(कहानी) ‘’ब्रैड पिट आई लव यू ’’
’’ललिता, सामने की खिड़की बन्द करके काम कर। कितनी बार समझाया है कि पड़ौस के दुमंजले घर से यह कमरा साफ़ नज़र आता है, और वे दोनो भाई हर पल आते-जाते अपनी खिड़की से ज़रूर इस कमरे पे नज़र डालते रहते हैं” - ताई जी का भारी स्वर तीर सा ललिता के कानों से टकराया।
‘’ठीक है ताई जी” – यह कहती ललिता बेमन से उठी और खिड़की के पल्ले ढुका कर फिर से अपनी किताबों में रम गई। लेकिन अब रह-रह कर उसका मन सामने वाली खिड़की को खोलने की ओर लपकने लगा। अभी तक वह बड़े चैन और सुकून से पढ़ रही थी, पर अब उसका सारा ध्यान खिड़की पे अटक के रह गया। ‘’ वह खिड़की खोल कर क्यों नहीं पढ़ सकती...?? क्योंकि ताई जी को शक़ है कि सामने के घर के लड़के मुझे न देखे या उन्हें मुझे पे शक़ है कि मैं उन लड़को के कारण यहाँ बैठकर पढ़ने का ढोंग कर रही हूँ। हुँह, मुझ पर इतना भी भरोसा नहीं.... क्या मैं अच्छी लड़की नहीं हूँ ? क्या पड़ौसी लड़के ख़राब हैं, अग़र मेरी उन पे नज़र पड़ जायेगी तो गुनाह हो जायेगा...? ’’– ललिता का मन कैक्टस के ढेर सारे कांटेनुमा सवालों में टुकड़े – टुकड़े होकर पढाई से छिटक गया । उसके दिलो –दिमाग में समाजशास्त्र की जगह यह दूसरा ही समाजशास्त्र घूमने लगा। तरह-तरह के ख्याल उसे काटने लगे।
तभी फिर थोड़ी देर में ताई जी का एक नया आदेश आंगन से कूदता - फांदता कमरे में आ खड़ा हुआ – ‘’ललिता, चल उठ जा, 4 बज रहें हैं। एक प्याली गरम-गरम चाय तो पिला ज़रा।‘’
3 बजे पढ़ने बैठी ललिता का मन वैसे ही खिड़की बन्द करने के आदेश को लेकर पढ़ाई से उचटा था और वह उसे फिर से किताब में लगाने के लिए जूझती बैठी थी। इतने में चाय की फरमायश हो गई। उसने सोचा, चलो इससे अच्छा तो चाय ही बना दूँ। वह एक खालीपन के साथ उठी, रसोई में गई, चाय बनाई और बड़े प्यार से ताई जी को लाकर दी। घूंट भरती ताई जी मुँह बिचकाती बोली –
‘’अरे,,रे,,रे कितनी कसैली चाय बनाई है, चीनी भी कम। बेटा कोई तो काम ठीक से कर लिया कर।‘’
ललिता को लगा कि वह एकदम नकारा और अयोग्य है।
‘’अच्छा जा छत पर से सूखे कपड़े उतार ला’’ – ताई जी खाट पे अपने पैरों को सीधा करती बोली।
ललिता छत पर एक-एक करके कपड़े करीने से उतारने के साथ-साथ तह भी बनाती जा रही थी कि ताई जी का हिटलर स्वर फिर लहराया – ‘’अरे ओ लड़की कहाँ अटक गई, क्या इतनी देर लगती है कपड़े उतारने में।‘’
ललिता तुरन्त आंगन में नीचे झाँकती बोली – ‘’टाइम तो लगता है थोड़ा, ताई जी, बस आ ही रही हूँ ।‘’
उसने देखा कि ताई जी खाट से उठ कर, आंगन में बीचों बीच खड़ी, टकटकी लगाए, उसे छत पे खोज लेने को परेशान थीं। ‘’ऐसा क्यों करती हैं ताई जी। मुझ पे रत्ती भर भी भरोसा नहीं किसी बात का’’.....ललिता का मन सूखे खड़न्क पत्ते की तरह दिशाहीन सा इधर उधर गिरता पड़ता कहीं दूर उड़ गया। बाकी कपड़ों को वह बिना तह बनाए ऐसे ही ले आई। ताई जी उसे हड़काती सी बोली –
‘’देख, ख़बरदार जो ज़रा भी आसपड़ौस के लड़को की नज़र तुझ पे पड़ी या फिर तूने उनकी ओर नज़र उठाकर भी देखा। ज़माना बड़ा ख़राब है। तू नहीं समझती।‘’
ललिता सोचने लगी कि समझाने का ये ढंग तो बड़ा मारक है। ये मुझे हर रोज़ इस तरह समझाती हैं या कोंचती हैं या इतना टोक-टोक कर लड़को की ओर देखने की प्यास मन में जगाती हैं। मैं कहाँ किसी लड़के को देखने को आतुर हूँ, लेकिन जब ये इस तरह ख़बरदार करती हैं तो ज़रूर मन करता है कि अभी छत पे या खिड़की पे जाऊँ और आसपड़ौस के हर लड़के को बार-बार देखूँ।
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ललिता आखिरी लैक्चर अटैन्ड करके घर लौटी तो अपने कमरे को अस्त-व्यस्त देख असमंजस में पड़ गई। मेज़ की किताबें, पलंग की चादर, अलमारी की कॉपियाँ सभी, अपनी –अपनी जगह से हिली हुई थी। ड्रॉअर से भी छेड़छाड़ की गई थी। वह गुस्से से भन्नाई सी हो गई, लेकिन ताई जी से कुछ पूछना महाभारत को न्यौता देना था। खैर, मन मारकर उसने खुद को ही समझा लिया। किताबें, कॉपी सब क़ायदे से लगाकर रखीं। फिर सबसे नीचे की किताब खोलकर ‘ब्रैड पिट ’ की तस्वीर देखी कि सही सलामत तो है, उसे सही सलामत देखकर वह चिहुँक उठी और हौले से बोली - ‘’ब्रैड पिट आई लव यू ’’। उसे आज तक भारतीय फ़िल्मी सितारों के अलावा कोई और पसंद नहीं आया. पहली बार ऐसा हुआ है कि उसे कोई हालीवुड स्टार इतना भाया है.
ललिता ने मुँह हाथ धोकर खाना खाया। ताऊ जी आज ऑफ़िस नहीं गए थे, सो थोड़ी देर उनसे बैठकर बातें की। ताऊ जी भी सख्त थे, पर ताई जी की तरह बात पे बात पे टुक-टुक नहीं करते थे। ललिता को रह-रह कर माँ की याद सताती। बी.ए. करने तक उसे ताई जी की तानाशाही, अपमानजनक व्यवहार तो झेलना होगा। उसका किशोर मन इस व्यवहार और अजीब माहौल से मानसिक रूप से रुग्ण सा रहने लगा था। कितना अपने मन को समझाए, लेकिन मन विद्रोह करने पे उतारू हो जाता था कितनी बार तो। पर वह कैसे स्वयं को नियंत्रित करती थी, बस वही जानती थी। उसे लगता कहीं ये जंग उसे ले न डूबे। लेकिन तुरंत वह काउंटर लाजिक करती – ‘नहीं, वह तो एक मज़बूत, समझदार लड़की है। चाहे कुछ भी हो, वह ताई जी के घर में अपनी वजह से विस्फोट नहीं होने देगी। घरेलू लड़ाई-झगड़े के कारण वह माँ-बाबू जी के लिए समस्या नहीं बनेगी।‘
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आज कॉलिज में फंक्शन है। ललिता ने ताई जी से कहा – ‘’ताई जी, आज लौटने में थोड़ी देर हो जायेगी, फंक्शन है और प्रिंसिपल साहब का आदेश है कि सभी छात्र-छात्राओं को उपस्थित रहना है। ‘’
सुनते ही ताई जी लगभग भड़कती सी बोली – ‘’अरे वाह, प्रिंसिपल साहब का आदेश है, वे आदेश देना तो जानते हैं, पर क्या लड़कियों की हिफाज़त करना भी जानते हैं ?’’
“ताई जी और लड़कियाँ भी तो होंगी वहाँ, मैं कोई अकेले थोड़े ही होऊँगी। हम सब इकठ्ठे वापिस आएगीं। सीमा का भाई भी लौटते समय साथ होगा तो डर की कोई बात नहीं।“
‘’क्या कहा, सीमा का भाई भी लौटते समय साथ होगा तो डर की कोई बात नहीं – तब तो डर की सारी बात है। भाई तो उसका है, तेरा थोड़े ही है। नहीं तू नहीं जाएगी, बताए देती हूँ।‘’
ललिता ने अपनी खीझ को ज़ब्त करते हुए ताई जी को काफ़ी आश्वस्त करने की कोशिश की, लेकिन सब ढाक के तीन पात रहा। ताई जी तो न मानी, अन्त में हार कर उसे ही उनकी बात माननी पड़ी। व्यर्थ के शक़ शुबहा के कारण ललिता रुक तो गई पर उसके अन्दर घुमड़ता विद्रोह पहले से अधिक सघन हो गया था आज। छोटी-छोटी बातों पे उसे घुटना पड़ता था, मन मसोस कर रह जाना पड़ता था। वह कई बार सोचती कि वह यहाँ ग्रेजुएशन करने आई है या अपने अस्तित्व को कुचलने.....!!??
उसके साथ की सभी लड़कियाँ ख़ूब मस्त, खिली-खिली और प्रफुल्लित रहती थी। हर लड़की का दोस्त था, सिवाय उसके और इस कारण से उसकी कई बार मज़ाक भी बनती थी। पर वह अपनी खिल्ली को फूंक मार कर उड़ा देती थी। उसका युवा मन भी सपनों के राजकुमार के ख्यालों में डूबा रहना चाहता पर ख्यालों में भी ताई जी उभर उभर आती। वह ‘’प्रिन्स चार्मिंग’’ के ख्याल से ही काँप जाती और अपने को गुनहगार समझती। पर हॉलीवुड हीरो ब्रैड पिट के ख्याल से अपने को जुदा न कर पाती थी । बहुत ही अच्छा लगता था उसे । हाँलाकि पूरे दो साल में उसकी दो ही मूवीज़ उसने किसी तरह ताऊ जी की उदारता के कारण दिन के शो में अपनी सहेलियों के साथ देखी थी। उसे ब्रैड पिट पे एक तरह से ‘’क्रश’’ ही था। उसने महसूस किया था कि जब-जब ताई जी उसे किसी भी बात पे फटकारती तो वह बहुत अकेली हो जाती और उसका मन होता कि कोई पुरुष उसे अभय दान दे, पल भर के लिए भरपूर ख़ुशी उसके जीवन में उड़ेल दे और जब भी वह ऐसा सोचती तो पुरुष के ख्याल मात्र से ‘’ब्रैड पिट’’ उसकी आँखों के सामने आकर खड़ा हो जाता। वह उसका रक्षक, उसका साथी, उसका हमराज़ कैसे हो सकता है – वह मन ही मन ख़ुद पे हँसती भी, पर ऐसा अक्सर उसके साथ घटता। जहाँ भी उसे ब्रैड पिट की तस्वीर दिखती वह उसे सँजोकर अपनी ड्रॉअर में या अलमारी की किताबों में छुपाकर रखती। क्रूर ताई जी ने यद्यपि कई बार ब्रैड पिट की तस्वीर हाथ लग जाने पर, फाड़कर फेंकी, पर ललिता का मन भी उसकी तस्वीर लाए बिना नहीं मानता। किसी लड़के से वह बात नहीं करती थी, दोस्ती तो बहुत दूर की चीज़ थी, लेकिन क्या वह अपने मनपसन्द हीरो की तस्वीर भी नहीं रख सकती थी, इस पाबन्दी से वह किसी भी क़ीमत पे समझौता करने को तैयार न थी। वह तर्क करती - यह तो सरासर ज़्यादती है। एक ओर ताई जी का हिटलरी विद्रोह, तो दूसरी ओर ललिता के किशोर मन का विद्रोह जो उसके न चाहते हुए भी सीली आग की तरह न बुझता, न भड़कता – लगातार सुलगता रहता।
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किसी तरह ललिता के ग्रेजुएशन के तीन साल कटे और वह अनेक कुंठाओं से भरी अपने माँ-बाबू जी के पास नहटौर लौटी। माँ-बाबू जी से मिलकर वह कई दिनों तक जी भर के रोई। अग़र अपने ही शहर के कॉलिज में ग्रेजुएशन की सुविधा होती तो उसके बाबू जी कभी भी उसे ताई जी के पास पढ़ने न भेजते। अपनी होनहार बेटी को वे ग्रेजुएशन अवश्य कराना चाहते थे, इसलिए ही मजबूर होकर उनहोंने भेजा । उसके बाद अच्छा घर देख कर उसकी शादी करना चाहते थे। उनका विश्वास था कि सँस्कारी परिवार का सँस्कारी लड़का मिल गया तो एम. ए. तो ललिता शादी के बाद भी कर सकती है। माँ के कैंसर पीड़ित होने के कारण ललिता का विवाह उसकी माँ की ख़ासमख़ास इच्छा ही नहीं, बल्कि एक दुआ थी, प्रार्थना जैसी थी। वह अपने जीते जी अपनी प्यारी बेटी का घर बसा हुआ देखना चाहती थी। जीवन में ललिता का एक ही ‘’पैशन ’’ था – उच्चतम शिक्षा हासिल करना, ख़ूब पढ़ना- लिखना। लेकिन उसी उत्कट अभिलाषा को उसे, हालात से मजबूर माँ- बाबूजी के कारण बेदर्दी से दबा-दबाकर सुलाना पड़ा और शादी के लिए हाँ करनी पड़ी। पहली बार उसने अपने माँ- बाबू जी के घर में स्वयं को वैसे ही ग़ुमनाम सन्नाटे से भरा पाया, जैसे कि अक्सर वह ताई जी के घर में उस पे हावी हो जाया करता था। वह निहायत अकेली, बेचारी और कुछ भी कर पाने में अशक्त निर्जीव सी बिस्तर पे औंधे मुँह पड़ी थी कि तभी उसके दुखी मन और अकेलपन का साथी, ब्रैड पिट उसकी आँखों में उतरना शुरू हुआ। उसने मानो आँखें मूँद कर, उसे नज़रबंद कर लेना चाहा। वह बहुत देर तक एक मीठे एहसास से भरी यूँ ही पड़ी रही। फिर हौले से उसके नाज़ुक होंठ खुले और वह बुदबुदायी - ‘’ब्रैड पिट आई लव यू ’’। एक गुनगुना एहसास उसे सरापा सिहरा गया। कुछ देर बाद शीतल सुकून से भरी वह एकदम तनाव मुक्त हो गई।
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एक साल बीतने से पहले ही ललिता का रिश्ता एक अच्छे ख़ानदान में हो गया। लड़का सॉफ़्टवेयर इंजीनियर था। जुलाई में ललिता का रिज़ल्ट भी आ गया। उसने प्रथम श्रेणी में बी.ए. पास किया था। माँ बाबू जी की खुशी का ठिकाना न था। ललिता तो एम.ए. करने के लिए लालायित थी। पर माँ की दिन पे दिन बिगड़ती हालत के आगे उसके पास अपनी इच्छा कुर्बान करने के अलावा और कोई निदान न था।
मनोहरलाल जी ने अपनी क्षमता से बढ़कर, बड़ी धूमधाम से अपनी इकलौती बेटी की शादी की। ललिता की शादी के 6-7 महीने बाद, माँ भी दुनिया से विदा हो गई। ललिता के दुख का पारावार न था। उसे रह-रह कर हावका आता कि काश, ग्रेजुएशन के कारण उसे माँ से तीन साल दूर न रहना पड़ता, तो वह माँ के साथ अधिकतम समय गुज़ार सकती थी। उसे लगता कि उसने माँ को भी खोया, ग्रेजुएशन फ़र्स्ट डिवीज़न में पास किया तो क्या हुआ, एम.ए. करने से भी वंचित रही। एक तरह का खालीपन उसे घेरे रहता। ताई जी के घर रह कर वह हमेशा हर छोटी-छोटी बात के लिए तरसती रही, उनके ताने और डाँट खाती रही। घर वापिस आकर माँ बाबू जी के कारण आगे पढ़ने की सहज इच्छा भी उसे त्यागनी पड़ी। त्याग जैसे उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बन गया था। उस पे एक अजीब एकाकी किस्म का जुनून हावी होता जा रहा था। अपने ’’पैशन ’’ को दफ़न कर, वह शादी के बाद ससुराल ज़रूर आ गई थी, पर अकेली नहीं – अपने ’’क्रश ’’ ब्रैड पिट को भी साथ ले आई थी। कभी-कभी वह मन ही मन सिहर उठती कि ये कैसा जुनून है या मानसिक रिश्ता है जो किस कारण से इतनी सघनता से कायम होता जा रहा है....!!
एक अवचेतन अवस्था में जैसे वह एक के बाद एक सारे काम करती जा रही थी। शादी, विदाई, सुहागरात और फिर रोज़मर्रा की दिनचर्या। पति शशांक ने जब उसे पहली रात को छुआ तो उसे अच्छा नहीं लगा, वह शरमाहट से नहीं, बल्कि कड़ुवाहट से भरी सकुचाई। दूर सरकी। उसे लगा कि वह अपने ‘’प्रिंस चार्मिंग’’ (ब्रैड पिट) के साथ बेवफ़ाई कर रही है। लेकिन उसके बाद हर रात, शशांक के स्पर्श से धीरे-धीरे वह अवचेतन अवस्था में तैरने लगती और अवचेतना की हर लहर के साथ एक दूसरी ललिता जी उठती। शशांक उसके लिए ‘ब्रैड पिट’ में रूपान्तरित हो जाता । ललिता उसकी बाँहों में जिस प्यार और मधुरता से समाती, उसे देखकर शशांक कभी सोच भी नहीं सकता था कि वह अपनी पत्नी द्वारा इस तरह छला जा रहा है कि जिसका एहसास न उसे ख़ुद को है और न छलने वाली को। उन दोंनो के बीच एक अजनबी रिश्ता, अजनबी ढंग से रोज़ प्यार के अन्तरंग क्षणों में जन्म लेता और सुब्ह होने तक मर जाता । ललिता शशांक की पत्नी होकर भी पत्नी नहीं बन पाई थी। शशांक के साथ प्रेम से सराबोर पलों में भी ब्रैड पिट उसके साथ होता। सोते-सोते अनेक बार तानाशाह ताई जी पैर पटकती, उसे कोंचती सपने में चली आती, तो वह झट से पास लेटे शशांक से लिपट जाती और बड़बड़ाती – ‘’मुझे अकेला मत छोड़ना, मुझे अकेला मत छोड़ना.....।’’ नींद से जागा शशांक भी उसे बाँहों में भरकर प्यार से थपथपाता आश्वस्त करता और ब्रैड पिट के ख़्यालों में रची- बसी ललिता, शशांक की बाँहों में समाती चली जाती। वह उससे इस तरह लिपटी, बाँहों में सिमटी पुन: नींद में खो जाती।
धीरे-धीरे, बीतते समय के साथ ललिता हर पल, पर दिन शशांक और ब्रैड पिट के पृथक अस्तित्व के साथ पूरे होशो-हवास में जीने लगी। अब वह अवचेतना में नहीं अपितु, चेतनावस्था में अपने ‘’प्रिंस चार्मिग’’(ब्रैड पिट) के साथ रहती और जीती थी। वह उसका फ़ुलटाइम ’’आब्शैसन ’’ बन चुका था। जो पहले उसके अवसाद और निराशा का साथी था, अब वह हर क्षण साथ दिलोदिमाग में बना रहता था और उसे कोमल, रुमानी एहसास से भरे रखता।
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‘’ललिता, आज शाम को एक दोस्त के घर डिनर पे जाना है , मैं 8 बजे घर आ जाऊँगा, तुम तैयार रहना’’ – तैयार होते हुए शशांक ने ललिता से कहा।
ललिता ने सूनी आँखों से शशांक को देखते हुए -‘’हाँ ठीक है’’ – कहा और रसोई में चली गई।
ललिता का वैवाहिक जीवन सुखी था। हर तरह की सुख सुविधा थी। शशांक के माता-पिता दूसरे शहर में रहते थे। शशांक से उसे कोई शिकायत न थी। वह अपनी ओर से उसका ख़्याल रखता। जब समय मिलता तो बाहर घुमाने भी ले जाता। फिर भी उन दोंनो के बीच एक अधूरापन था जो तीन वर्ष बीत जाने पर भी उनके वैवाहिक जीवन को सम्पूर्ण नहीं बना पाया था।
शशांक को पता था कि ललिता ब्रैड पिट की फैन है, सो उसने उसकी फ़िल्मों की डी.वी.डी उसके लिए लाकर दी थी जिससे उसके पीछे वह अकेली बोर न होए बल्कि अपने मनपसन्द हीरो की मूवीज़ देखे। ब्रैड पिट की दीवानी ललिता उसकी एक-एक फ़िल्म को कई-कई बार देखती और ‘’ब्रैड पिट आई लव यू ’’, ‘’ब्रैड पिट आई लव यू ’’,‘’ब्रैड पिट आई लव यू ’’...न जाने कितनी बार कहती। नतीजा ये हुआ कि ब्रैड पिट और भी भयंकर रूप से उसके दिलोदिमाग़ में गड़ गया। सोते-जागते, काम करते – हर पल ब्रैड पिट ललिता के ख़्यालों में बना रहता। इन्तहा ये हो गई कि अब वह शशांक की अवहेलना करने लगी।वह अपनी ज़हनी दुनिया में जीती। उसने अपनी एक अलग ही काल्पनिक दुनिया बना ली थी, जिसमें ब्रैड पिट होता और वह होती। यहाँ तक कि उसने शशांक के पास सोना भी बन्द कर दिया। शुरु-शुरु में उसके व्यवहार की बेरुखी शशांक दिनभर काम में लगे रहने के कारण अधिक नहीं जान पाया था, लेकिन उसके गैरो की तरह अलग सोने पर, छूने पे छिटक के अलग हो जाने पर शशांक का माथा ठनका। उसने बहुत सोचा पर उसे कोई कारण दूर-दूर तक नज़र नहीं आया। उसके मन शक उपजा कि शादी से पहले किसी और से तो ललिता प्यार नहीं करती थी...या कहीं अब कोई और तो उसके जीवन में नहीं आ गया....?? वह परेशान रहने लगा। ऑफिस जाता पर काम से उखड़ा-उखड़ा रहता। एक दो बार वह शक़ से बिंधा अचानक घर भी लौट-लौट आया कि कहीं ललिता अपने किसी प्रेमी के साथ उसके पीछे रंगरेलियाँ तो नहीं मना रही। पर घर में उसको अकेला पाकर उसका शक़ भी ग़लत निकला। अब वह और भी परेशान रहने लगा। उधऱ ललिता अपने में बड़ी मगन रहती। खूब सजी सँवरी, खुश रहती लेकिन उसके साथ न कहीं जाती, न उसके निकट आती।
ललिता शशांक में ब्रैड पिट का व्यक्तित्व, उसकी सी मुस्कुराहट, उसके हाव-भाव, उसके देखने का खास अन्दाज़ खोजती और ये सब न पाकर उस पे खीजती। उसके साथ ऱूखा व्यवहार करती। रविवार के दिन तो वह न लंच बनाती, न डिनर । शशांक को डबलरोटी और ऑमलेट पे गुज़ारा करना पड़ता। दरअस्ल ललिता के लिए शशांक को छुट्टी के दिन घर में झेलना मुश्किल हो जाता था। सारे दिन शशांक का यूँ घर में बने रहना उसे नाग़वार लगता । उसके सामने डी.वी.डी. पे ब्रैड पिट की फ़िल्म देखने में भी उसे ख़लल पड़ती महसूस होती, सो वह न डी.वी.डी. देखती, न खाना बनाती,न शशांक से बात करती, यानी के पूरी तरह उसकी उपेक्षा करती और इस हद तक कि शशांक को अपनी अस्तित्वहीनता का एहसास होने लगता। उसके अलावा कौन ललिता के जीवन मे छा गया था जिसके कारण वह उसकी इस बुरी तरह उपेक्षा करती है - वह अक्सर सोचता। पर कुछ समझ न पाता ।
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शशांक ने उसे खुश करने के लिए एक दिन ऑफ़िस से लौटकर डी.वी.डी. पर ब्रैड पिट की फ़िल्म देखनी चाही। तभी उसके हाथ से डी.वी.डी. फ़र्श पे गिरा और चटक गया। यह देखकर ललिता शशांक पर ऐसी आगबबूला हुई कि वह अवाक् देखता रह गया। ब्रैड पिट का डी.वी.डी. ही टूटा था - ब्रैड पिट को तो कुछ नहीं हुआ था। एकाएक शशांक के मन में एक विचार ने दस्तक दी कि उसकी पत्नी ब्रैड पिट के प्रेम में तो गिरफ़्तार नहीं है ? क्योकि ब्रैड पिट का डी.वी.डी. चटकने पर उसने जैसी प्रतिक्रया दी थी वह साफ़-साफ़ बता गई थी कि ललिता ब्रैड पिट के साथ एक ऐसा सघन ज़हनी रिश्ता बनाए हुए है कि उसके आगे वह सारी दुनिया कुर्बान कर सकती है।
ललिता को अपनी फ़ैन्टेसी पे नियन्त्रण नहीं था। शशांक सोचने लगा कि ललिता में यह भावनात्मक असन्तुलन किस कारण से उपजा है जिसका नकारात्मक असर उन दोंनो के वैवाहिक जीवन पे पड़ रहा था। उसकी कौन सी इच्छाओं का दमन हुआ है कि वह कभी बिखरी, कभी उखड़ी, कभी उचटी तो कभी अपने आप में मगन रहती है । उसका होना, न होना तो ललिता के लिए मायने ही नहीं रखता । ललिता का यह मात्र रूखापन था या बेवफाई, शशांक समझने में असमर्थ था। अपने किसी मित्र से इस समस्या को बाँटने में उसे अपमान महसूस होता था। माता-पिता से वह इस बात का ज़िक्र तक भी नहीं करना चाहता था। बहरहाल शशांक ने किसी से कुछ न कह कर ललिता की उस अजीबोग़रीब बेरुखी का बोझ इसी तरह ख़ामोशी से सहने का इरादा किया, इस ख़्याल से कि कभी तो वो दिन आएगा, जब ललिता का दिल उस बेगुनाह पर पिघलेगा।
वह दयनीय बना सोचता कि -‘’ ब्रैड पिट तो मैं बन नहीं सकता, अब यही दुआ की जा सकती है कि ललिता को ब्रैड पिट में - मैं नज़र आने लगूँ या मुझमें उसे ब्रैड पिट नज़र आने लगे । ‘’
रात के 2 बजे थे । ललिता गहरी नींद की आग़ोश में थी पर शशांक से नींद कोसो दूर थी। सिगरेट पीता वह, दूसरे बिस्तर पे सोई ललिता के पास पडी कुर्सी पे जा बैठा। उसके दिमाग़ में अनवरत विचारों के छल्ले और होंठो पे धुएँ के छल्ले बन रहे थे कि तभी ललिता ने खूबसूरत अँगड़ाई ली और करवट बदलती बोली - ‘’ब्रैड पिट आई लव यू.....प्लीज़ डोन्ट लीव मी एवर.... ’’
शशांक जो उस समय सिगरेट की तरह सुलग रहा था, ललिता के वे शब्द सुनकर मनो वह राख होने लगा था... उसके मन में आया कि वह ललिता को झिंझोड़ कर जगाए और कहे – ‘’बट, आई मस्ट लीव यू फॉर एवर…….’’ यह बेरुखाई है या बेवफाई.....वह बुझा बुझा कुछ भी समझ पाने में असमर्थ था ।
(कहानी) जनवादी न्याय
जनवादी, समाजवादी, क्रान्तिकारी कार्यकर्ता, स्थानीय तीन विद्यालयों के संस्थापक, महिला एवं
बालोध्दार गैरसरकारी संस्था के अध्यक्ष – यानी कुल मिलाकर एक ‘ बहुआयामी सामाजिक व्यक्तित्व ‘।
नाम ‘ सम्मान राय ‘। सम्मान राय के घनिष्ठ मित्र ‘ ज्ञानेश्वर द्विवेदी ’, जो शहर के प्रख्यात डिग्री कॉलिज
में समाजशास्र के विभागाध्यक्ष थे और खासे जाने माने प्रतिष्ठित साहित्यकार भी।
सोशल एक्टिविस्ट संयोगिता आज एकबार फिर सुलग उठी। उसकी परिचिता, नवनियुक्त प्रवक्ता ‘नन्दिनी’
तथाकथित जनवादी, समाजवादी, लोकप्रिय व्यक्तित्व सम्मान राय और उनके हमराज़, हमनशीं ज्ञानेश्वर
द्विवेदी की हवस का शिकार बन गहरे अवसाद में डूबी थी। प्रतिरोध करने पर नौकरी जाने से अधिक,
सामाजिक छवि पे हमेशा के लिए आँच आने का भय उसका दम घोट रहा था। अपने रुतबे का इस्तेमाल
करते हुए, मि.राय ने नन्दिनी को आवश्यक कार्य के छद्म जाल में फँसाकर जिस तरह छिन्न-भिन्न
किया था – वह उस घटना को दिलोदिमाग़ से मिटा देने के लिए मौत को गले लगाना चाहती थी। इस
योजना के पीछे मास्टर माइन्ड था - ज्ञानेश्वर द्विवेदी का। बामुश्किल संयोगिता ने नन्दिनी को
सम्भाला। इससे पूर्व एक संघर्षरत युवती को लेखन के क्षेत्र में पाँव जमाने को आतुर देख इन दोनो
शातिरों ने मिलकर उसे कामक्रीड़ा का खिलौना बनाया था। इस ‘ दुर्घटना ‘ के बाद वह अनुभवहीन
युवती अपने असली लक्ष्य से भटककर इन दो जनवादी महानुभावों द्वारा देहभोग के दलदल में ऐसी
धँसती गई कि चाह कर भी कभी उबर न पाई।
सम्मान राय और ज्ञानेश्वर द्विवेदी के समाजवादी – परोपकारी रूप के पीछे छिपा कामलोलुप भेड़िया
शिकार दबोचने के लिए हर पल मुँह बाए तैयार रहता था। उनका यह असली रूप उनके ख़ासमख़ास
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लोगों तक ही उजागर था, वरना शेष पर वे अपनी ऊँची छवि की धाक जमाए आदर और सराहना के
पात्र बनते रहते थे। तीन वर्ष पूर्व केरल के ग़रीब घर की किशोरी ‘कुंजमणि’ दिल्ली के नामी अस्पताल
में नौकरी पाने के लिए सम्मान राय के पशु की ऐसी बलि चढ़ी कि तब से अब तक बलि चढ़ते-चढ़ते
बेचारी चरमरा गई है लेकिन वह दानव आज भी अपने दोस्त द्विवेदी के साथ उस निरीह को चूसने से
बाज़ नहीं आता। ये तो मात्र कुछ उजागर क़िस्सों का ही हवाला है, दबे छिपे किस्सों की तो शायद गणना
ही नहीं हो सकेगी।
इन दोनों महानुभावों की कुत्सित हरकतों की शिकार नारियाँ अक्सर बदनामी के डर से
मूक बनी जीती रही हैं या फिर इनके चंगुल से बच निकलने के चक्कर में शहर छोड़ कर, कहीं गुमनाम
ज़िन्दगी जीने के लिए मजबूर हुई हैं। जब 2005 में वन्दना नाम की कॉलेज छात्रा ने फाँसी लगाकर
आत्महत्या कर ली थी, तो सम्मान राय और ज्ञानेश्वर द्विवेदी का नाम इस हादसे को लेकर बहुत उछला
किन्तु कहा जाता है कि बाद में पुलिस ने इनसे बहुत मोटी रक़म डकार कर मामला ऐसा रफ़ा-दफा
किया कि आज तक उसकी मौत का सही कारण पता नहीं चल पाया ।
प्रखर और संवेदनशील संयोगिता किसी के भी साथ होने वाले ऐसे शोषण और अन्याय का
विस्तृत ब्यौरा अपने दिलोदिमाग़ में ख़ामोशी से दर्ज़ करती जा रही थी और उस सही वक्त की तलाश में
रहती थी कि कब अन्यायियों को निरीह लोगों के शोषण का दण्ड दे। उसका सोचना था कि ‘सम्मान
राय’ और ‘ज्ञानेश्वर द्विवेदी ‘ का पाप-कुम्भ जब गले तक भर जाएगा तो वह उसे फोड़कर चकनाचूर कर
देने का नेक काम करते देर नहीं करेगी और उसे व उसके उतने ही नीच साथी ‘ज्ञानेश्वर द्विवेदी ‘ को
ऐसा सबक़ सिखायेगी कि वे दोंनो औरत की रुह से भी काँपेगें। संयोगिता ने सोचा कि ऐसी शातिर
छलिया जोड़ी को छल से ही दबोचा जाना न्यायोचित है। इन दोनो को वह पलायन का कोई मौका नहीं देना चाहती थी।
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दिन भर के काम से थकी, संयोगिता एक कप कॉफ़ी पीने के लिए कनॉटप्लेस के कॉफ़ीहाउस में एक
कोने की टेबल पे अपेक्षाकृत शान्त सी जगह देखकर बैठ गई। कॉफी की प्रतीक्षा करती बैठी थी कि तभी
सम्मान राय अपने दल-बल सहित कुछ दूरी पर कुर्सियों पे जम गए। अब तक संयोगिता की कॉफ़ी आ
गई थी। पलक झपकते ही सम्मान राय की टेबल पर भी कॉफ़ी और स्नैक्स आ गए। उन सबकी कॉफ़ी
और स्नैक्स पर ‘सैक्स’ की दबे स्वर में चर्चा होने लगी। उन लोगों का दबा स्वर भी इतना ऊँचा था कि
संयोगिता तक उनकी बातें स्पष्ट पहुँच रहीं थी। वह जंगली झुंड औपचारिकतावश बीच-बीच में राजनीति
और सामाजिक मुद्दों को भी घसीट रहा था, पर घूम फिर कर अपने चहेते विषय पे उतर आता था।कभी
कोड मिश्रित भाषा में तो, कभी बकबक की मदहोशी में खुल्लमखुल्ला वे सब चटखारे ले लेकर नारी
चर्चा करने में लगे पड़े थे। संयोगिता उनकी गिरी हुई सोच, उनकी बुध्दि की कंगाली से छटपटा रही
थी। स्त्री और पुरुष के सहज पाक रिश्ते को सम्मान राय और उनके परममित्र ज्ञानेश्वर द्विवेदी
अपने चाटुकारों के साथ मिलकर जिस तरह कीचड़ से मथ रहे थे, उसे सुनकर संयोगिता जिस तरह
आगबबूला हो रही थी, उसे तो बस वही जानती थी। उसे लगा कि ये मनुष्य हैं या पशु ! क्या ईश्वर
मनुष्य के रूप में ऐसे निकृष्ट जीव भी बना सकता है ? उसे वे पशु जाति में भी - निपट ‘जंगली
जानवर’ नज़र आए, जिनके समाज में न रिश्ते होते हैं, न बंधन, न सोच, न विवेक - बस सारे कार्य
देह के स्तर पर होते हैं। जब वे जठराग्नि और कामाग्नि से आन्दोलित होते हैं तो सीधे सामने वाले
को अपना निवाला बनाते हैं। संयोगिता को लगा ऐसे ही कुछ पशु कॉफ़ी हाउस में धरना दिए बैठे
है जो नग्न वार्तालाप से अपनी चिरज्वलन्त और अतृप्त कामक्षुधा को बहला रहे हैं। संयोगिता ने
अपनी कॉफ़ी कड़वाहट के साथ गटकी और वहाँ से तीर की तरह उठ सीधे बाहर आ गई। सामाजिक
कार्यकर्ता के रूप में संयोगिता की पहचान अभी धीरे-धीरे बन रही थी। निश्चित रूप से उस क्षेत्र की
वह आने वाले समय की एक अद्भुत साहसी सैनिक थी। पीड़ित नारी हित में वह सम्मान राय और
ज्ञानेश्वर द्विवेदी जैसे घटिया लोगों के घिनौने चेहरे समाज के सामने उघाड़ देना चाहती थी। वह
अक्सर यह सोचकर हैरान होती कि समाज का चिन्तनशील, संवेदनशील वर्ग ऐसे नक़ली जनवादी और
समाजवादी लोगों की कुत्सित गतिविधियों से वाक़िफ़ होकर भी, उनके ख़िलाफ़ और पीड़ितों के पक्ष में
कोई दमदार क़दम क्यों नहीं उठाता ? क्यों ऐसे वाकयों को नज़रअन्दाज़ करते बैठा रहता है ? समाज
के लोग सम्मान राय और ज्ञानेश्वर द्विवेदी जैसे गुनहगारों का क्या सोचकर लिहाज करते चले जाते हैं
और वे बेशर्म एक के बाद एक गुनाहों का ढेर लगाते जाते हैं। यदि समाज का संभ्रान्त विचारशील वर्ग
हर उम्र की औरतों के साथ घटती हैवानी वारदातों को सिर्फ़ अपनी आलोचना, अफ़सोस और भर्त्सना
तक सीमित न रख, उनके विरोध में दृढ़ संकल्प के साथ उठ खड़ा होए तो निश्चित रूप से सम्मान राय
और ज्ञानेश्वर द्विवेदी जैसे ‘ रुग्ण तत्वों ‘ की हिम्मत टूटे, उनकी बेलगाम ज़ुबान खुलने से पहले
हज़ार बार सोचे और वे औरतों के प्रति अपना नज़रिया बदलने पे विवश होए। संयोगिता का आक्रोश
मात्र खेद या गुनहगारों की आलोचना तक ही सिमट कर नहीं रह जाना चाहता था, अपितु वह पूरे
दम-ख़म से उन दानवों को ऐसी धूल चटा देना चाहती थी कि भविष्य में वे जनवादी-समाजवादी
मुलम्मे को चढ़ाए सारी एय्याशी करना भूल जाए।
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“क्या मैं अन्दर आ सकती हूँ “ – संयोगिता ने सम्मान राय के विशाल कार्यालय परिसर में बने
पंचसितारा शैली में सजे धजे ऑफ़िस के विज़िटर रूम में हर कूटनीति के साथ धड़ल्ले से प्रवेश
किया। विज़िटर रूम से अटैच्ड, अपने ग्लेज़ड कमरे में सम्मान राय ने अतिथि कक्ष में आने जाने वाले
अतिथियों पे – ख़ास तौर से महिला अतिथियों पे सरसरी नज़र डालते रहने के लिए शातिर प्रबन्ध
किया हुआ था। कोई उन्हें भा गई तो क्रम भंग करके वे इन्टरकॉंम से सेक्रेटरी को आदेश देकर
उसे अपने कमरे में पहले बुला लेने की ख़ास अनुकम्पा करते थे। संयोगिता के साथ भी उन्होने
यही किया। मुश्किल से वह पाँच मिनट ही विज़िटर रूम में बैठी थी कि तभी अन्दर उसके लिए बुलावा
आ गया। छरहरी देहयष्टि वाली संयोगिता आत्मविश्वास के ऊपर भोलेपन का मुखौटा चढ़ाए, सम्मान
राय के भव्य कक्ष में पहुँची। सम्मान राय उसे अपने प्रेम छलकाते नेत्रों से निगलते हुए, औपचारिक
शालीनता का छींटा देते हुए बोले –
“आइए, आइए,बैठिए। आपका शुभनाम ?“
“ जी, संयोगिता ‘’
“कहिए में आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ?”
“सर, आप ऐसा कहकर मुझे शर्मिन्दा मत कीजिए प्लीज़। मैं तो बस एक छोटी सी मदद की
आशा से आपके पास आई हूँ।“
“ अरे, नहीं, नहीं छोटी क्यों भरपूर मदद लीजिए, हम तो है ही समाज सेवा को समर्पित। वैसे आप करती
क्या हैं – समाज-सेविका, शिक्षिका, लेखिका या (मन ही मन में - मृग मरीचिका) “ – सम्मान राय
चाटुकार की भाँति बोले।
“जी मैं स्वैच्छिक कार्यकर्ता हूँ “ – संयोगिता ने लजाने का नाटक करते हुए कहा – “हाल ही में
अनाथाश्रम के बच्चों के मनोविज्ञान के अध्ययन के लिए जब मैं उनके आश्रम गई तो मैंने उनका
जीवन रोज़मर्रा की छोटी-छोटी सुविधाओं से रहित पाया। उस तंग हालत में उन्हें यूँ जीते देख मेरा
दिल भर आया। मैंने आपकी अनेक बार अनेक लोगो से बड़ी प्रशंसा सुनी थी कि आप ज़रूरतमन्दों
के मसीहा हैं, सो मैं उन बच्चों के लिए आशा सँजोए आप के पास आई हूँ कि यदि आप कुछ
आर्थिक सहायता कर दें तो वे बच्चे बेहतर जीवन जी सकते हैं।“
संयोगिता के मीठे स्वर से इस तरह अपनी प्रशंसा सुनकर सम्मान राय बड़े गदगद हुए। ऐसी संस्थाओं
को लाख दो लाख रुपये देना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी। उनका मन तो बल्लियों उछल रहा था
कि इस दान-राशि से इस ‘कोमलांगी’ को उपकृत करके, आने वाले समय में इसका रसपान करने का
मौका ज़रूर हाथ लगेगा। उनकी मन ही मन अपनी अलग ही प्लानिंग चल रही थी। सम्मान महाशय ने
बिना किसी देरी के इन्टरकॉम पर अपनी सेक्रेटरी को अन्दर आने का आदेश दिया। सेक्रेटरी के अन्दर
आने पर वे संयोगिता से बोले –
“क्यों मैडम, पचास हज़ार, अस्सी हज़ार या एक लाख - कितने का चैक दूँ ”
“सर, जो आप आसानी से दे सकें – पचास से भी काम चल जायेगा, मैं सोचती हूँ “ – संयोगिता संकोच
से बोली।
“एक लाख से कम भी क्या देना” –सम्मान राय ने संयोगिता को अपनी दानवीरता में लपेटने की दिली
इच्छा से सेक्रेटरी को एक लाख का चैक तैयार करने का आदेश दिया और दो कप कॉफ़ी भेजने के ले
भी कहा।
पैनी बुध्दिवाली संयोगिता मन ही मन सम्मान राय पे मुस्कुराती अपने अगले पैतरे के लिए तैयार हो
चुकी थी। कॉफ़ी के कारण वह उस हीन व्यक्ति के साथ अब और अधिक देर वहाँ बैठकर अपना समय
नहीं गंवाना चाहती थी, सो उसने ज्यों ही उठना चाहा, सम्मान राय लगभग उसे जैसे पकड़ कर बैठाने
को आतुर सा बोला –
“अरे, आप कहाँ चली मैडम, सेक्रेटरी चैक यही लाकर देगी। कॉफ़ी भी आती होगी।“
“नहीं सर आपके और भी मिलने वाले बाहर इन्तज़ार करते बैठे हैं, कॉफ़ी फिर कभी सही, आपने इतनी
बड़ी राशि दी, इतना ही बहुत है और चैक के लिए मैं विज़िटर रूम में प्रतीक्षा कर लूंगी। “
“अरे,रे,रे,रे ये आप क्या कह रही हैं, विज़िटर रूम में क्यों, आप यही प्रतीक्षा करेगी। बस चैक आता ही
होगा और कॉफ़ी भी। देखिए, ज़रूरतमन्दों की तन,मन,धन से मदद करना हमारा फ़र्ज है। भविष्य में भी
कभी भी किसी तरह की मदद की आवश्यक्ता हो तो आप बेझिझक मेरे पास आइए।“
इतने मे कॉफ़ी आ गई । संयोगिता को न चाहते हुए भी रुकना पड़ा। कॉफ़ी पीते हुए सम्मान राय
संयोगिता के बारे में व्यक्तिगत जानकारी हासिल करता रहा। संयोगिता ने भी जानबूझकर सम्मान राय
को ऐसी जानकारी दी कि उसे वह एक निरीह, अकेली और अपने कार्यक्षेत्र में आगे बढ़ने की इच्छुक
नज़र आई। कुछ ही क्षणों में चैक भी आ गया । सम्मान राय ने अपने हस्ताक्षर करके बड़े ही
विनम्र अन्दाज़ में संयोगिता को चैक थमाया।संयोगिता झटपट उठ खड़ी हुई। उसे जाने के लिए उतावला
हुआ देख, सम्मान राय हड़बड़ाया सा बोला –
“हाँ, अपना फोन नम्बर, और पता सेक्रेटरी को नोट करा दीजिएगा और सम्पर्क में रहिएगा । और यह
भी याद रखिएगा कि आपका और मेरा कार्यक्षेत्र लगभग एक सा ही है। हम दूसरों की सेवा करते हुए
बहुत आगे निकल सकते हैं।“
“जी, जी, क्यों नहीं, आपने सही फ़रमाया। में जल्द ही आपसे मिलूँगी। अच्छा, सर बहुत-बहुत धन्यवाद”
और वह नमस्कार करती वहाँ से तुरन्त निकल गई।
बाहर सम्मान राय की वफ़ादारी से ड्यूटी बजाने वाली सेक्रेटरी ने तेज़ी से जाती संयोगिता को
“एक्सक्यूज़ मी” कह कर रोका और उसका फोन नम्बर और पता डायरी में नोट किया तथा रजिस्टर में
चैक प्राप्ति के हस्ताक्षर भी लिए।संयोगिता तो अपना मोबाइल नंबर देने को तैयार ही थी जिससे आगे
की योजना कामयाब हो सके।
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दो दिन बाद संयोगिता के मोबाइल पे एक अपरिचित नम्बर से कॉल आई। संयोगिता ने “हैलो” कहा
तो उधर से पुरुष स्वर लहराया – “ संयोगिता जी मैं सम्मान राय बोल रहा हूँ कैसी हैं आप ?
“जी मैं ठीक हूँ” – उसे मन में कोसती संयोगिता ने छोटा सा जवाब थमाया।
“यह मेरा व्यक्तिगत मोबाइल नंबर है, आप सेव कर लीजिएगा। ऐसा है कि शनीवार को मैंने शहर के
समाजसेवी कार्यकर्ताओं व कुछ परिचित मित्रों को रात्रि भोज पर बुलाया है, आप भी उसमे सादर
निमंत्रित हैं।“ सम्मान राय रस घोलते से बोले।
“सर, मैं इस पार्टी मैं क्या करूँगी। मैं किसी को जानती भी नहीं” – संयोगिता ने संवाद जड़ा।
“अरे संयोगिता जी, इसलिए तो आपका आना और भी ज़रूरी है। इस पार्टी में सबसे आपका
परिचय हो जाएगा। देखिए आपको आना ही है।“
“जी, अच्छा आ जाऊँगी “ – अपनी अगली चाल के लिए तैयार संयोगिता ने सम्मान राय को आशस्वत
करते हुए कहा।
संयोगिता की योजना कामयाबी की ओर बढ़ रही थी। वह अदम्य जोश से भरी थी, किन्तु पूरे होश के
साथ....। नारी उध्दार के नाम पे नारी का जंगली जानवर की तरह शोषण करने वाले तथाकथित
शिक्षित, सभ्य, विचारशील, समाजवादी, जनवादी उन दो प्रतिष्ठित मर्दों का घिनौना रूप वह शीघ्र ही
समाज के सामने लाने वाली थी। सम्मान राय और ज्ञानेश्वर द्विवेदी की कामक्रीड़ा की बलि चढ़ी, कलपती
आत्मा और देह का बोझ ढोती नारियों की ओर से संयोगिता उन दोंनो के मुँह पे हमेशा के लिए एक
ऐसा करारा तमाचा जड़ने को कटिबध्द थी, जो हमेशा उन्हे काली करतूतों की याद दिला कर, उन्हें इतना
भयबिध्द करे कि भविष्य में वे नारियों का शोषण करना भूल जाएँ। साथ ही प्रतिरोध न कर सकने
वाली स्त्रियाँ और कुछ कर पाने में असमर्थ हों तो कम से कम आत्मरक्षा की तो हिम्मत जुटा पाए।
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इन चार दिनों में संयोगिता ने बेहद समझदारी और चतुरता से सम्मान राय और ज्ञानेश्वर द्विवेदी के
ख़िलाफ़ ‘भांडाफोड़ अभियान’ की पूरी तैयारी कर ली थी। इन्तज़ार की घड़ी बीती और शनीवार का दिन
भी आ पहुँचा। 8 बजे तक संयोगिता सम्मान राय के आलीशान बंगले के खूबसूरत लॉन में आयोजित
पार्टी में पहुँच गई।
संयोगिता ने देखा कि महाशय ने लम्बी चौड़ी पार्टी न रख कर, सिर्फ़ 20-25 लोगों की छोटी सी
डिनर पार्टी रखी थी। अब तो वह अच्छी तरह समझ गई थी कि यह डिनर मात्र उसे चंगुल में फंसाने
का एक बहाना थी। सो वह भी तैयार थी अपने वार के लिए। आज उसे देखना था कि कौन बाज़ी
मारता है – नारियों के भक्षक सम्मान राय और ज्ञानेश्वर द्विवेदी या नारी जाति की रक्षक वह
स्वयं......!
पार्टी बड़े ढंग से शुरू और ख़त्म हु ई। सम्मान राय ने सबसे संयोगिता का परिचय करवाया।
10 बजे तक वह भी सबसे औपचारिक बातें करती अपने को व्यस्त रखती वहाँ बनी रही। जैसे जैसे
समय आगे खिसकने लगा उसने अपने घर जाने की आतुरता दिखाई, तो सम्मान राय और साथ-साथ
ज्ञानेश्वर द्विवेदी भी निहायत ही तहज़ीबदार लहज़े में उससे कुछ देर और रुकने का निवेदन करने
लगे। उसने एक दो बार तो अपनी विवशता जताई,लेकिन बाद में उन पे एहसान करती रुकने को तैयार
हो गई। सम्मान राय ने उसे यह कहकर और निश्चिन्त किया कि उनका ड्राइवर उसे घर तक छोड़ कर
आएगा। सम्मान राय और ज्ञानेश्वर द्विवेदी ने उसके रुकने पर पक्की मोहर लगाने के लिए यह भी
कहा कि एक ज़रूरी सोशल प्रोजेक्ट है,जिसे उन दोनो को उसके साथ डिस्कस करना है और ऐसी चर्चा
सबके जाने के बाद शान्ति से ही हो सकती है। संयोगिता उनके एक-एक दाँव पेंच को भाँपती हुई,
आज्ञाकारी बालिका की तरह सिर हिलाती उनकी हाँ में हाँ मिलाती रही ।
कुछ ही देर में एक-एक करके सारे मेहमान चले गए। बस वे दो महान जनवादी-समाजवादी आत्माएँ
और संयोगिता - वहाँ रह गए। सम्मान राय और ज्ञानेश्वर द्विवेदी संयोगिता को सप्रेम ड्रॉइंगरूम में ले
गए। आदत के अनुसार सम्मान राय ने अपने ख़ानसामा से तीन कप कॉफ़ी लाने को कहा। कॉफ़ी किसे
पीनी थी। कॉफ़ी आने पर ख़ानसामा को छुट्टी दे दी गई। यह तो आगे की गतिविधियों की भूमिका थी,
संयोगिता अच्छी तरह जानती थी। सम्मान राय सोफे में धंसा समाज-सेवा की परियोजना की दिखावटी
चर्चा करने लगा और ज्ञानेश्वर द्विवेदी पास बैठा एक पत्रिका के पन्ने पलटता रहा। भूमिका बने वे पल
धीरे-धीरे आगे सरकने लगे। संयोगिता ने लॉन से अन्दर आते हुए अपने नियत सहायकों को फोन
कर दिए थे कि वे दलबल सहित बंगले के आस-पास तैयार रहें। इतने में ज्ञानेश्वर द्विवेदी उठकर
अन्दर गया और चुपचाप शराब के दो पेग चढ़ाकर आया, क्योंकि जब वह ड्रॉइंगरूम में वापिस आया
तो सोफे पे बैठते समय शराब की तीखी गंध की लहर संयोगिता तक पहुँच गई थी। इसके बाद
सम्मान महाशय अन्दर गए और सोमरस पान करके आए। पर वे साथ में मुँह में इलायची चबाते आए।
दोनों को बद् दुआ देती संयोगिता मन ही मन कह रही थी कि देखते हैं कि कौन किसको मात देता
है। अभी पता चल जाएगा। दोनों फिर से बेसिर पैर की समाजसेवा की बातें करने लगे। इतने में दोनो
पर शराब का सुरूर चढ़ने लगा था। सम्मान राय संयोगिता से मुख़ातिब हो बोला –
“संयोगिता जी, क्या मैं आपको “तुम “ कह सकता हूँ ?”
“ “क्यों नहीं सर, आप इतने बड़े हैं.....” - संयोगिता ने उसे मूर्ख बनाते हुए कहा।
यह संयोगिता के निकट आने की छूट का पहला संकेत था। । सम्मान राय और ज्ञानेश्वर द्विवेदी जैसे
बेशर्म लोगों को कोई स्त्री एक इंच छूट दे तो, दूसरी तीसरी बड़ी छूट तो वे स्वयं झपट लेते हैं।
सम्मान राय और ज्ञानेश्वर द्विवेदी सोमरस के मद से बहके-बहके, क़तरा-क़तरा खुलते जा रहे थे।
उनके अन्दर विलोड़ित वासना की तरंगों ने अब उछल-उछल कर पछाड़ खानी शुऱू कर दी थी। संयोगिता
सतर्क थी। इस शह और मात की जंग में एकाएक उभरी स्थिति में कहीं-कही वह भी छोटी-मोटी मात
खाने को मानसिक रूप से तैयार थी। किन्तु अन्तत: वह उन दोनों को प्रतिशोध की आग से भरे अपने
वार के आगे पूरी तरह पराजित देखना चाहती थी। तभी सम्मान राय होंठो पे एक कुटिल मुस्कान और
आँखों में काम के शोले लिए संयोगिता के पास आया और पलक झपकते ही उसकी कमर में हाथ
डालकर, उसे अपनी बाँहों में भर लिया। संयोगिता कसमसाई और अपने को उसकी जकड़ से छुड़ाती
बोली –
“अरे, आप ये क्या कर रहे हैं... छोड़िए मुझे...”
“ कुछ नहीं, थोड़ा तुम्हें दुलार रहा हूँ, तुम हो ही इतनी प्यारी.... “
“ सर, प्लीज़ दूर हटिए, छोड़िए मुझे....आप तो मुझसे सोशल प्रोजेक्ट डिस्कस कर रहे थे। ये आप को
एकाएक क्या हो गया ?? छोड़िए मुझे.......मुझे घर जाना है।“
“चली जाना, चली जाना, पर ज़रा हमें कृतार्थ तो कर दो डियर.. “– सम्मान राय , ज्ञानेश्वर की तरफ़
अर्थपूर्ण नज़रों से देखता और भद्देपन से ठहाका लगाता बोला।
संयोगिता की कलाई पे कामभाव से अभिभूत सम्मान राय की हाथ-तोड़ पकड़ ने संयोगिता के काँच के
नाज़ुक कड़े को इतनी ज़ोर से चटकाया कि वह तड़ाक से दो टुकड़ों में खिल गया और उसने अपने टूटे
नुकीले कोनों से उसकी कलाई पे एक अर्ध्दगोलाकार रक्तरंजित लकीर खींच दी। संयोगिता ने दर्द को
ज़ब्त करते हुए, पूरा ज़ोर लगाते हुए सम्मान राय की पकड़ से ज्योंहि अपना हाथ छुड़ाया, तो उस
वहशी ने उसकी बाँह लगभग भींचते हुए पकड़ ली। इस पकड़-धकड़ में इस बार संयोगिता के ब्लाउज़
की बाँह पे लगी लेस उधड़ कर लटक गई।
“ चलो डार्लिग गर्ल, बैडरूम में चलो, अच्छे बच्चे ज़िद नहीं करते, बड़ों का कहना मानते हैं.. ऐ, ज्ञान
किधर गया तू.. “
तभी एकाएक उठकर अन्दर गया ज्ञानेश्वर बैडरूम से बोला – “बड़े भाई, मैं यहाँ शुभ काम की शुरुआत के
लिए तैयार हूँ आप ‘’ उर्वशी ‘’ को बस अन्दर ले आइए।“
सम्मान राय संयोगिता के साथ लपट झपट करता बैडरूम में घुसा तो संयोगिता ने ऊपर से नीचे तक
निर्वस्त्र खड़े ज्ञानेश्वर को देख कर लज्जा से मुँह मोड़ लिया। उत्तेजना से बौराये सम्मान राय ने भी खींच-
खींचकर अपना चीर हरण शुरु कर दिया। इससे पहले की उन दोनो में से कोई संयोगिता पे झपट्टा
मारता और उसका चीरहरण शुरू करता, प्रत्युतपन्नमति संयोगिता अपने ‘’तुरत न्याय अभियान’’
के प्रति सचेत होती, स्वयं को अपने ‘ मिशन ‘ पे साधती, बहाने से वॉशरूम में चली गई और वहाँ
से अब तक बंगले के बाहर पहुँच चुके प्रतिनिधि अख़बारों और टी.वी. चैनलों के रिपोर्टर्स को मोबाइल
से तुरन्त ड्रॉइंगरूम औऱ वहाँ से बिना किसी देरी के बैडरूम में धावा बोलने का संकेत दिया। बाहर तैयार
चार पाँच विभिन्न एन.जी.ओ. के कार्यकर्ताओं सहित रिपोर्टर्स की भीड़ टी.वी. कैमरो सहित धड़धड़ाते हुए
अन्दर आ गई।
उन सबके आने का शोर सुनते ही वॉशरूम से संयोगिता भी शेरनी बनी उन सबके बीच पहुँच गई और
उसने सम्मान राय व ज्ञानेश्वर के शटाक-शटाक करारे-करारे दो तीन तमाचे जड़ दिए और वहाँ
उपस्थित भीड़ को उसने, अपने साथ हुई ज़ोर ज़बरदस्ती और उन दोनो की बदनीयती का प्रमाण देते हुए
अपनी कटी हुई कलाई और ब्लाउज़ की बाँह की उधड़ी लेस दिखाई। वह रोष से भरी भीड़ से मुख़ातिब
होकर बोली कि अग़र वह अपनी सुरक्षा के प्रति सतर्क न होती और हिम्मत से काम न लेती तो, आज
उसके साथ भी वैसी ही अनहोनी घटती, जैसी अन्य कई औरतों के साथ घट चुकी थी। दोंनो उस भीड़
को देख कर वैसे ही हतबुध्दि से खड़े थे, उस पर संयोगिता के तमाचों से और भी सकपका
गए। दोंनो नग्न मर्दों की ‘बेचारी’ सूरत देखने लायक थी। संयोगिता की आँखों के सामने इन दोनों की
हवस की शिकार बनी औरतों का दर्द और नन्दिता का अवसाद से भरा चेहरा घूम गया। इन
छिछोरों का कॉफ़ी हाउस वाला घटिया वार्तालप उसके कानों में गूँजने लगा। क्रोध से तमतमाई दुर्गा
रूप धारण किए वह बोली –
“चालबाज़ो, सोशल प्रोजेक्ट के बहाने मुझे पार्टी में बुलाकर अपनी हवस का शिकार बनाना चाहते थे ?
उस दिन कॉफ़ी हाउस में बैठे क्या कह रहे थे कि औरत भोगने के लिए होती है। वासना शान्त करने
का ख़ूबसूरत यंत्र होती है। और ये हज़रत – ज्ञानेश्वर द्विवेदी छात्रों को आदर्श का पाठ पढ़ाते हैं,
समाजशास्त्र पढ़ाकर समाज के मार्गदर्शक बनते हैं और ख़ुद ये क्या गुल खिला रहे हैं – इनका कहना है
कि स्त्रियाँ मर्दों को चूस डालती हैं। हर जवान और सुन्दर लड़की चाहती है कि उसे रेप किया जाए।“
संयोगिता ने ज्ञानेश्वर द्विवेदी को ताड़ना देते हुए कहा –
“तू नारी मुक्ति का पक्षधर बनता है और घोषणा करता है कि नारी की मुक्ति की यात्रा देह से शुरू
होती है। जब वह उन्मुक्त होकर अपनी देह का उपयोग करती है, बस तभी से उसकी मुक्ति यात्रा रफ़्तार
पकड़ लेती है। औऱ सम्मान राय, तूने उसके जननी रूप की खिल्ली उड़ाई –उसके उदात्त जननी रूप को
बाज़ारू बना दिया। उसे सामूहिक सम्भोग की वस्तु करार कर दिया तूने ? तू माँ के ममत्व, बहन के
स्नेह, बेटी की मासूमियत सबको घोल कर पी गया, नीच, पापी...। तुम दोनो ने मिलकर उस पे भोग
की चीज़ का ठप्पा लगा दिया। नाम “सम्मान राय” और काम स्त्री को हर तरह से हर रूप में
अपमानित करना.....! दिन के उजाले में जलसों, सामाजिक समारोहों में नारी उध्दार की, नारी मुक्ति की
बड़ी-बड़ी बातें बनाना और रात के अँधेरे में उसी नारी की इज़्ज़त से खेलना। “
सम्मान राय और ज्ञानेश्वर ऐसे हो रहे थे कि काटो तो खून नहीं। दोंनो कुन्द बुध्दि से आँखें नीची
किए जड़वत् खड़े थे। आज तक ऐसी मात उन्होंने कभी नहीं खाई थी। तभी भीड़ में से एक महिला
संस्थान की सदस्या तैश खाई आगे आकर उन दोनो पे चिल्लाई –
“तुम दोनो नारी मुक्ति के दिन रात डंके पीटते थे। इन प्रोफैसर जनाब ने नारी मुक्ति पे बड़े-बड़े लेख
और कहानियाँ लिख कर नाम भी कमाया, पर अब ये नारी शक्ति का भी जायज़ा ले लें। संयोगिता जी
आपने आज इन दो जानवरों के असली चेहरों से हमें वाकिफ़ कराके बहुत बड़ा धर्म का काम किया है।“
वह पुन: ज्ञानेश्वर द्विवेदी की तरफ़ पलटी और चीखती सी बोली –
“नीच, तेरी दृष्टि नारी की देह तक ही अटक के रह गई। तेरी कुत्सित सोच औरत को 24 घन्टे, 365
दिन मात्र कामांगना के रूप में ही देख पाई, इसके लिए वो दोषी नहीं बल्कि तेरा मैला मन ज़िम्मेदार
है। लम्पट,तू काम,वासना, नारी देह और भोग के अलावा कुछ और न सोच पाता है और न देख पाता
है। “ अब उसने सम्मान राय को घूरते हुए कहा –
“ और तुझे सीता, सावित्री, पार्वती, दुर्गा के रूप में नारी का सौम्य, कर्तव्यनिष्ठ, समर्पित, कलुषनाशक
खरा रूप कभी याद नहीं आया, बस ज़हन में उसका भोग्या रूप ही अठखेलियाँ करता रहा.....“
तभी संयोगिता गरजती बोली – “क्योंकि इन दोंनो का “मायोपिक विज़न” उसके आगे कुछ देख ही नहीं
पाता। ये उन शूकरों की भाँति हैं, जो पल छिन घूरे में घुसे रहते हैं। अबोध, कमज़ोर, विवश, कमउम्र
स्त्रियों को समाज के ऐसे ही ठेकेदार कॉलगर्ल, बारगर्ल, वेश्या, हर तरह के मार्ग का पाथेय बना कर
उनकी इज़्ज़त लूटा करते है, उनके जीवन के साथ खिलवाड़ करते हैं, और इतना ही नहीं, उनसे अपना
उल्लू सीधा करके, उन्हें तरह-तरह से बदनाम करने से भी बाज़ नहीं आते। कमज़ोर और परिस्थिति की
शिकार औरतें तुम जैसों का निवाला बन के रह जाती है - चाहते हुए भी न बदला ले पाती है, और न
किसी तरह का विद्रोह कर पाती हैं। उनकी उस विवश चुप्पी के पीछे तुम पापियों के लिए ऐसी बददुआएँ
सुलगती रहती हैं, जिनके कारण बदला लेने के लिए हम जैसी दबंग महिलाएँ तुम्हारे सामने आकर खड़ी
हो जाती हैं। ऐ फ़रेबी समाजवादी, जनवादी चिन्तक, विचारक, लेखक, समाजसुधारक, दलितों के मसीहा
आज तुम दोनो के कुकर्मों का पिटारा दुनिया के सामने खुलने जा रहा है। आज हम सब तुम्हें
अनावृत कर, तुम्हारे घृणित व कुत्सित अन्तरतम को चाक करके सबके सामने दिखाने जा रहे हैं
जिससे समाज तुम्हारी हीन हरकतों के लिए तुम दोंनो को कड़ी से कड़ी सज़ा दे और तुम्हारी जैसी
सोच वाले, नारी से जुड़े हर पवित्र रिश्ते की बलि चढ़ाकर, उसे निगलने की लालसा रखने वाले और लोग
भी तुम दोंनो का यह हश्र देख कर चेत जाए और पहले से ही तौबा कर लें।“
कवरेज करता एक टी.वी, रिपोर्टर कैमरा घुमाता व रिकार्डिंग करता बोला –
“एक बड़ी पुरानी, बार-बार दोहराई जाने वाली कहावत है कि ‘भगवान के घर में देर है, अँधेर नहीं’,
सो आज बहादुर और सजग संयोगिता जी ने एक बार फिर यह कहावत सही सिध्द कर दिखाई है। “
संयोगिता फिर भड़की – “अरे तुम्हारी नज़र सिर्फ कचरा खोजने में माहिर है, उसमे सिर्फ और सिर्फ
कचरा ही क्यों समाता है ? तुम्हारी आँखें अच्छाई देखने और सोचने की क्षमता से रहित क्यों है। क्या
अच्छाई की चौंध वे झेल नहीं पाती ? तुम दोंनो अपने मनोमस्तिष्क का इलाज करवाओ, तुम रुग्ण हो।
काले दिल, काली सोच, काले भाव, काले विचार, काली करतूतों वाले दरिन्दों अब ख़ामोश क्यों हो, आओ,
काली माँ के इस रूप को भी गले लगाओ,जब तुम्हें हर तरह की कलौंस से इतना प्यार है तो डर क्यों
रहे हो, क्यों इतने भयग्रस्त हो अब ? तुम दोनो के पसीने क्यों छूट रहे हैं। ये अबला नाम की ‘ बला ’
अब तुम दोंनो से झेली नही जा रही ? अब तक नारी को बहुत भोगा, अब तुम दोंनो दण्ड भोगो। तुम
जैसे विकट पापियों को तो नरक भी जगह देता घबराएगा। अच्छा हो कि तुम्हे किसी भी लोक में जगह
न मिले। तुम सदियों तक त्रिशंकु की तरह अधर में लटके रहो, अधर में भटकते इधर से उधऱ रेगते
रहो। ये सृष्टि, ये प्रकृति तुम जैसे लम्पटों को समय आने पर इसी तरह दण्डित करती है।”
उत्तेजित भीड़ ने, ख़ासतौर से शहर के सक्रिय महिला संगठनों की महिलाओं ने बदले की आग से
भभकते हुए सम्मान राय और ज्ञानेश्वर द्विवेदी को जूतों और चप्पलों से इस आक्रामक ढंग से पीटा
कि उनके सिर, चेहरे, पीठ, कमर, हाथ-पैर - यानी अंग-प्रत्यंग पे जमकर जूते चप्पल छापे। फिर उन्हें
पीटते-पीटते ड्रॉइंगरूम में खदेड़ दिया। हांलाकि उनमें से किसी के भी मन में उन दोंनो को शारीरिक
ताड़ना देने का कोई विचार नहीं था, लेकिन उनकी ताज़ी घिनौनी और लम्पट हरकत ने उस रात्रि
बेला में भीड़ के मन मे शनै:-शनै: स्थायी भाव “क्रोध” को जाग्रत करने के लिए “आलम्बन विभाव”
का कार्य किया तथा उनके गिड़गिड़ाने,हाथ जोड़-जोड़ कर माफ़ी माँगने, सबसे मुँह छुपाने जैसी हरकतों
ने तथा वहाँ के जोशीले वातावरण ने “उद्दीपन विभाव” का कार्य किया और इस तरह जब भीड़ के मन
में ख़ासतौर से महिलाओं के मन में जब “रौद्र रस” का उद्रेक हुआ तो फिर उस रस के तालमेल में
तरह-तरह के अंग संचालन (अपराधी को हाथो,पैरों से पीटना), जूता, चप्पल प्रहार, अपशब्दों की बौछार
– ये “अनुभाव” तो उछल कर बाहर आते ही। वे तो रौद्र रस के उद्रेक की अपरिहार्य प्रतिक्रिया थी।
कुछ क्षण पूर्व संयोगिता के साथ जो उन दोनो ने उसे अपनी हवस का शिकार बनाने के लिए छेड़खानी
की थी और जो “रसीले सम्वाद अपने मुखारविन्द से” बोले थे, जो संयोगिता ने प्रमाण स्वरूप सबको
मोबाइल का रिकॉर्डर ऑन करके सुना दिए थे – वे सब “संचारी भाव“ का काम कर रहे थे। उस ख़ूबसूरत
ड्रॉइंगरूम में “श्रृंगार के संयोग रस” के अधूरे उद्रेक को छिन्न-भिन्न करता जो एकाएक “रौद्र रस” का
विस्फोट हुआ था –उससे वह सजीला ड्रॉइंगरूम भयानक मैदाने जंग में बदल गया था। उस जंग में वीर
योध्दाओं का नेतृत्व कर रही थी “तेजस्वी वारांगनाएँ “ और सम्मान राय व ज्ञानेश्वर द्विवेदी बारम्बार
वीरगति को प्राप्त होने से बच-बच निकलते असहाय बालकों की भाँति अपना बचाव करने में लगे थे। ये
था ऐसे छद्मवेषी लम्पट दरिन्दों के साथ जनता का “जनवादी न्याय “ जिसे हमेशा रंगे हाथों पकड़े जाने
वाले गुनहगारों को मौके पे उपस्थित जनता स्वयं हाथों हाथ देती है और जो बहुत स्वभाविक भी है। ये
तो “एक्शन-रियेक्शन कैमिस्ट्री” होती है जो स्वत: घटती है और उद्रेक के उपरान्त शान्त हो जाती है।
जो न्याय स्वत: घटित होता है, वही सच्चा और खरा होता है तथा गुनहगारों को सबसे अधिक ग्लानि
से भरने वाला होता है। कुछ ऐसी ही ग्लानि से अभिभूत थे उस समय, उस रात के नायक - सम्मान
राय और ज्ञानेश्वर द्विवेदी। तभी संयोगिता ने कहीं से एक तौलिया और चादर खोजकर दोंनो को तन
ढकने का एक मौका दिया।
मीडिया फोटोग्राफ़र्स ने हर कोण से, उन दोंनो के हर हाव-भाव के भरपूर फोटो कैमरे में कैद किए।
पत्रकार, एन.जी.ओ कार्य कर्ताओ और टी.वी. रिपोर्टर्स सम्मान राय और ज्ञानेश्वर द्विवेदी की शान में
छंटे-छंटे कसीदे पढ़ रहे थे। उस आधी रात में उस शानदार बंगले में ज़लज़ला आया हुआ था।
सम्मान राय और ज्ञानेश्वर द्विवेदी जो अब तक कई बार संयोगिता व अन्य सब लोगों के सामने
हाथ जोड़-जोड़कर दया की भीख माँग चुके थे, अब जड़प्राय: से, सिर झुकाए दोंनो हाथों से माथा
पकड़े बैठे थे। लगता था नारी शक्ति के आगे वे दोंनो गूँगे हो गए थे, उनके सारे शब्द चुक गए थे।
अब तक भीड़ में से कुछ सचेत लोग पुलिस को भी फोन कर चुके थे। सो उस इलाके के थाना इंचार्ज
वहाँ पहुँच चुके थे। वे व्यंग्य और तिरस्कार से सम्मान राय और समाज में उतने ही इज़्ज़तदार,
बल्कि उनसे उधिक सुशिक्षित ज्ञानेश्वर द्विवेदी को देख रहे थे। उन्होंने अपना फ़र्ज़ निबाहते हुए, सबसे
पहले उन गुनहगारों को अपनी बाहरी नग्नता को ढकने के लिए कपड़े पहनने का आदेश दिया। फिर वह
वहाँ उपस्थित उत्तेजित भीड़ से बोले –
“देखिए आप लोगों ने अपना कर्त्तव्य निबाह लिया, अब मुझे अपनी कार्यवाही करने दीजिए और इसके
लिए उन मुझे मैडम के बयान दर्ज़ करने होगे, जो इनकी आज की एक-एक हरकत की चश्मदीद गवाह हैं।“
तभी संयोगिता आगे आकर बोली - “चश्मदीद गवाह तो हूँ ही, इन दोनो का एक-एक सम्वाद भी मेरे
इस मोबाइल मे कैद है, इंस्पैक्टर साहब। “
थाना इंचार्ज संयागिता को उसकी हिम्मत और समझदारी के कारण सराहना भरी नज़रों से देखता, बड़े
अदब से बोला –
“बहुत ख़ूब मैडम। आप निश्चिन्त रहें, इनको इनके किए की सज़ा ज़रूर मिलेगी। थोड़ी दिर के लिए
आपको भी थाने चलना होगा रिपोर्ट लिखाने के लिए। कानून की मदद करने वाले की हम बड़ी क़द्र करते
हैं।“ यह कह कर थाना इंचार्ज ने अपने कांन्स्टेबल को इशारा किया और उसने तुरंत सम्मान राय व
उनके परम् हितैषी मित्र ज्ञानेश्वर द्विवेदी के हाथों में हथकड़ी पहना दी। ये सब कार्यवाही होते-होते रात
का 1 बज गया था। ज्ञानेश्वर द्विवेदी और सम्मान राय अब सरकारी मेहमान बन गए थे। अगले दिन
सम्मान राय और ज्ञानेश्वर द्विवेदी अख़बार की सुर्ख़ियाँ बन चुके थे। सभी प्रमुख चैनलों पे कल रात उनके
बैडरूम और ड्रॉइंगरूम में उमड़े ज़लज़ले का कवरेज बार-बार ज़ोरदार कमेन्टरी के साथ दिखाया जा रहा
था। उनके सिर से पाँव तक के सारे हाव-भाव को कैमरा बारीकी से टीवी स्क्रीन पर तैराता था।हर घर में
उनकी काली करतूतो पे थू थू हो रही थी। उनके साथ-साथ हर कोई टी.वी. पर संयोगिता की झलक पाने
को उत्सुक था। संयोगिता रातों-रात सेलिब्रिटी सोशल एक्टिविस्ट बन गई थी। बहरहाल अगले दिन
इतवार होने के कारण उनकी ज़मानत भी सम्भव नहीं थी, इसलिए दोनों महाशयों को जेल में ही समय
काटना था। ज्ञानेश्वर द्विवेदी और सम्मान राय के परिचित उनकी ज़मानत न करवा पाने के कारण
बिलबिला रहे थे। वे ‘सम्माननीय’ गुनहगार शनीवार की रात से लेकर सोमवार की दोपहर तक सलाख़ों
के पीछे अपमान के बड़े-बड़े घूंट पीते रहे।
इसके बाद वकील, कानून, अदालत –जैसा कि सब जानते ही है, इनकी कार्यवाही, वकालत के स्याह को
सफ़ेद, सफ़ेद को स्याह करने के दाँव-पेंच, इन सबकी की एक लम्बी प्रक्रिया जन्म लेने वाली थी,लेकिन
उन शातिर लम्पटों के ख़िलाफ़ “जनवादी न्याय” तो हो ही गया था। अदालत का न्याय लम्बी चौड़ी
प्रक्रिया का मोहताज होता है, पर जनता का न्याय तमाम सत्यों को समेटे हुए - त्वरित और खरा
होता है।
आने वाले समय में एक नंबर के मक्कार, चालबाज़ ज्ञानेश्वर द्विवेदी और सम्मान राय अपने बचाव में
वकील के द्वारा कितनी भी दलीलें पेश करते रहे, अपने को बेगुनाह साबित करने की नाकामयाब कोशिश
करते रहे, फ़िलहाल उनका असली सच तो दुनिया के सामने उजागर हो ही गया था। कैमरे में कैद
उनके निर्वस्त्र शरीर, उनके रिकॉर्डेड सम्वाद, उनके खिसयाये चेहरे, संयोगिता से दया की भीख माँगते
उनके कांपते हाथ – किस-किस चीज़ की वे कानून के बल पर काट करेगे। इसके आगे अपने बचाव के
लिए कुछ भी करते रहे, उससे किसी को कुछ लेना देना न था। “जनवादी न्याय” उन दोंनो को गुनहगार
सिध्द कर चुका था। वे किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रहे थे। उनकी अन्तरात्मा अन्दर ही अन्दर
उन्हें धिक्कार रही थी।
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विपक्ष के वकील ने सम्मान राय और ज्ञानेश्वर द्विवेदी के पिछले अनेक ‘’ रेप ‘’अपराधों का कच्चा चिठ्ठा
भी, संयोगिता के एवं महिला एन.जी.ओ और नेशनल वुमेन कमीशन के सहयोग से बीन-बीन कर
इकठ्ठा कर लिया था और सबूतों व गवाहों सहित उनका भी खुलासा अदालत में कर दिया गया था।
ज्ञानेश्वर द्विवेदी और सम्मान राय के ख़िलाफ़ सबूत इतने ठोस और इतने प्रत्यक्ष थे कि कानूनी कार्यवाही
के बाद कुछ माह उपरान्त, इंडियन पीनल कोड की धारा 6 Immoral Traffic (Prevention) Act, धारा 354
( Molestation) धारा 376 व 377 ( Rape) के तहत वे दोनों अदालत द्वारा अपराधी घोषित किए गए।
सम्मान राय का जनवादी, समाजवादी, क्रान्तिकारी कार्यकर्ता, स्थानीय तीन विद्यालयों के संस्थापक,
महिला एवं बालोध्दार गैरसरकारी संस्था के अध्यक्ष वाला बहुआयामी रूप हमेशा के लिए ढेर हो गया
था और उसके लिए, उसकी घटिया करतूतों के कारण आजीवन कारावास का सम्मान घोषित किया गया
था। ज्ञानेश्वर द्विवेदी को विश्वविद्यालयी आचार संहिता के आधार पर रेप जैसे अक्षम्य आरोप के
सिध्द हो जाने के कारण कॉलेज के गरिमामय पद से तो हाथ धोना ही पड़ा, साथ ही सम्मान राय के
साथ उसे भी आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई।
अदालत के इस न्याय ने भले ही देर से, पर उस दिन हादसे के तुरन्त बाद हुए “जनवादी न्याय” के
औचित्य पे पक्की मोहर लगा दी थी।
Saturday, July 17, 2010
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