हैरान हूँ मैं
हैरान हूँ मैं,
रहगुज़र में ’रहनुमाओ’ को देखा है, भटकते हुए,
‘सधे क़दमों’ को देखा है, लड़खड़ाते हुए,
‘उसूलवालों’ को देखा है, गिरते हुए,
हैरान हूँ मैं,
फौलादी सीने वालों को देखा है, रोते हुए,
दोस्त को देखा है, बेगाना बनते हुए,
सँवरे जीवन को देखा है, बिखरते हुए
हैरान हूँ मैं,
ईमानदार को देखा है, बेईमानी से गले मिलते हुए,
उमड़ती नदी को देखा है, तिल - तिल सूखते हुए,
किलकते बचपन को देखा है, चुप- चुप सुबकते हुए,
हैरान हूँ मैं,
पत्थरों को देखा है, चटकते हुए,
नाज़ुक किरणों के परस से,बर्फ़ीले ‘जड पर्वत’ को देखा है पिघलते हुए,
कोसो दूर चाँद को देखने भर से, शांत समन्दर देखा है उमडते हुए,
हैरान हूँ मैं,
कोमलता को देखा है, चट्टान बनते हुए,
कटुता को देखा है, मीठी वाणी में घुलते हुए,
अपनों को देखा है, घाव देते हुए !
मुक्तक
१) ख़ुशी ज़रूरी है जीने के लिए
ग़म भी ज़रूरी है ज़िन्दगी के लिए
2) हर बात यहाँ दर्दनाक़ है
दिल को बचा के रखो
ज़माने की हवा ख़तरनाक़ है
3) तूफ़ां के सामने दीपक को रखने की आदत पुरानी है
तासीरे दुआ से तूफ़ां को मोड़ देना फ़ितरत हमारी है
4) आज भी तहज़ीब आपके अख़लाख़ से झलकती है
नरमदिली अभी खोई नहीं, रह - रह के उभरती है
किसी की देख के तक़लीफ़, तभी आपकी आँख बरसती है
5) कितना आसान है, दिल को तोड़ देना
कितना दुश्वार है,उसे फिर से जोड़ देना
6) दिल में उबाल, आँखों में सवाल लिए, जब मन्दिर मैं जाती हूँ
सीढियों के परस से ही , कुछ सम्भल मैं जाती हूँ
तेरे चरणों में झुक के फिर, ख़ुशी से भर मैं जाती हूँ
अगर की खुशबू सांसों में, दिए की लौ को आँखों में लिए
जब घर मैं आती हूँ तेरे प्रति विश्वास को और गहरा मैं पाती हूँ
7) बुरा क्या है अग़र हम अक्ल से काम लेते हैं
आप भी तो बेअक्ली के पैग़ाम भेजते हैं
8) राम रहीम, नबीए-क़रीम कोई तो पन्हा दे मुझको
ज़िन्दग़ी तंग करती है दिन रात बेइन्तहा मुझको
9) पतझड़ झेला है इस आस में
होगा बसन्त कभी तो पास में
परवरदिग़ार
कहते तो हैं कि एक ही परवरदिग़ार है
हर सूं, कारसाज़ी, उसकी बेशुमार है
दुखों की धूप में, शीतल सी छाँव वो
तूफ़ाने ग़म में वो, दिले बेक़रार है
शीरी का फ़रहाद, राधा का किशना वो,
दिल की लगी में वो, दिल का क़रार है
गुलाब की महक, चम्पा की ख़ुशबू वो
पतझड़ में ख़ार वो, बसन्त में बहार है
अनाथ से जीवन में, ममता का साया वो
रक़ीबों में ख़्वार वो, अपनों में प्यार है
दोहों में कबीर के, अल्लाह नेक वोह,
ख़य्याम की रुबाई में, इश्क औ ख़ुमार है
वेदों में ज्ञान वो, आयत की शान वो,
दिल की तपिश में वो ही, शीतल फुहार है
बनवास राम का, दशरथ का त्याग वो
काँटों की रहगुज़र में, सुकूँ की बयार है
बरसात
जब भी आती है बरसात, बीती यादें लाती साथ,
बचपन में देखी थी मैंने, पानी की झम - झम बरसात,
काग़ज़ की कश्ती तैराकर, खिल खिल खिल खिल हँसती थी
दौड़ - दौड़ कर आँगन में, खुश होकर भीगा करती थी,
अँजुरी में नन्हे हाथों की, टप - टप बूँदें भरती थी,
तरुणाई ने दस्तक दी, देखा बदल गई बरसात !
जब भी आती है.........................................
कोमल भावों की बरसात, सुन्दर ख्वाबों की सौगात,
मख़मल से नाज़ुक ख्यालों की,झड़ी लगी थी दिन और रात
यह बरसात अनोखी थी, हर पल दिल भिगोती थी,
हरदम भीगे रहना उसमें, ज़रा नहीं अखरता था,
उस बरसात में डूबे- डूबे, पलक झपकते बीता यौवन,
‘सोच-समझ’ ने दस्तक दी, देखा बदल गई बरसात !
जब भी आती है.........................................
चिन्ताएँ और उलझा जीवन, सपने टूटे, टूटा था मन,
आहत थे आदर्श बेचारे, चिटका था मूल्यों का यौवन,
सुकुमार भाव थे डरे - डरे, तार - तार, झिर्रे - झिर्रे
पीड़ा मन में थी सिसक रही, खामोशी से लब सिले-सिले,
पीड़ा को यूँ सहते - सहते, पलक झपकते बीता जीवन,
जीवन - संध्या ने दस्तक दी, देखा बदल गई बरसात !
जब भी आती है.........................................
जीवन
उमड़-उमड़ कर बहता जीवन एकाएक रुक जाता कैसे समझ नहीं आता है मुझको कोई बदल जाता है कैसे छाँव धूप बन जाती कैसे प्यार मर जाता है कैसे
उमड़-उमड़ कर बहता जीवन...... निकट बहुत जो होते हैं दिल की धड़कन जो होते हैं अन्जाने हो जाते कैसे दूर चले जाते हैं कैसे
उमड़-उमड़ कर बहता जीवन..... पल-पल छिन-छिन जिनको चाहा मधुमास है साथ बिताया वे पतझड़ बन जाते कैसे शुष्क भाव हो जाते कैसे
उमड़-उमड़ कर बहता जीवन..... जीवन की राहों पे संग भरे थे हमने सुन्दर रंग रंग फीके पड़ जाते कैसे जीवन बदरंग होता कैसे
उमड़-उमड़ कर बहता जीवन.....
अकेले – अकेले
ख़रामा – ख़रामा अकेले – अकेले
घूम आए हम ख़ारों के मेले
कहा था उन्होने न जाना अकेले
लिपट जायेगें ख़ार दामन से मेरे
मुस्कुराए थे हम मन में बड़े ही
उन्हें क्या पता हम हैं ख़ारों के जैसे
आयेगें ग़र वे नज़दीक हमारे
जायेगें लौट, वे आए थे जैसे
ख़रामा – ख़रामा...........
नहीं जानते वे, आँधियों से झगड़ते
बेरहम ख़ौफ़नाक तूफ़ां से लड़ते
मौजे तलातुम ख़ुद बन गई हूँ
मैं एक ख़ार बन के रह गई हूँ
नहीं लगता डर अब ख़ारों से,तूफ़ा से
दफ़न कर चुकी ऐसे कितने झमेले
ख़रामा – ख़रामा.....................
पहुँचे वहाँ तो पाया कि गुल भी
ख़ारों के मेले में आए हुए थे
खड़ी थी तहज़ीब दूरी पे उनसे
सलीके से बेख़ुद, वे अकड़े हुए थे
सरापा सियासत में डूबे हुए थे
हँसे थे तब हम उन पे हौले-हौले
ख़रामा – ख़रामा........................
हमें गुल से बेहतर, तहज़ीब से तर
दुनियां में बदनाम काँटें लगे तब
गुलोशाख़ की दिलसे करते हिफ़ाजत
उनसे कभी न होते जुदा हैं
रस्मे मुहब्बत वफ़ा से निबाहते
मुहब्बत के मारे ये कितने निराले
ख़रामा – ख़रामा.......................
Saturday, July 17, 2010
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