आधुनिक नारी और परम्परागत "इमेज"
आधुनिक नारी यानी "आज की नारी" गृहस्थी के सीमित दायरे से निकल कर समाज के विभिन्न क्षेत्रों में पदार्पण कर चुकी है जिससे उसकी परम्परागत इमेज में एकाएक परिवर्तन आया है। समय की आवश्यकता, आर्थिक परिस्थितियाँ व बदलते हुए सामाजिक मूल्य इस परिवर्तन के कारण हैं । लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या हमारा पुरूष प्रधान समाज आज की कर्मठ नारी को उसकी परम्परागत दीन हीन इमेज से अलग कर पाया है? हमारा पुरूष वर्ग आज की नारी से आशा करता है कि वह पढ़ी लिखी, नौकरी पेशा, घर सम्हालने बच्चों के पालन पोषण व प्रत्येक क्षेत्र में अपने कर्तव्य निर्वाह करने में पूर्ण रूपेण दक्ष एवं प्रवीण हो, लेकिन साथ ही व्यवहार व आचरण में पुराने जमाने सी दबी ढकी व्यक्तित्वहीन भी बनी रहे, जिससे पुरूष के अहं की तुष्टि होती रहे।
परिवर्तनशील जीवन में आधुनिक नारी का परम्परागत इमेज को बनाए रखना वैसे भी असंभव है, क्योंकि संसार में कोई वस्तु दूसरे रूप को प्राप्त हो कर अपने पूर्णरूप से एकदम भिन्न दिखाई देने लगती है। उसका पहला रूप, पहली इमेज इस लगातार परिवर्तनशील समाज में स्थायी कैसे रह सकती है? जैसे एक छोटा सा बीज विकसित होकर फूल के रूप में अभिव्यक्त हो समष्टि को अपनी सुवास से आपूरित कर देता है उसी प्रकार आज नारी विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा और क्षमता को प्रस्फुटित कर पहले से एक नितान्त भिन्न किन्तु सक्षम रूप को प्राप्त हो रही है। निःसन्देह परिवर्तन विकास की पहली शर्त है। जब नारी से विभिन्न क्षेत्रों में विकास की आशा की गई तो उसके दृष्टिकोण, मन मस्तिष्क व विचारधारा में परिवर्तन आया। तदोपरान्त वह विकास की सीढ़ी चढ़ती गई और आज जब वह एक डाक्टर, प्रोफेसर, आई. ए. एस. अधिकारी, इंजीनियर, वकील या पुलिस अधिकारी के रूप में सामने आई तो उसकी परम्परागत इमेज स्वतः ही धूमिल होती गई। उसकी आधुनिक इमेज का तात्पर्य यह नहीं कि उसकी मूल प्रकृति ही बदल गई। पुरूष के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने का तात्पर्य यह नहीं कि नारी के भीतर विद्यमान माँ की ममता, पत्नी का प्रेमल रूप या बहिन का कोमल स्नेह जड़ हो गया है, वरन अंतरतम में नारी इन्हीं रूपों में जीती हुई अति संवेदनशील बनी हुई है।
बौद्धिक दृष्टि से नारी आज भले ही पुरूष के समान मानसिक स्तर को प्राप्त हो गई है, लेकिन शारीरिक दृष्टि से वह सदा की भाँति अबला ही है। पुरूष से पीछे है । यह तो प्रकृति का विधान है, उसे नारी चाहकर भी नहीं बदल सकती। क्योंकि नारी जैसी सशक्त और समर्थ नजर आती है यदि वह सच में उतनी ही सशक्त हो गई होती तो आज दहेज की दुहाई देकर दुल्हनों की होती इस निर्ममता से नहीं जलाई जाती। पुरूष वर्ग द्वारा नारी वर्ग पर अत्याचार समाप्त हो जाता। महानगरों की भीड़ भरी बसों व लोकल ट्रेनों में उसके साथ दुर्व्यवहार न होता। घर में एक माँ, बहिन या पत्नी के रूप में उसे बात बात पर पुरूष वर्ग से अपमान न सहना न पड़ता। इस सारे दमन, शोषण का बार बार एक ही कारण उभर कर सामने आता है - और वह है कि नारी को एक नवीन धरातल पर धकेल कर, पुरूष द्वारा अपनी उस ही परम्परागत, कुण्ठित व विकृत मानसिकता को न बदलना।
यदि अधिक गहराई से विचार किया जाए तो हम पायेगें कि परम्परागत इमेज का अभाव (यानी आधुनिक रूप) तथा उसका होना (यानी परम्परागत दीन दयनीय रूप) दोनों ही नारी पीड़न के कारण हैं। क्योंकि जो पुरूष नारी से यह अपेक्षा करता है कि वह डाक्टर, इंजीनियर या प्रशासनिक अधिकारी बन समाज में उसकी प्रतिष्ठा को चार चाँद लगाये, साथ ही आर्थिक दृष्टि से भी सहायक बने, और जब वह बेटी, पत्नी या बहन, अपने पिता, पति या भाई की इच्छानुरूप बन सामने आती है तो पुरूष गर्व से निःसन्देह फूला नहीं समाता। लेकिन विडम्बना देखिए कि जब वही बेटी, पत्नी या बहिन किसी मुद्दे पर पुरूष का कभी विरोध करती है और अपने विकसित मस्तिष्क के नए क्रान्तिकारी विचारों को उसके समक्ष प्रस्तुत करती है तो पुरूष एकाएक असामान्य हो आगबबूला हो उठता है। कुछ अपवादों को छोड़कर समान्य रूप से पुरूष घर से लेकर समाज के विभिन्नक क्षेत्रों में नारी का दमन व शोषण करता पाया जाता है। कभी कभी तो पुरूष का अहं नारी की परम्परागत दीन- हीन छवि से आधुनिक समर्थ व सशक्त रूप की तुलना कर इतना विकृत हो उठता है कि यह उसके प्राण लेने से भी नहीं चूकता। दूसरी ऒर, जो नारी आज भी अपने परम्परागत रूप में जी रही है, वह अपने दुर्बल, असहाय व निरीह से रूप के कारण पुरूष को शोषण व उत्पीड़न का कारण बनती है। ऐसी स्त्री को तो पुरूष अकारण ही समय समय पर अपमानित करता है, तथा उसे अनपेक्षित वस्तु की संज्ञा दे तरह तरह से उपेक्षित कर चोट पहुँचाता है। अतः नारी का दोनों ही रूपों में शोषण है।
अब प्रश्न उठता है कि नारी की इस दशा के लिए नारी स्वयं उत्तरदायी है या हमारी पुरूष प्रधान समाज ? या नारी का पुरूष से हर कार्यक्षेत्र में आगे बढ़ते जाने के कारण, चोट खाया पुरूष का अहं ? पुरूष वर्ग यह क्यों नहीं सोचता कि एक मानसिक, बौद्धिक दृष्टि से उन्नत व विकसित नारी, अविकसित व जड़ बौद्धिक स्तर वाली नारी की भाँति पुरूष की प्रताड़ना, उसका अन्याय कैसे सह सकती है ? या तो उसे पहले जैसा ही अनपढ़, अविकसित रहने दिया जाता, तब तो वह सीमाऒं में बंधी, सब ऒर से अपने को निवर्तित किए, एक कठपुतली की तरह जी सकती थी। लेकिन आज नारी की क्षमताऒं व प्रतिभाऒं को प्रत्येक क्षेत्र में उभरकर उससे कठपुतली बने रहने की अपेक्षा करना पुरूष के अहंकारी व अन्यायी दृष्टिकोण का परिचायक नहीं तो और क्या है ?
वास्तव में आज नारी समय की जरूरत के कारण अपनी परम्परागत इमेज से अलग हो जाने पर भी, पुरूष की अहंमयंता के कारण पूर्णतया उससे अलग नहीं हो पाई है। अप्रत्यक्ष रूप से हमारा पुरूष वर्ग आज भी उसे उस परम्परागत रूप से जोड़े रखना चाहता है। निःसन्देह इन दो पाटों के बीच पिसने वाले घुन से कम दयनीय नहीं है। इस दयनीय दशा से मुक्त होने हेतु नारी वर्ग में जो संघर्ष व्याप्त है वह तब तक जारी रहेगा जब तक कि पुरूष वर्ग नारी के प्रति अपने दृष्टिकोण को नहीं बदलता।
Sunday, July 18, 2010
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