील , भावुक रचनाकार का , तो दूसरा चोला - एक चरित्रहीन, लम्पट व्यक्ति का I इस संबंध में लेखिका ने बड़े भेदिया सूत्र तार-तार खोले हैं I उन्होंने बताया है कि – ‘’आस्कर वाइल्ड से लेकर वादलेयर तक ने कलाकार के असाधारण तरीके से जीने की हिमायत की है I सामान्य ढर्रे से बंधा हुआ जीवन किसी भी कलाकार को स्थितियों का गुलाम बना देता है, ज़रूरी है कि वह जीने के सामान्य ढाँचे को ध्वस्त करे I यह भी कहा गया है कि कलाकार में लुम्पन तत्व होना ही चाहिए I अगर वह थोड़ा आवारा नहीं है, ख़ूबसूरत औरत को देखकर उसमें, उसके साथ की इच्छा नहीं जागती तो, वह सही मायने में कलाकार नहीं है I
( पृ.129 )
यह एक परिचर्चा का विषय है कि ‘’लम्पटता और रचनात्मकता’’ का क्या चोली दामन का साथ है ? यदि किसी भी लेखक/ कलाकार के लिए स्वच्छंद जीवन शैली, उत्कृष्ट कोटि की रचनात्मकता के लिए इतनी ही अनिवार्य है, तो बेचारे प्रेमचंद तो आजकल के ‘महान रचनाकारों‘ से बहुत पिछडे हुए थे I वे तो एय्याशी, भोग-विलास से कोसो दूर थे I आश्चर्य की बात - फिर भी कालजयी साहित्य दे गए !! सूर, कबीर, तुलसी, प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त ये सब ‘लम्पटता की बातों’ में आजकल के कवियों और साहित्यकारों से बहुत पिछडे हुए थे I ये लोग सृजन ऊर्जा कहाँ से लेते थे ?
समझदार को इशारा काफी कि आजकल के रचनाकारों की ये सब दलीलें मात्र शोशेबाजी के सिवाय और कुछ नहीं है I उन्हें लम्पटता का बहाना चाहिए,सो रचनात्मकता को ही अपने निकृष्ट व्यक्तित्व की ढाल बना लिया I फिर भी प्रेमचंद और प्रसाद की तरह कुछ भी उम्दा न दे पाए I अब ज़रा ये दोहरे लोग अपनी दलीलो की सार्थकता को टटोलें और अपने मुंह पर हाथ फेर कर देखें कि उनक ये गिरगिटी तेवर किसको मूर्ख बनाने के लिए हैं ?
‘आत्महत्या से उभरे सवाल’, ‘औरत होने की सज़ा एक है’, ‘विकृति की बलिवेदी’, ‘सामंती गढों में सेध’, ‘सपनों की पोटली और पैरों तले ज़मीन’, ‘दबा ज्वालामुखी - फूटता लावा’ से लेकर ‘कलाकार के सौ गुनाह माफ’ तक औरत की त्रासदी के मल्टीडायमेन्शनल प्रतिबिम्ब बड़ी सच्चाई के साथ उभर कर आए है, जो पाठक को गंभीरता से सोचने के कई सूत्र थमा देते है I
इसी तरह तीसरे अनुच्छेद में - ‘’आक्रामकता के खिलाफ, एक आम औरत की आवाज़, जिसके निशान नहीं दिखते, मिथ और तथ्य,एक सपने की मौत, औरत को डायन और पागल ठहराने के पीछे, न्यायापालिका के इतिहास का खुरदुरा पन्ना’’ - इन विविध सच्ची घटनाओं के हवाले से, लेखिका ने सबके बीच होकर भी अकेली,असहाय, उदभ्रांत उस स्त्री के शारीरिक और मानसिक शोषण, भावनात्मक दोहन, पारिवारिक एवं सामाजिक संत्रास का ब्यौरा दिया है जो बेटी, बहन, पत्नी, माँ सब कुछ है, अगर नहीं है तो बस ‘इंसान’ नहीं है, मानवी नहीं है I चलती फिरती, कर्त्तव्य निबाहती एक मशीन है,जो यदि कर्त्तव्यवहन में कभी किसी तरह की कोताही कर बैठे तो ताड़ना, आलोचना और अमानवीय बर्ताव का शिकार बनती है I जो विचारशील समाजशास्त्री, समाज-सेवी संगठन, महिला संगठन, प्रताडित, अन्याय का शिकार हुई नारी की पैरवी भी करते हैं तो उनके प्रयास अस्थाई रूप से एक सीमा तक कारगर तो सिध्द होते है,लेकिन अंतत: उनकी आवाज़, उनका विद्रोह भी सदियों से चली आ रही सामाजिक रीतियों, रस्मों - रिवाज़ और परम्पराओं के विशाल समुद्र में गुम होकर रह जाता है I नतीजा - वही ‘ढाक के तीन पात’ I कुछ समय बाद फिर कोई भंवरी देवी, कोई किसनवती, कोई रूपकंवर कराहती, बिलखती उभर कर आती है,फिर वही नारी संत्रास और प्रताडना का इतिहास अपने को दोहराता है,’बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत बोलो’ मानो ये नियम - सिर्फ और सिर्फ औरत पे लागू कर देना चाहता है समाज I यह नहीं कहा जा सकता कि बदलाव नहीं आया है, पर वह इतना निरीह, सूक्ष्म और बेदम है कि उसका नामोंनिशाँ ही नज़र नहीं आता I नारी उत्थान, नारी अधिकारों को लेकर समाज का यदि एक फलक चेतानापूर्ण करवट लेता है, तो शेष पुरुषवादी फलक बदले में कई गुना तीखे और दबंग होकर मोर्चे पे डटे नज़र आते हैं I सो नारी से जुडा क्षीणकाय परिवर्तन ‘नहीं’ के बराबर रह जाता है I शिक्षित, शिष्ट, संभ्रांत, विचारशील पुरुष वर्ग जो जीवन से जुडी अनेक इकाईयों के प्रति प्रगतिशील एवं उदार है, वह ‘नारी रूपी इकाई’ के प्रति अनुदार और दकियानूसी ही बना रहता है I स्त्री को इंसान का दर्ज़ा देकर, खुली हवा में सांस लेने कि छूट देते, बलिष्ठ और साहसी पुरुष को शायद या तो असुरक्षा महसूस होने लगती है या मानहानि लगती है I मुझे आज तक पुरुष वर्ग की यह मानसिकता समझ नहीं आई I नारी पग-पग पे, पल-पल पुरुष के प्यार, ख्याल से अपने को तनिक भी अलग नहीं करती - उसके इस भावनात्मक लगाव, सघन प्रेम के बावजूद भी पुरुष भयाक्रांत रहता है कि नारी को आज़ाद इंसान का दर्ज़ा दिया नहीं कि वह ‘राज’ करने लगेगी या उसके हाथों से निकल जाएगी.... ये भ्रांतियां क्योंकर पुरुष को सताती है ? जबकि वस्तुस्थिति ठीक इसके विपरीत है I नारी घरेलू हो या कामकाजी, वह घर - बाहर के सारे काम अपनी क्षमता से अधिक ‘उफ़’ किए बिना, सहर्ष संभालती है, आफिस टाइम खत्म होते ही,पति और बच्चों के ख्याल से भरी तुरंत घर की ओर लपकती है, फिर भी उसे किसी बात का श्रेय नहीं दिया जाता I जबकि पुरुष इसके विपरीत आफिस से सीधे घर न आकर, दोस्तों के साथ घूमता फिरता, मौज-मस्ती करता देर से घर आता है.उससे यदि देर से आने का कारण कोई पूछ बैठे तो वह इसे अपमान समझ कर उलटे परिवार वालों पे चिल्लाने लगता है I न जाने कैसे खोखलेपन और अन्जानी असुरक्षा से वह बेबात ही घिरा रहता है ? स्वयं जैसा ढीला होता है, वैसा ही ढीला उसका सोच होता है I अपनी इस कुंठित मनोवृति के तहत वह स्त्री को ‘शक के रहस्यमय लेंस’ लगा-लगा कर देखता है I यदि अपनी विकृतियों से गढी सोच को पुरुष, औरत पे इसी तरह थोपता रहा, तो औरत तो कभी भी सुकून से जी नहीं सकेगी, चैन की सांस नहीं ले सकेगी क्योंकि सदियों से समाज के ठेकेदार पुरुष, समाज पे सांप की तरह कुन्डली मारे बैठे हैं I उसी की देखादेखी और उसकी धोखाधड़ी से खीजकर खुदा न खास्ता यदि औरत भी पुरुष के अपनाए रास्ते पे चल पड़ती है तो पुरुष उसे ताडने और फाडने पे उतारू हो जाता है I औरत सीधी राह चलती है तो भी भटका मर्द उसे अपनी तरह सोच कर शक करने से बाज़ नहीं आता I औरत के प्रति यह रवैया कहाँ तक जायज़ है? क्या औरत का दर्ज़ा एक गुलाम का है,या एक बंधक का?आज औरत देह के स्तर पर जो तथाकथित आज़ाद रूप अपनाए नज़र आती है, अगर थोड़ा गहराई से सोचे, उसकी ‘आज़ादी’ के रूप का विश्लेषण करें तो आप पाएगें कि उसे छोटे-छोटे कपडे पहना कर नचाना,गवाना, उसका यौन शोषण करना पुरुष शासित समाज द्वारा औरत के देह-दोहन का प्रमाण है I दो कपडे बदन से चिपकाए वह प्रोडक्ट का विज्ञापन दे रही है, सरकारी, गैर सरकारी प्रतिष्ठानों की परियोजनाओं का प्रचार-प्रसार कर रही है , ये सब विकृत पुरुष मानसिकता का ही विज्ञापन है परोक्ष रूप से I विज्ञापन वाशिंग पाउडर का होता है - कैमरा बार बार फोकस करता है विज्ञापन देती नारी की कमर और नाभि को I नहाने का साबुन हुआ तो फिर तो ‘लक्स’ से मिलने वाली मखमली कोमलता को प्रमाणित करने के नारी के लावण्य से भरपूर अंग प्रत्यंग को दिखाना जैसे विज्ञापन वालों का धर्म हो जाता है I ये विज्ञापन, नन्हे नन्हें कपड़ों में, बाज़ारों में लगे बड़े बड़े होर्डिंग्स में कैद स्त्री आज़ाद कम - पुरुष की गुलाम अधिक नज़र आती है I मधुर भंडारकर की ‘फैशन’ मूवी फैशन जगत की विद्रूपताओं और उसका शिकार हुई नारी की विवशता और विक्षिप्तता की सही कहानी पेश करती है I कहाँ आज़ाद है नारी ? बंधक की तरह उसके इशारों पे नाच रही है क्योंकि कही वह घर का खर्च चलाने के लिए, तो कही, अनाथ होने पर जीविका अर्जन के लिए अपनी इच्छा के खिलाफ जाकर यह सब करने को मजबूर होती है I अधिकतर स्त्रियां नौकरी करने लायक शिक्षा, योग्यता और क्षमता नहीं रखती I उस स्थिति में उनके पास ऐसे पेशों के अलावा और कोई निदान नहीं होता I इसी तरह कुछ अपवादों को छोडकर, कुछ परिवारों में सुशिक्षित और हर तरह से सक्षम पत्नी को इसलिए नौकरी नहीं करने दी जाती कि कहीं कमाऊ बन कर, घर पर हावी न हो जाए, और जो नौकरी की इजाज़त देते हैं, वे उसे जैसे धन उगलने की ए.टी. एम. मशीन समझने लगते हैं I ऐसे में स्त्री का बाहर जाकर नौकरी करना भी पति, अपनी पत्नी के कर्तव्यों में गिनने लगता है I जबकि अपने द्वारा लाई गई कमाई का एहसान वह पत्नी पर थोपने से बाज़ नहीं आता I दफ्तर की टेंशन, थकावट, काम का बोझ, न जाने क्या - क्या कह कर, वह स्वयं को नौकरी के लिए ‘शहीद’ होने की हजार बातें कहता नहीं थकता इन दोहरे मानदंडों से पुरुष कब अपने को अलग करेगा ?
वेदना, व्यथा, विवशता की शिकार नारी हर वर्ग में है I जितना बड़ा वर्ग, उतनी बड़ी विवशता..!! बल्कि निम्न वर्ग की स्त्री तो एकबारगी जुबान और हाथापाई -सबमें पुरुष की बराबरी कर लेती है, लेकिन मध्यम व उच्च वर्ग में पली बढ़ी स्त्री, उच्च शिक्षा-दीक्षा के कारण,संस्कारों के कारण चुप रह जाती है I जब पानी सर से गुजारने की नौबत आती है , तभी मुंह खोलने पे मजबूर होती है I इसलिए ही पढ़ी लिखी महिलाएं पुरुष द्वारा तरह-तरह से उपेक्षित होने पर, तमाम मानसिक व्यतिक्रमों और भावनात्मक अवरोधों के चलते, शारीरिक अस्वस्थता को झेलती जीती है I क्योंकि उसकी व्यथा का, विद्रोह का विरेचन ही नहीं हो पाता और जब होता है, तब तक वह अनेक रोगों का शिकार हो चुकी होती है I इतना ही नहीं पति भी अपने ढर्रे के जीवन में इतना रूढ़ हो चुका होता है कि औरत जब तब हिम्मत बटोर कर उसके सामने मुंह खोलती भी है, तो वाक् युध्द अप्रभावी रहता है I
जब तक पुरुष का ज़मीर नहीं जागेगा, उसकी चेतना करवट नहीं लेगी, तब तक ‘नारी-विमर्श’ फोरम के तहत आयोजित कार्यक्रम, व्याख्यान तथा विविध कार्यवाहियां सपाट ही जाएगीं I नारी की स्थिति में सुधार तभी आएगा, जब समझदार पुरुष वर्ग कुंठित मनोवृति वाले पुरुषों की मानसिकता बदलने में सहयोग दे और नारी को मनुष्य /मानवी मानने की दृष्टि विकसित करें I पुरुष के बढ़ते अतिरिक्त वर्चस्व को सही तरह से रोकने के परिणामोन्मुख प्रयास किए जाएं I पुरुष व्यक्तिगत, सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर नारी के प्रति अपनी कुंठित मनोवृति और रूढ़िवादी सोच को बदले, समाप्त करे I नारी की आजादी बाह्य नहीं अपितु आतंरिक पटल से जुडी है I जब तक पुरुषसत्तात्मकता अपने मन में संजो कर रखी स्त्री के प्रति अपने सामंती सोचों को नहीं काट फेकेगी , तब तक नारी इंसान के रूप में अपने को स्वतन्त्र महसूस नही कर सकेगी I पुरुष की मानसिकता में परिवर्तन आते ही, पुरुष के व्यवहार में भी स्वत: ही परिवर्तन आना शुरू होगा I उसमें आए उदार परिवर्तनॉ की गूँज अपने आप ही स्त्री तक पहुंचेगी I तब वह सहजता और सम्मान के साथ जी सकेगी. घुट-घुट कर, किलस-किलस कर जीना भी कोई जीना है ? हर छोटी बड़ी बात में उसे जंग लड़नी पडती है I स्त्री को कभी क़ानून की शरण लेनी पडती है तो कभी महिला संगठन उसकी पैरवी करते हैं I बरसों से यह जद्दोजहद चली आ रही है I लोगों का तर्क है कि नारी तो मुक्त है, आज़ाद है I पर नारी कहाँ आज़ाद है? जहां तक, जब तक पुरुष के स्वार्थ पूरे होते है, उतनी देर की आज़ादी पुरुष मतलब उसे देता है, उसके बाद तुरंत, बिना बोले आँख के क्रूर इशारे से कहता है कि ‘’आ जाओ अपने दबे ढके सेविका रूप में.’ यह आजादी है ? उसे इंसान समझा जाना है? क्या आपने किसी ऐसे पुरुष को पत्नी द्वारा छोडते या तलाक देते देखा और सुना है जो बच्चा दे पाने में असमर्थ हो? यह तो एक प्राकृतिक संयोग है I लकिन इसके विपरीत यदि पत्नी बाँझ है तो अच्छे पढ़े- लिखे पुरुष और उसका समूचा परिवार दूसरी पत्नी लाने पे आमदा हो जाते हैं - कुछ अपवाद छोड़ दे तो I
बहुत से लोग कहते है कि नारी अस्मिता को अक्षुण्ण बनाए जानी की कोशिश की जानी चाहिए I लेकिन जिस चीज़ का आता-पता ही नहीं, उसे अक्षुण्ण कैसे बनाया जा सकता है ? तो ऐसी खोखली बातों और सुझावों से कोई फ़ायदा नहीं जिनके पाँव ही न हों I सतही स्तर पर, सतही तरह से जीवन और समाज का अभिन्न अंग , बल्कि यूं कहिए कि केन्द्रीभूत इकाई - जो मानव-जाति के जन्म से लेकर संवर्धन तक की मूल धुरी है - उस नारी के अस्तित्व से जुडी गंभीर समस्या की सतही चर्चा करना , उससे पल्ला झाड़ कर बैठ जाने जैसा है, उसका मखौल बनाना है या फिर नारी मुक्ति के नाम पे ‘देह-मुक्ति’ का नारा लगाना - यह सब पुरुष द्वारा नारी के यौन शोषण के शोशे हैं I पुरुषों द्वारा नारी के इस कदर शोषण व उत्पीडन के चलते, लेखिका ने उस चिंतनशील पुरुष वर्ग को नज़रंदाज़ नहीं किया, बल्कि सम्मान के साथ उस वर्ग का उल्लेख किया है जो दिल से, बड़ी निष्ठा से अन्याय और शोषण का शिकार स्त्री का हिमायती है I इतना ही नहीं उस दिशा में नारी को न्याय दिलाने, उसके साथ होने वाले शोषण को खत्म करने के लिए निरंतर कटिबध्द है I नि:संदेह ऐसे पुरुष सराहना के योग्य है और धन्यवाद के पात्र
चौथे अनुच्छेद – ‘मीडिया में औरत’ में सुधा जी ने बेहद संवेदनशीलता के साथ सच्चाई को महसूस करते हुए, भंवरी के साथ हुई वारदात और अन्याय पर बनी फिल्म ‘बवंडर’ तथा उपभोक्ता संस्कृति की बलि चढने को विवश नारी की त्रासदी दर्शाती फिल्म ‘आस्था’ पर टिप्पणी करते हुए, इन फिल्मों के निर्माता निर्देशको पे करारा प्रहार किया है I उनकी नीयत की असलियत उघाडी है कि किसी भी स्त्री के साथ शारीरिक दोहन की हुई दुर्भाग्यपूर्ण घटना के फिल्मांकन को लेकर वे किस प्रकार अपने दोहरे मानदंडों के मध्य दोलायमान रहते हैं I ऎसे गंभीर सामाजिक मुद्दों को वे ‘यश और मुद्रा अर्जन’ - दोनों स्तरों पर येनकेन प्रकारेंण ‘कैश’ करने को लालायित रहते है I फिल्मांकन के अंतिम पड़ाव तक पहुंचते - पहुंचते, उनका ध्यान ऎसी घटनाओं के प्रति उनके सामाजिक व नैतिक दायित्व से फिसल कर, सिर्फ अधिकाधिक अर्थोपार्जन तक सीमित रह जाता है I क्योंकि मुद्राएं कमाने के फेर में वे मूल घटना में ऐसे खिचडी परिवर्तन कर देते है और दर्शकों की भावनाएं दोहने के लिए ऐसे झूठे व नाटकीय दृश्य जोड़ देते है कि घटना सच्चाई से दूर चली जाती है I इससे न तो घटना, न सामाजिक समस्या, और न ही अन्याय का शिकार हुई नारी के साथ न्याय हो पाता है I झाड झंखाड की तरह, रह रह कर उग आने वाले ऐसे मुद्दों के मुख्य पहलुओं को दर्शाने, उचित ढंग से मैगनीफाई करने व दर्शकों को उनके बारे में सकारात्मक रूप से सोचने के लिए झकझोर देने का जो प्रांजल लक्ष्य वे शुरू में लेकर चलते है, वह फिल्म पूरी होने तक धुल-धूसरित हो जाता है I ऎसी फिल्मों को बनाकर पुरस्कार और मोटी मोटी रकम पाते हैं निर्माता - निर्देशक, लेकिन अपने गाँव, सगे - संबंधियों की गालियाँ खाती है; फिल्म की प्रेरणा बनी भंवरी जैसी निरीह औरते I सो लेखिका का सवाल है कि लक्ष्य से खुद भटका समाज पीड़ित नारी को कैसे न्याय दिला सकता है ? वे खेद के साथ निखती हैं –
‘’ हम जैसे तथाकथित ‘क्रिएटिव’ कलाकार, अभिनेता, रचनाकार - जीते जागते लोगों के संघर्ष को अपनी कला में, अपने हक में,अपने नाम के लिए सिर्फ इस्तेमाल करना जानते हैं, उनके मकसद को मंजिल तक पहुंचाने में कोई भूमिका नहीं निभाते I’’
(पृ. २१९ )
ऐसी गैर जिम्मेदाराना सामाजिक कार्यवाहियों द्वारा शोषित और प्रताडित नारी पुन: हाशिए पे फेक दी जाती है I इस तरह जिस शोषण, दोहन से वह कुछ उबरी थी, फिर से उसी में डूब जाती है I गुमनामी से बदनामी की डगर पे इधर से उधर घसीटी जाकर, उसकी हालत और भी बद से बदतर हो जाती है I उसकी बेईज्ज़ती, बलात्कार, जो पहले उस तक ही सीमित था, अब उजागर होने पर, अधिक भयावह और भारी होकर उसे दबोचता है I इस तरह उसकी यातना चौगुनी होकर दिन-रात उसे कचोटती है I
इसी तरह मटुकनाथ और जूली का ‘संयोग’ या मटुकनाथ और उसकी पत्नी का ‘वियोग’ उसे क्या नाम दिया जाए ? यह घटना भी पुरुष वर्चस्व और नारी उत्पीडन की एक और कड़ी है I मीडिया का हो-हल्ला, शोर-शराबा, लालू जी के चटपटे सुझाव, जनता की प्रतिक्रियाएं - नतीजा ? हम सबने देखा ही कि प्रेमिका पत्नी पे इस तरह भारी पडी कि नेता से लेकर जनता तक, किसी ने भी ‘मटुकनाथ और जूली’ यानी प्रेमी और प्रेमिका को अलग होने का सुझाव नहीं दिया, किसी ने दिया भी तो दबे स्वर से - जोर देकर नहीं कहा, उलटे पत्नी को पति की प्रेमिका सहित स्वीकार लेने और शान्ति बनाए रखने का २१ वीं सदी स्टाइल हास्यास्पद व बुध्दिहीन सुझाव देने में किसी ने कोताही नहीं बरती I किसी ने भी जूली को समझाकर , मटुक और उसकी पत्नी के वैवाहिक जीवन से शराफत से दूर हो जाने की नेक और न्यायपूर्ण बात नहीं कही I सब तमाशायी बने, पत्नी अधिकारों का हनन होते देखते रहे I अपने नए प्रेम के मद में चूर मटुकनाथ ने यह तक कहा कि वह अपनी पत्नी को आज़ादी से जीने पूरी छूट देते है, कौन मना करता है, ये भी अपने ढंग से ज़िंदगी जिए Iऐसा कहते समय पति कहीं मन में आश्वस्त होता है कि पत्नी तो रो - झींक कर घरबार और बच्चों को सम्हालेगी ही; आगे सुधाजी के शब्दों में –
‘’ लंबे अरसे तक अपने आका की लंबी गुलामी करते हुए एक अदद बीवी इस कदर उसकी आदी हो जाती है कि एकाएक मिली आजादी के सुख को भी पहचान नहीं पाती I x x x x अपने पिंजरे को मुग्धभाव से देखती है और उसका खुला हुआ दरवाजा उसे लुभा नहीं पाता I सालों में वह अपने कतरे हुए पंखों की आदी हो जाती है I’’
(पृ. २३८)
पांचवे अनुच्छेद – ‘ धर्म और औरत ’ के अंतर्गत सुधा जी ने औरत की जिन्दगी में धर्म के खलल से बाधित होने वाले इन्साफ, बेइंसाफी से बाधित होने वाली जीवन की सहजता, असहजता से बाधित होने वाला उसका सुख-चैन, इस तरह एक के बाद एक उपजती दुःख की श्रंखला का उल्लेख पाकिस्तान की निर्दोष साफिया की दर्दनाक कहानी से किया है I अपने मालिक और उसके बेटे द्वारा किए गए बलात्कार से गर्भवती हुई, घरेलू अंधी नौकरानी ‘साफिया’ के पिता ने जब बेटी के गुनहगारों के खिलाफ, शरीयत कोर्ट में मुकदमा दायर किया तो कोर्ट ने गुनाहगारों को सज़ा न दे कर, साफिया के औरत होने को और उसके अंधेपन को आधार बना कर, उसके आरोप, उसकी गवाही को संदिग्ध माना I उलटे उसके कुवांरी होने के बावजूद गर्भवती होने से, उस पर नाजायज़ शारीरिक संबंध बनाने के लिए दोषी ठहराया गया I हदूद क़ानून के अनुसार ऐसे अपराध की सज़ा यह है कि गुनाहगार पर तब तक पत्थरों की बौछार की जाए, जब तक वह मर न जाए I लेकिन चूंकि वह अंधी है तो उस पर दया करते हुए उसे दस साल की कैद और सौ कोडों की सजा दी गई I अब ज़रा सोचिए, यह उस निरीह के साथ न्याय था किसी भी दृष्टि से ? इंसानियत, क़ानून और धर्म सब अपाहिज हो गए -शरीयत कोर्ट के तर्कहीन फैसले के सामने I तब १९७९ में हदूद क़ानून के विरोध में ‘वीमेंस एक्शन फोरम’ की नींव पडी और वहाँ की महिलाओं ने साफिया के साथ होने वाली बेइंसाफी के खिलाफ आवाज़ उठाई I वे साफिया और अन्य कुछ और औरतों को आज़ाद कराने में सफल ज़रूर रहीं पर पाकिस्तान में न्याय के लिए औरतों के बढ़ते हौसलों को देख, नारी विरोधी क़ानून बनाए गए, उनके साथ तरह तरह के अन्याय और अत्याचार बढ़ने लगे I परिणामस्वरूप ज़ुल्म की शिकार महिलाएं, प्रोफैसर डा. रिफअत हसन से मिली, जिससे उनकी समस्या का सही निदान मिल सके I पिछले बीस वर्षों से अमरीका में इस्लामिक स्टडीज की प्रोफैसर - डा. रिफअत हसन, धर्म-ग्रंथों की भ्रामक व्याख्या और कुरआन की आयतों के भ्रामक विश्लेषण के तहत पाकिस्तान में अन्यायपूर्ण, पोंगापंथी कानूनों के लागू होने के आधारभूत कारणों की खोज करने में लगी है I डा. रिफअत हसन ने १९८४ से शिरकत में आए ‘कानून-ए-शहादत’ जिसके अनुसार कोई भी औरत न तो अपने नाम से बैंक एकाउंट खोल सकती है, नही किसी दस्तावेज़ पर उसके हस्ताक्षर क़ानून सम्मत हैं - कुरआन की उस आयत की एकदम गलत व्याख्या है जिसके अनुसार दो औरत मिलकर एक पुरुष के बराबर हैं और एक औरत का दर्ज़ा आधे पुरुष के समान है I डा. रिफअत हसन ने फातिमा मेर्निसी और लैला अहमद के साथ मिलकर कुरआन की नारीवादी व्याख्या की और मर्दों के मनमाने और सरासर गलत नज़रिए का तर्क सहित खुलासा किया I इस पुस्तक में लेखिका ने असगर अली इंजीनियर की पुस्तक ‘प्राब्लम्स आफ मुस्लिम वीमेन इन इंडिया’ का उल्लेख करते हुए सुधा जी ने लिखा है कि –
‘’कुरान की अंतिम व्याख्या यही है कि ‘औरत और मर्द सामान हैं’ I कुरआन के चौथे अध्याय की ३४वी आयत की व्याख्या यह नहीं है कि मर्द को औरत पे शासन करने के लिए भेजा गाता है, अपितु डा. रिफअत हसन के अनुसार – ‘’पुरुष औरतों के संरक्षक हैं क्योंकि वे धन कमा कर लाते हैं और अपनी कमाई दौलत में से घर की औरतों पे खर्च करते हैं I’’
( पृ. 251)
क्योंकि पहले अर्थोपार्जन का काम सिर्फ पुरुष ही करते थे I डा. रिफअत हसन ने स्वयं इस सच्चाई को स्वीकारा है कि तरक्की पसंद पाकिस्तान में आज हर क्षेत्र में पढ़ी-बिखी, समझदार महिलाओं कि मौजूदगी रूढिगत सोच वाले मुसलमानों के लिए हिला देने वाली चुनौती बन कर सामने आई, इसलिए औरतों को नेस्तनाबूद करने के लिए, कट्टरपंथियों ने कुरआन की सही आयतों की अपनी गलत और तंग सोच के अनुरूप व्याख्या कर तर्कहीन नियम बना दिए I ऐसे नियमों का विरोध तो होना ही था, जो कुरआन की सरासर गलत छवि पेश करें I इसी तरह कुरआन में कहीं भी ऐसा नहीं कहा गया है कि औरते मर्दों के साथ नमाज़ अता नहीं कर सकतीं I सारा मुस्लिम समाज इस सच्चाई को जानता है कि हज के मौके पर व रसूल अल्लाह के वक्त औरत-मर्द सब साथ-साथ नमाज़ पढते हैं I ईरान, मक्का, कहाँ नहीं औरतें मर्दों के साथ नमाज़ पढतीं ? प्रो. जीनत शौकत अली स्पष्ट कहा है – ‘हज़रत मोहम्मद पहले फेमनिस्ट थे.’ ’’( पृ. 254 )
मुस्लिम ला बोर्ड के उपाध्यक्ष मौलाना कल्वे सादिक और विचारक मौलाना सज्जाद नदवी ने खुलासा करते हुए बताया कि धार्मिक मुल्लाओं ने औरतों के मर्दों के साथ नमाज़ पढने पर पाबंदी इस कारण से लगाई कि नमाज़ के समय औरतों के साथ होने से, मर्द अपने पर संयम खो देते हैं I मस्जिद को, समाज को पाक, साफ़ रखने के लिए ज़रूरी है कि औरतें घर में रह कर नमाज़ अता करें I मतलब कि सार्वजनिक स्थलों पर, इबादतगाह में औरतों की मौजूदगी मर्दों की खुद की कमज़ोर मनोवृति के कारण आपत्तिजनक है I अपनी कमी को छुपा कर कुरान की गलत व्याख्या करके, मर्दों के मन में उठने वाली यौन प्रवृतियों के लिए औरतों को ज़िम्मेदार ठहराना क्या किसी गुनाह से कम है ? अपनी कमज़ोर प्रवृति के कारण औरत को एक पाक जगह में जाने से रोक दिया गया, पर अपनी गलत मनोवृति के लिए मर्दों ने अपने को गुनाहगार मानना गंवारा न किया I
प्रो. जीनत शौकत अली का कहना है – ‘’ साम्यवाद के ढह जाने के बाद, पश्चिमी देशों का सबसे बड़ा शत्रु इस्लाम ही है. वे विश्व में यह भ्रामक धारणा फैलाते है कि इस्लाम फासीवाद, आतंकवाद और अतार्किकवाद का पर्याय है.’’ (पृ. 247 )
लेखिका ने स्पष्ट इस बारे लिखा है कि आज हर आधुनिक समाज में चाहे वह मुस्लिम हो या हिन्दू, औरते खूब शिक्षा हासिल कर रही हैं और डाक्टर, इंजीनियर, प्रोफैसर बैंक, आदि सभी क्षेत्रों में नौकरियों में भी आगे है I काहिरा, तेहरान, कराची, हर जगह औरतें इज़्ज़त से व्यवसाय में लगी है I ये ही औरते,जब इबादत की बात आती है तो, मस्जिद में जाने से रोक दी जाती हैं I ठीक है मुल्ला - मौलवी उन्हें रोके, लेकिन सही कारण उजागर करके रोके, उन्हें अपराधी महसूस करा कर नहीं I उनके साथ भावनात्मक अन्याय क्यों किया जाता है? पाबंदी झेलने की तो हर जाति की औरत को आदत है, लेकिन ईमानदारी से सही तर्क देकर यदि औरत को कोई काम करने से रोका जाए तो, वह तरीका पाक और स्वीकार्य होता है I उसे झूठे ही जायज़- नाजायज़ के घेरे में बांधना - उसके साथ सरासर ज्यादती है I धर्म के नाम पर औरत का शोषण है I इसी तरह मजबूर अंधी साफिया जैसी औरतों को दूसरे के गुनाह की सज़ा देना, किसी पाप से कम नहीं I
लेखिका ने उद्धृत किया कि ड़ा रिफअत के अनुसार इस्लाम के अनुसार खुदा को कैसे समझा जाए, और दूसरी बात यह कि खुदा एक पुलिस मैन की तरह है जिसके पास सही और गलत काम की लंबी फेहरिस्त है I उसके अनुसार वह लोगों को सज़ा देता है - इन दो अवधारणाओं को लेकर संघर्ष जारी है तथा इनके साथ जुड़ा है औरतों की अस्मिता का प्रश्न, उनके प्रति उदारता व अनुदारता का प्रश्न. (पृ. २५५ )
अंत में मुझे जयशंकर प्रसाद की नारी के लिए कही गई और सबके द्वारा अक्सर दोहराई जाने वाली मृदुल पंक्तियाँ याद आ रही हैं –
‘’नारी तुम केवल श्रध्दा हो, विश्वास रजत नग पग तल में
पीयूष स्र्तोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में.’’
इन पंक्तियों को पढकर दिल भर आता है कि ‘श्रध्दा और विश्वास’ की देवी की किस्मत में कितनी चोटे, कितनी दुर्गति लिखी है ? आज न तो समाज के पास प्रसाद जी की तरह नारी को देखने की वह स्नेह व सम्मान भरी दृष्टि है और न आज वह ‘पीयूष स्र्तोत’ सी नारी अपार दुःख झेलते - झेलते पीयूष सरीखी रह गई है I क्योंकि घर-परिवार को अमृत से सींचने वाली उस नारी को बेदर्द दुनिया ने इतना गरल पिलाया कि आज वह ‘गरल’ पी – पी कर, खुद गरल ही बन गई है I शिव की भाँति ज़मीनी सच्चाईयों के कडुवे गरल को कंठ में उतार कर, तिल-तिल भावनात्मक और मानासिक घुटन में सांस लेती हुई, धीरे- धीरे शरीर में फैलते उसके विषैले असर से, वह निरंतर मर रही है I भावनात्मक और मानासिक आघात, शारीरिक आघातों से कहीं अधिक तीखे और जानलेवा होते है I वे दिखते नहीं पर, घुन की तरह किसी को भी अंदर ही अंदर खोखला कर डालते हैं I समाज के विविध तबकों में तरह तरह की पीडाएं और कष्ट झेलती स्त्री को एक नहीं अनेक घुन लग गए है, जो बेरहमी से उसे जर्जर बनाए डाल रहें है I काश कि फिर से ‘सत युग’ आ जाए और नारी को वही पहले वाला श्रध्दा और विश्वास भरा स्थान समाज में मिल जाए कि वह अपने नारी होने पर गर्व कर सके !!
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Sunday, July 18, 2010
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