मौत
बोलो कहाँ नहीं हो तुम ?
बोलो कहाँ नहीं हो तुम ?
सोई मौत को जगाया मैने कह कर यह -
बोलो कहाँ नहीं हो तुम !
बोलो कहाँ नहीं हो तुम !
अचकचा कर उठ बैठी वह,
देखा मुझे चकित होकर कुछ,
बोली - मैं तो सबको अच्छी लगती हूँ - सुप्त-लुप्त
मुझे जगा रही क्यों तुम ?
मैं बोली - जीवन अच्छा,
बहुत अच्छा लगता है
पर, बुरी नहीं लगती हो तुम
बुरी नहीं लगती हो तुम !
ख्यालों में निरन्तर बनी रहती हो तुम
जैसे साँसों में जीवन,
जीवन का ऐसा हिस्सा हो तुम,
जिसे अनदेखा कर सकते, नहीं हम,
ऐसी एक सच्चाई तुम
नकार जिसे सकते नहीं हम,
जीवन के साथ हर पल, हर क्षण,
हर ज़र्रे ज़र्रे में तुम,
बोलो कहाँ नहीं हो तुम ?
बोलो कहाँ नहीं हो तुम ?
जल में हो तुम, थल में हो तुम,
व्योम में पसरी, आग में हो तुम,
सनसन तेज़ हवा में हो तुम,
सूनामी लहरों में हो तुम,
दहलाते भूकम्प में हो तुम,
बन प्रलय उतरती धरती पर जब,
तहस नहस कर देती सब तुम,
अट्ठाहस करती जीवन पर,
भय से भर देती हो तुम
उदयाचल से सूरज को,
अस्ताचल ले जाती तुम,
खिले फूल की पाँखों में,
मुरझाहट बन जाती तुम,
जीवन में कब - कैसे,
चुपके से, छुप जाती तुम
जब-तब झाँक इधर-उधर से,
अपनी झलक दिखाती तुम,
कभी खुशनुमा जश्न को
श्मशान बना जाती तुम,
दबे पाँव जीवन के साथ,
सटके चलती जाती तुम,
कभी पालने पर निर्दय हो,
उतर चली आती हो तुम
तो मिनटों में यौवन को
कभी लील जाती हो तुम,
बोलो कहाँ नहीं हो तुम ?
बोलो कहाँ नहीं हो तुम ?
‘
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