Monday, September 14, 2009

इंसान

इंसान आज तरक़्क़ी कर, बुलन्दियों पे जा पहुँचा है
आकाश में उड़ कर, चाँद पे जा पहुँचा है
ऊँची तालीम हासिल कर, ऊँचे ओहदे पे जा बैठा है !
पर क्या उसकी तालीम ने इंसानियत का भी पाठ पढ़ाया है ?

उसने दो और दो चार करना तो जाना,
पर क्या उसने एक और एक का ग्यारह होना भी जाना है ?
उसने संख्या जोड़ना तो सीखा
पर क्या उसने घर जोड़ना भी सीखा है ?

उसने अक्षर-अक्षर जोड़कर शब्द बनाना तो सीखा
पर क्या उसने भाई को भाई से जोड़कर परिवार बनाना भी सीखा है ?
वह आकाश की ऊँचाऊयों को छू आया
पर क्या वह सँस्कारों की ऊँचाईयों को भी छू पाया है ?

उसने समन्दर की गहराई को तो मापा
पर क्या उसने मां के प्यार की गहराई को भी नापा है ?
वह नफ़रत की आग बनकर भड़का
पर क्या वह कभी प्यार की बरसात बनकर भी बरसा है ?

उसने ईंट से ईंट जोड़कर मज़बूत इमारत की नींव डाली
पर क्या उसने कभी इंसान को इंसान से जोड़कर मजबूत समाज की भी नींव डाली है ?
उसने हाथ उठाना तो सीखा,
पर क्या उसने प्यार से हाथ मिलाना भी सीखा है ?

वह धन बटोरने की तलाश में रहा
पर क्या उसने कभी दूसरों का दुख दर्द भी तलाशा है ?
उसने अपनों के साथ सियासत करना सीखा
पर क्या उसने अपनों के साथ रियायत करना भी सीखा है ?

उसने अपनी हवेली में उजाले भरे
पर क्या उसने कभी ग़रीबों की बस्ती के अंधेरे भी दूर किए है ?
उसने रुतबे के सामने सिर झुकाया
पर क्या उसने बुज़ुर्गों के सम्मान में सिर झुकाया है ?

उसने मुंह फेर कर जाना सीखा
पर क्या उसने पलट कर गले लग जाना भी सीखा है ?
उसने धरती का चप्पा-चप्पा भरपूर निचोड़ा
पर क्या उसने उसके पनपने के लिए भी कहीं कुछ छोड़ा है ?

उसने गीता, क़ुरान, बाइबिल पढ़ना सीखा
पर क्या उसने कभी राम, रहीम और रोमी के दिलों को भी पढ़ा है ?
इंसान आज तरक़्क़ी कर, बुलन्दियों पे जा पहुँचा है
पर क्या उसकी तालीम ने इंसानियत का भी पाठ पढ़ाया है ?


ज़िन्दगी

ज़िन्दगी हर पल बदलती सी लगती है
कभी धरती तो कभी आसमां लगती है
ज़िन्दगी हर पल बदलती सी लगती है
कभी कलकल करती नदिया, तो कभी ठहरा समन्दर लगती है
ज़िन्दगी हर पल बदलती सी लगती है
कभी ख़ौफ़नाक आंधी, तो कभी शीतल बयार लगती है
ज़िन्दगी हर पल बदलती सी लगती है
कभी चहकी - चहकी सुब्ह, तो कभी उदास शाम लगती है
ज़िन्दगी हर पल बदलती सी लगती है
कभी परिन्दे की ऊँची उड़ान, तो कभी पंख फड़फड़ाती बेजान लगती है
ज़िन्दगी हर पल बदलती सी लगती है
कभी होंठो पे तिरती मुस्कान, तो कभी आँख से ढला आँसू लगती है
ज़िन्दगी हर पल बदलती सी लगती है
कभी मीरा सी बैरागन, तो कभी राधा सी प्रेम दीवानी लगती है
ज़िन्दगी हर पल बदलती सी लगती है
कभी कोहरे सी सर्द, तो कभी खिली सुनहरी धूप लगती है
ज़िन्दगी हर पल बदलती सी लगती है
कभी नाशाद तो, कभी शादमानी लगती है
ज़िन्दगी हर पल बदलती सी लगती है
कभी बच्ची सी चुलबुली, तो कभी बुज़ुर्गियत का लिबास ओढ़ लेती है
ज़िन्दगी हर पल बदलती सी लगती है
कभी बुझा – बुझी मन, तो कभी धड़कता दिल लगती है
ज़िन्दगी हर पल बदलती सी लगती है
कभी बहकी – बहकी, तो कभी समझदार सी सधे कदम चलती है
ज़िन्दगी हर पल बदलती सी लगती है