Monday, April 20, 2009

वर्तमान सँस्कृति का संकट और कामायनी
आज हम सँस्कृति के एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं, जो भयंकर संकट की परिधि से आवृत है। सभ्यता व सँस्कृति का यह संकट मात्र हमारे देश तक ही सीमित नहीं है, वरन् यह पूर्व से ले कर पश्चिम, उत्तर से लेकर दक्षिण तक समूचे विश्व में व्याप्त है। इस संकट का मूल है - गति से परिवर्तित होता आज का 'मूल्य बोध' । आज हमारे पुराने मूल्य ध्वस्त हो चुके हैं और नये मूल्य प्रतिस्थापित हो नहीं पाए हैं। अतएव आज का समाज मूल्यों से विलग हुआ, भ्रमित हो रहा है। जो मूल्य थोड़े बहुत हैं भी, तो वे इतने दीन-हीन हैं कि उन्हें मूल्य कहना भी उचित नहीं लगता। सार यह है कि आज हम हीनमूल्य और मूल्यहीन दोनों ही हैं। हमारे चार पुरुषार्थों में "धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष" में आज के मानव की दृष्टि मात्र "अर्थ और काम" पर ही केन्द्रित है। यदि हम कहें कि आज का समाज, आज के मानव का दृष्टिकोण पूर्णतः पूँजीवादी और उपभोक्तावादी है, तो अत्युक्ति न होगी। किन्तु इस पूँजीवाद के विरोध में हर युग में एक दूसरा वर्ग भी समाज में देखा गया हैं - वह है कम्युनिस्ट यानी "साम्यवादी वर्ग" - जो "वर्गहीन समाज" का पक्षधर है, एक ऐसे समाज पर बल देता है जिसमें न कोई अमीर हो न गरीब, न कोई शासक न शासित, न छोटा न बड़ा वरन् हर दृष्टि से सब समान हों। किन्तु समाज पूँजीवादी हो या साम्यवादी, दोनों प्रकार के समाज में व्याप्त मूल्यों के आधार - उपयोगितावाद, सुखवाद अर्थात् भौतिकवादी दृष्टिकोण हैं। सामंजस्य के नाम पर हमारे समाज के तथाकथित राजनैतिक व सामाजिक संगठनों के ठेकेदार कितनी विषमता और उत्पात फैलाते हैं, यह तो जगजाहिर है। कम्युनिस्ट देशों में भी राज्याधिकारियों को, सशक्त वर्गों को सत्ता हथियाने व राजनीति का शिखर पर पहुँचने हेतु मूल्यहीन तरीकों को अपनाते देखा गया है। सुख की, व अधिकाधिक लाभ व स्वार्थ की सिद्धि हेतु मानव का अहर्निश संघर्ष दिन -प्रतिदिन नृसंश रूप धारण करता जा रहा है। मनुष्य की मनुष्य से, एक परिवार की दूसरे परिवार से, एक वर्ग की दूसरे वर्ग से, एक जाति की दूसरी जाति से, एक प्रान्त की दूसरे प्रान्त से व एक देश की दूसरे देश से आगे बढ़ने की होड़ में अनेक प्रकार की प्रतिस्पर्धा में, एक विकट संघर्ष, युद्ध व विप्लव जन्म ले रहा है और वह उत्तरोत्तर बढ़ता ही जा रहा है। आज मानवजाति विनाश के कगार पर खड़ी है। इससे पूर्व हम दो विश्व युद्धो की विभीषिका से गुज़र ही चुके हैं। समय - समय पर खड़े होने वाले छोटे-छोटे देशी युद्धों की तो सीमा ही नहीं। इस सबके उपरान्त भी मानव जाति शायद युद्ध करते थकी नहीं। संयुक्त राष्ट्र संघ व अन्य बड़े-बड़े देशों के बीच बचाव कराने के बावजूद भी मानव की संघर्षशील प्रवृत्ति सघन बनी हुई है। समाज में चहुँ दिशि, घर से लेकर बाहर तक, विषमता के ही दर्शन होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अधिक सुख व समृद्धि की खोज में दुःख को उपलब्ध हुआ भटक रहा है।गरलसम ऐसी विकट स्थिति को परिवर्तित करके, अमृततुल्य बनाने में, क्या 'कामायनी' हमारी सहायक सिद्ध हो सकती है ? सम्भवतः आपको मेरे चिन्तन का विषय हास्यास्पद लगे, क्योंकि जब बड़े - बड़े समाजशास्त्री, दार्शनिक व विश्व की महती राष्ट्र शक्तियाँ इस समस्या का निदान खोजने में असमर्थ व असफल हैं, तो एक काव्य ग्रंथ की, मनु- श्रद्धा व इड़ा की कथा की क्या बिसात ? किन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि 'कामायनी' कोई साधारण ग्रंथ नहीं, यह एक दार्शनिक चिन्तन पूर्ण एक असाधारण दार्शनिक महाकाव्य है, जो जीवन के, समाज के, समग्र पक्षों व विविध क्षेत्रों के उदात्त व अनुदात्त रूपों, महत्वपूर्ण समस्याऒं व विषमताऒं को प्रस्तुत कर ऐसे अचूक निदान, ऐसी मधुर दृष्टि, ऐसा गहन चिन्तन प्रदान करता है कि वे हर युग में समीचीन हैं। हरदेश काल में उपादेय हैं। यह अद्भुत ग्रंथ समाज, सँस्कृति, मनोविज्ञान, मनोविश्लेशण, समाजशास्त्र, राजनीति, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सभी का निदर्शन करता है। इन सभी को हम समान्वित रूप में इस ग्रंथ में पाते हैं। कामायनी के आमुख में प्रसाद जी ने स्पष्ट कहा है -"सूक्ष्म अनुभूति या भाव 'चिरंतन सत्य' के रूप में प्रतिष्ठित रहता है। जिसके द्वारा युगयुग के पुरुषों की और पुरुषार्थों की अभिव्यक्ति होती रहती है।"'कामायनी' की कथा पौराणिक होने पर भी, वह इतिहास, वेदों या पुराणों तक ही सीमित नहीं है, वरन् कविवर प्रसाद के स्वयं के शब्दों में -"वह श्रद्धा और मनु अर्थात मनन के सहयोग से मानवता का विकास रूपक है। वह मानवता का मनोवैज्ञानिक इतिहास बनाने में समर्थ हो सकता है।"श्रद्धा, मनु, इड़ा तथा कामायनी में प्रस्तुत विभिन्न घटनाऒं को इतिहास या गाथा कह कर भुलाया नहीं जा सकता। समसामयिक परिप्रेक्ष्य में उसका अनुशीलन अपरिहार्य है।आज के समाज, आज के मानव की पूँजीवादी और उपभोक्तावादी वृत्ति प्रसाद जी की कामायनी में कुछ इस तरह दर्ज़ है -"मनोभाव से कार्य कर्म का, समतोलन में रतचित्त से।ये निस्पृह न्यायासनवाले, चूक न सकते तनिक वित्त से।।" (रहस्य सर्ग )ये ज्ञानी अपनी-अपनी भावनाऒं के अनुसार कर्त्त व कर्म के मूल्यांकन में लीन हैं। बड़े ध्यान से विधि निषेध की मर्यादा की प्रतिष्ठा करते हैं। ये निष्काम और न्याय (आसन) वाले हैं, पर धन से तनिक भी विचलित नहीं होते।प्रसाद जी ने मानव के विषम स्वभाव की इस सच्चाई की ओर कामायनी में कुछ इस तरह इंगित किया है -"सामंजस्य करने चले ये, किन्तु विषमता फैलाते हैं।मूल तत्व कुछ और बताते, इच्छाऒं को झुठलाते हैं।।"(रहस्य सर्ग)'कामायनी' प्रत्येक दृष्टि से आज के समाज से जुड़ी है। यद्यपि छायावादी शैली के कारणकामायनी में सांकेतिकता का प्राधान्य है, जैसा कि स्वयं प्रसाद जी ने स्पष्ट कहा है -"मनु, श्रद्धा और इड़ा अपना ऐतिहासिक अस्तित्व रखते हुये, सांकेतिक अर्थ की भी अभिव्यक्ति करें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं। मनु अर्थात् मन के दोनों पक्ष हृदय और मस्तिष्क का संबंध क्रमशः श्रद्धा व इड़ा से सरलता से लग जाता है।"किन्तु अपनी सांकेतिकता के साथ-साथ वह अपने विविध वक्तव्यों, काव्यप्रसंगों व पात्रों के माध्यम से आधुनिक युग की विविध समस्याऒं, घटनाऒं, व्यक्तियों, उनके मनोविज्ञान उनकी जीवन दृष्टि का भी प्रतिनिधित्व करती है, मतलब कि वह किसी युग विशेष तक सीमित नहीं है; यही उसकी असाधारणता है, विलक्षणता है।साँस्कृतिक संकट के परिप्रेक्ष्य में जब हम कामायनी का अनुशीलन करते हैं, तो कामायनी का प्रारम्भ प्रलय के दृश्य से होने के कारण वह समशील परिस्थितियों में बड़ा अर्थपूर्ण प्रतीत होता है। प्रसाद जी ने कामायनी में उल्लिखित इस प्रलय का मूल "पंच भैरव मिश्रण" बताया है -पंच भूत का भैरव मिश्रण- शम्पाऒं के शकल निपात,उल्का लेकर अमर शक्तियाँ, खोज रही ज्यों खोया प्रातः ।।(चिन्ता सर्ग)सम्भवतः ऐसा प्रसाद जी ने पौराणिकता की रक्षा की भावना से किया है। यह स्थूल कारण कहा गया है। किन्तु साथ ही प्रलय की विभीषिका के सूक्ष्म चिन्तन पर आधारित पक्ष का भी कवि ने उल्लेख किया है - वह है देवसँस्कृति । देवताओं की विलासिता, उदण्डता, उच्छृंखलता व दंभ की अति के कारण प्रलय आती है और देव जाति विनाश को प्राप्त होती है। इड़ा सर्ग में कवि ने प्रलय व विनाश के कारणों की श्रंखला में देवों और असुरों की उन एकांगी मान्यताऒं की ऒर भी संकेत किया है,जो दोनों के मध्य द्वन्द्व का हेतु बनती हैं। ठीक वैसी ही मान्यताएँ, व्यष्टिवाद, विलासिता, सुख भोग की लालसा, उदण्डता, उच्छृंखलता अन्याय, शोषण, दम्भ वर्तमान समाज में एकाधिकार जमाए हुए हैं। मुक्तिबोध जी ने भी इस संबंध में कहा है कि -"कामायनी में वर्णित प्रलय व उसके कारणों को किसी युग के मूल्य विघटन व मूल्य संघात (नाश, वध, टक्कर) व उससे उत्पन्न विनाश की स्थिति के प्रतिबिम्बन के रूप में देखा जा सकता है।"आज समाज में उदण्डता, उच्छृंखलता अन्याय, शोषण, दम्भ, विलासिता का जैसा ताण्डव हो रहा है उसे नकारा नहीं जा सकता।भयंकर प्रलय के पीड़ा बोध से भरे, समूची देवजाति के विनाश के कारण एकाकी, चिन्ता में आकण्ठ निमग्न मनु को निराशा व हताशा इतना अधिक आवृत्त कर लेती है कि उस स्थिति में वह विनाश, अंधकार व मृत्यु को ही सत्य मानता है।"अंधकार के अट्टाहास सी, मुखरित सतत चिंतरन सत्य।"(चिन्ता सर्ग)उदण्डता, उच्छृंखलता, विलासिता और दम्भ जैसी नकारात्मक वृत्तियों के कारण जबव्यक्ति पारस्परिक धोखाधड़ी, छल - कपट, आर्थिक हानि, मान हानि, विकृत सामाजिकछवि की पीड़ा से गुज़रता है तो आत्महत्या, साथियों की हत्या, जैसे घृणित कार्यकरने से भी पीछे नहीं हटता। आज विश्वस्तर पर ऐसा ही घटित हो रहा है और प्रतिदिनधोखाधड़ी, छल - कपट, आत्महत्या और हत्या की घटनाएँ बढ़ती ही जा रहीं हैं।प्रलय की असहनीय पीड़ा से मुक्ति पाने हेतु जैसे मनु को उस एकान्त वीरान प्रदेश में मृत्यु ही सत्य लगती है ठीक वैसे ही आज मानव की यही दशा है। जब व्यक्ति दुःखों और कष्टों से घिरा होता है, तो वह उनसे मुक्ति पाने के लिए मृत्यु का वरण करना ही संगत मान बैठता है। हाल ही में शेयर बाज़ार में भारी गिरावट आने से न जाने कितने लोगों ने निराश होकर आत्महत्या कर ली। पूरा विश्व इस आत्महनन की चपेट में आया सपरिवार मृत्यु का वरण ही संगत मान बैठा। कितने ही युवक -युवतियाँ रिश्तों को ईमानदारी से न निबाहने के कारण, एक दूसरे के प्रति उपजे शक़ के कारण हत्या करके अपराधी बन रहें हैं। किन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जीवन में अगर निराशा व दुःख है, तो आशा और सुख भी है। इसी द्वन्द्वात्मक नियम चक्र के अन्तर्गत कामायनी में मनीषी कवि एकाकी, निराश, हताश मनु में आशा के संचार का उल्लेख बड़ी प्रगल्भता से, अरुणिम भोर के मोहक वर्णन के प्रतीक रूप में करता है -"उषा सुनहले तीर बरसती, जय लक्ष्मी सी उदित हुई।उधर पराजित काल रात्रि भी, जल में अन्तर्निहित हुई।।"x x x x x x x x x"मैं भी कहने लगा हूँ, मैं रहूँ, शाश्वत नभ के गानों में ।"(आशा सर्ग) जब व्यक्ति आशा व उत्साह से भरा हुआ होता है, तो उसमें आत्मविस्तार की भावना बलवती होती है। अतः निराशा से उबर कर, आशा से अन्वित मनु में "मैं रहूँ, मैं रहूँ" की इच्छा गहरी होती है। "एको अहम् बहुस्याम" की अनादि इच्छा की ऒर ही प्रसाद जी ने मनु के माध्यम से प्रकारान्तर से संकेत किया है। श्रध्दा अन्तःकरण की उदात्त वृत्ति का प्रतीक, उदास व खिन्न मनु के जीवन में नव आशा संचार करती है, उसे जीने की प्रेरणा देती है और उसके आत्मविस्तार की इच्छा पूर्ति हेतु सच्चे हृदय से पूरी तरह मनु को समर्पित होती है। फलस्वरूप, अत्यधिक उर्जा, शक्ति, तुष्टि से भरा मनु अपने पूर्व परिचित देव जाति के संस्कारों के कारण अग्निहोत्र में प्रवृत्त होता है, आखेट व मृगया के लिए भटकता फिरता है तथा बाद में असुर पुरोहित आकुलि और किलात के सम्पर्क में आने पर, उनकी प्रेरणा से वह श्रध्दा के पशु की बलि भी देता है।"वेदी की निर्मम प्रसन्नता, पशु की कातर वाणीमिलकर वातावरण बना था, कोई कुत्सित प्राणी।।"(कर्म सर्ग) ठीक यही मनोविज्ञान हर तृप्त, अति सुख - भोग में डूबे मनुष्य में हर युग में देखा जा सकता है। मनुष्य भारी तनख्वाह, या व्यापार में भरपूर लाभ अर्जित करने पर, वह जुए, रेस व अन्य तरह के व्यसनों में लिप्त हो जाता है। आलीशान घर में रहता है, धन से भरी तिजोरियों का मालिक है लेकिन फिर भी सुख - शान्ति उससे दूर है। मनु की तरह आज के मनुष्य का भी एकाकीपन बना हुआ है ।सब कुछ होने पर भी मनु का एकाकीपन इसलिए भी बना रहता है क्योंकि मनु का श्रध्दा के प्रति समर्पण एकांगी था- अपने सुख व तृप्ति पर आधारित था। मनु में श्रध्दा के प्रति कृतज्ञता, सम्मान, निश्छल प्रेम का अभाव होने के कारण, वह उसे वह अपनी धरोहर वस्तु समझता है, इसी से भावी संतति के प्रति ईर्ष्या से भर उठता है। श्रध्दा पर एकाधिकार चाहता है। अतः अपने अधूरे समर्पण के कारण मनु श्रध्दा को पाकर भी नहीं पाता -"यह जीवन का वरदान ,मुझेदे दो रानी अपना दुलारकेवल मेरी ही चिन्ता का,तव चित्त वहन कर रहे भार"(ईर्ष्या सर्ग)क्या आज अधिकांश पति - पत्नी कुछ ऐसे ही एकाकीपन का शिकार नहीं हैं ? आज कीनारियों का अधिकांश प्रतिशत पतियों से अलग रह कर, ऊँचा ओहदा और ऊँची तनख्वाह पाना ही अपना धर्म, अपना कर्तव्य समझता है। ऐसी स्त्रियों ने वैवाहिकजीवन, पारिवारिक जीवन के मूल्यों को ताक पे रख दिया है। वे भूल रही हैं कि इसतरह की जीवन शैली को अपना कर वे जीवन के ख़ास बुनियादी सुखों, अमूल्य चैन सेअन्जाने ही वंचित हो रही हैं। भौतिकतावाद की अन्धी दौड़ में आज की स्त्री कितना कुछ खो रही है - इसका अन्दाज़ा उसे तब होगा, जब धीरे - धीरे अधेड़ अवस्था सेबुढ़ापे की ओर बढ़ती वह एकदिन स्वयं के अकेलेपन से जूझेगी। ये नारियाँ कामायनी की बौध्दिकता और भौतिकतावाद की प्रतीक इड़ा का प्रतिनिधित्व करती प्रतीत होती हैं। यही स्थिति पुरुष की है, जो अधिकाधिक भौतिक ऐशो आराम संचित करने की लालसा से जकड़ा हुआ पत्नी से कोसो दूर रहना गंवारा करता है, पर पत्नी को नौकरी से तिलांजलि दिलवाकर उसे गृहिणी के ओहदे पे बैठाकर, स्वयं काम से घर लौटकर, उसके हाथ की चाय पीने के सुख से विलग रहता है। आज का युगल तो मनुसे एक कदम आगे है क्योंकि वह मनु की भाँति भावी शिशु के आगमन से ईर्ष्या महसूस करने की स्थिति ही नहीं आने देता। आधुनिक युवा विवाहित जोड़े संतानसुख से वंचित रहना ही श्रेयस्कर समझते है। संतान को दुनिया में लाने की फुर्सत हीनहीं है उन्हें। आय दिन ऐसे "डिंक्स " (DINKS = Double Income No Kids) पर समाचार पत्रों में लेख छपते रहते हैं, किन्तु उन्हें पढ़कर भी सीख नहीं लेते या लेना नहीं चाहते। कितने अजीबोग़रीब दौर से गुज़र रहा है आज का समाज !!भावी संतति के प्रति ईर्ष्या से भर उठे मनु के इस व्यवहार, इस दृष्टि से श्रध्दा विकल होती है। वह (शिव से) गरल को अमृत बनाने का उपाय जानने का प्रयास करती है -नील गरल से भरा हुआ, यह चन्द्र कपाल लिए होअखिल विश्व का विष पीते हो,सृष्टि जियेगी फिर सेकहो अमरता शीतलता, आती तुम्हे किधर से ?(कर्म सर्ग)'मनु', स्वार्थोपरत अपनी ही सुख शान्ति के लिए सतत प्रयत्नशील आज के व्यक्ति का प्रतीक है। उसका तप की ऒर केन्द्रित वैराग, भोग का राग बन जाता है -आकर्षण से भरा विश्व यह केवल भोग्य हमाराजीवन के दोनों कूलों में, बहे वासना धारा(कर्म सर्ग)मनु की दृष्टि में स्वसुख ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है ठीक उसी तरह जैसे आज केमानव की दृष्टि में स्वसुख ही सर्वोपरि है -इन्द्रिय की अभिलाषा जितनी सतत सफलता पावैजहाँ हृदय की तृप्ति विलासिनि,मधुर मधुर कुछ गावै(कर्म सर्ग)श्रध्दा मनु के इस आत्मकेन्द्रित दृष्टिकोण का विरोध करती है व उसे समझाने का प्रयास करती है - कि प्रत्येक मनुष्य के अपने विशिष्ट अधिकार हैं। व्यष्टि को समष्टि से अधिक महत्व देना दानवता का प्रतीक है -अपने में सब कुछ भर कैसे,व्यक्ति विकास करेगा ?यह एकान्त स्वार्थ भीषण हैअपना नाश करेगा (कर्म सर्ग)दूसरे के सुख में सुखी और दुःख में दुःखी होना मनुष्यता का मानवता का सूचक है।सच्चा सुख तभी मिलेगा जब -औरों को हँसते देखो मनु, हँसो और सुख पाऒअपने सुख को विस्तृत कर लो, सबको सुखी बनाऒ (कर्म सर्ग)किन्तु उद्भ्रान्त मनु श्रध्दा की बातों पर ध्यान न देकर मृगया में लिप्त रहता है। श्रध्दा का अपने शिशु के लिए वस्त्र बुनना, कुटीर बनाना, अन्न संग्रह करना मनु के लिए असह्य है। अतएव निरंकुश सुख भोग की लालसा से ग्रस्त मनु श्रध्दा का त्याग कर देता है। जीवन की सकारात्मकता, उदात्तता से विमुख हो, मनु दम्भ व शक्ति से प्रेरित इड़ा की ऒर आकृष्ट होता है, तथा उसके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का अनुसरण कर भविष्य निर्माण में प्रवृत्त होता है। अपनी पत्नी को निरादृत कर, परनारी की ओर आकृष्ट होना आज के युग में जितना पसरा हुआ है,उतना शायद ही किसी युग में रहा हो। आज प्रेम त्रिकोण के जितने क़िस्से सुनने में आते हैं उतने शायद ही कभी सुने हों। इड़ा पुरुष की 'बुद्धि' का प्रतीक है, जो मनु को उसकी शक्ति के अनुसार कार्यरत होने की प्रेरणा देती है। इड़ा के अनुसार दैव पर, भाग्य पर निर्भर रहना बुद्धि हीनता है। विज्ञान की सहायता से प्रकृति के रहस्यों को खोजकर, अपनी शक्ति -सामर्थ्य का विस्तार करके ही मानव विषमता व समरसता का निर्णायक हो सकता है। जीवन, प्रकृति, धरती, आकाश सब पर उसका शासन हो सकता है। यदि हम गौर करें तो पायेगें कि आज, समाज में इसी बुद्धिवाद का इतना आधिक बोलबाला है कि मानवीय संवेदनाएँ और भावनाएँ उपेक्षित है। इड़ा द्वारा प्रदत्त मूल्यों व दृष्टि से प्रभावित, मनु सारस्वत नगर बसाता है। अनेक सुख साधनों व ऐश्वर्य से सम्पन्न होता है। उसकी लालसाऒं की इतिश्री ही नहीं होती। यहाँ तक कि वह सब कुछ पा कर अब उसका मार्ग दर्शन करने वाली दुहितारूपा इड़ा पर भी अधिकार करना चाहता है। आज इस तरह की चौंका देने वाली घटनाएँ, कुत्सित कर्म कि रिश्तों को नकार, इंसान हैवान बना पवित्र रिश्तों का गला घोटने पर तुला है - हर रोज़ देखने में आती हैं। इस कुत्सित वृत्ति का ऑस्ट्रिया का Josef Fritzl से बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है जिसने अपनी पुत्री को 24 वर्ष तकतहखाने बन्द रख कर, हैवान की तरह उसका शारीरिक शोषण किया, उसे अपनी वासना का शिकार बनाया। 21वी सदी में नारी शक्ति को पहचान मिलने पर भी, घर से बाहर तक नारी के शोषक उसे अपनी वासना का शिकार बनाने से नहीं चूकते। विश्वास के नाम पर ठगी जाने पर, वंचना का शिकार होने पर, न्याय के नाम पर आज भी नारी ही सामाजिक प्रताड़ना और कलंक का पुरस्कार पाती है।हर युग में नारी को भोग की वस्तु के रूप में देखा गया। निस्सन्देह उसकी इस स्थिति के विरोध में समय - समय पे आवाज़े उठती रहीं हैं लेकिन फिर भी वह आज तक उस खांचे से बाहर नहीं निकल सकी है। कामायनी के मनु और इड़ा के प्रसंगसी निंदनीय घटनाएँ आज अपने विकराल रूप में विश्व के हर कोने से सुनने मे आती हैं। इड़ा पर मनु के बलात अधिकार के फलस्वरूप, मनु की उस दुरेच्छा व दुर्व्यवहार पर प्रजा व देव सभी कुपित हो उठते हैं।यह प्रसंग इस तथ्य की पुष्टि करताहै कि अपराध करके कोई भी व्यक्ति दंड से बच नहीं सकता। कानून से पहले समाज अपराधी को दण्डित करता है। आज के समाज में भी दिन रात यही हो रहा है। अन्तत: अपराधी व्यक्ति कानून द्वारा पूर्णत: दंडित होता है। ऐसे व्यक्ति में परिवर्तन तभी सम्भव है,जब उसे दिल और आत्मा से अपनी ग़लती का एहसास हो। निरंकुश मनु की इस गर्वोक्ति पर -"वशी नियामक रहे, न ऐसा मैंने माना।"(संघर्ष सर्ग ) इड़ा प्रतिकार स्वरूप कहती है -"किन्तु नियामक नियम न माने, तो फिर सब कुछ नष्ट हुआ, सनिश्चय जाने"(संघर्ष सर्ग ) तर्क-वितर्क, व्यक्तिवादी विकास, प्रतिस्पर्धा व सुख की अराधना करने वाली इड़ा भी मनुको, निंरकुश शासक बनने की उत्कट इच्छा का परित्याग कर, मानवता के कल्याणकी ऒर उन्मुख होने का सुझाव देती है -"लोक सुखी हो आश्रय ले, यदि उस छाया मेंप्राण सदृश तो रमो राष्ट्र की इस काया में"(संघर्ष सर्ग)किन्तु सत्ता व शक्ति के मद से उन्मत्त मनु इड़ा के भी परामर्श की अवहेलना करता है, तथा सारस्वतवासियों के दमन हेतु प्रवृत्त होता हैं। Lord Acton का कथन "Power corrupts & corrupts absolutely" मनु पर सीधा चरितार्थ होता है। दर्प में भरा हुआ मनु कहता है -"मैं शासक, मैं चिरस्वतन्त्र तुम पर भी मेरा हो अधिकार, असीम सफल हो मेरा जीवन।"(संघर्ष सर्ग)मनु की यह दमन प्रवृत्ति की झलक आज के राजनेताओं, प्रशासकीय अधिकारियों आदि में बखूबी देखी जा सकती है। विभिन्न विभागों के अध्यक्ष अपने मातहतों का दमन और हर तरह का शोषण करते हैं। इस तरह के व्यवहार से आज का वातावरण घुटन, दमित क्रोध व बदले की भावना से सुलग रहा है और सबको अस्वस्थ बना रहा है।किन्तु प्रकृति और ईश्वर के दैवी विधान के चक्रानुसार ऐसे आततायी एक न एक दिनताड़ित और दण्डित होते है। यही स्थिति प्रसाद जी ने कामायनी में अंकित की है।एक बार फिर मनु की पराजय व मूर्च्छा के रूप में, सूक्ष्मदर्शी, दार्शनिक कवि ने आज के उस अतिवादी स्थिति के विध्वंसक परिणाम को चित्रित किया है, जिसके दर्शन हम कामायनी के प्रारम्भ में देव जाति की विनाशलीला में करते हैं। आहत मनु के समीपस्थ इड़ा उस दुखदायी स्थिति के कारणों की ऒर संकेत करती हुई कहती है -अपना हो या औरों का सुख, बढ़ा कि दुख बना नहीं(निर्वेद सर्ग)अनेक बार वृत्तियों की शक्ति व वेग (धन संग्रह व भोग का आवेग) के सम्मुख बुद्धि भी निरुपाय होती है। प्रसाद जी ने इड़ा के माध्यम से इस ऒर भी संकेत किया है। क्योंकि जब मनु की एकांगी शक्ति, आत्मसुख की लालसा, प्रजा के सुख व सामूहिक शक्ति से टकराती है, तो वहाँ इड़ा भी इस संघर्ष को रोक पाने में असमर्थ रहती है। मनु द्वारा बसाये गये सारस्वत प्रदेश की भंग व्यवस्था व प्रस्तुत वीभत्स परिणति से पीड़ित हुई इड़ा (बुद्धि), श्रद्धा (हृदय) से क्षमायाचना करती है जिसके कारण मनु पराजित व आहत होते हैं -"बन विषय ध्वान्त सिर चढ़ी रही ।पाया न हृदय सुख दुख की मधुमय धूप छाँह,तूने छोड़ी यह सरल राह, चेतना का भौतिक विभाग,कर, जग को बाँट दिया विराग"(द्वेष सर्ग)चूँकि इड़ा ने व्यक्तिवाद, व्यष्टि को, लहर व बूँद को महत्व दिया तथा समष्टि व उदधि स्वरूप समाज की उपेक्षा करी, इसलिए मनु पराजित आहत हुए। समष्टि को नकारने वाला, मानवता की उपेक्षा करने वाला सुख का संचार कैसे कर सकता है। यह घोर जड़ता का सूचक है। श्रद्धा शिवम् सन्देश देती हुई कहती है कि यह संसार चिति का स्वरूप है और उसके समान ही सत्य व चिर सुन्दर है। जीवन के सुख-दुख, उत्थान-पतन, हर्ष-विषाद विरह -मिलन की अवस्थाएँ तो आनी जानी रहती हैं। यह तो प्रकृति का नियम है। सारे जगत में द्वन्द्व व्याप्त है। जैसा कि महान कवि कालीदास की प्रसिध्द पक्तियाँ हैं,...यात्येतोsस्तशिखरम् पतिरौषधिनामआविष्कृतोsरुणपुर सर: एकतोsर्क:तेजोद्वयस्य युगपत् व्यसनोदयाभ्याम्लोकोनियम्यते इव आत्मदशान्तरेशु ।। (अभिज्ञानशाकुन्तलम्)आंग्ल कवि कीट्स भी कुछ ऐसा ही कहते है -If winter comes, can spring be far behind ! (Keats)अतएव व्यक्ति को तटस्थ भाव से जीना चाहिए। उस विराट शक्ति का कण-कण में दर्शन करना अनुभूति करना, चर-अचर जगत के साथ तादात्म्य स्थापित करना ही जीवन कोसुखी व उल्लास पूर्ण बना सकता है -चिति का स्वरूप यह नित्य जगत, वह रूप बदलता है शत-शतकण विरह मिलनमय नृत्यरत, उल्लास पूर्ण आनन्द निरत(दर्शन सर्ग)तदनन्तर इड़ा का दुख, उसका पश्चाताप दूर करने के लिए श्रद्धा अपना पुत्र "मानव", इड़ा को सौंप देती है - इस परामर्श के साथ कि "हृदय व बुद्धि के समन्वय से"दोनों मिलकर, सारस्वत प्रदेश की बागडोर इस कुशलता से सम्हाले कि प्रजा (मानवता) कभी भी दुखी, आतंकित व भयभीत न होए।वरन् वे दोनों ऐसे सुन्दर व अभय कार्य करें कि जो समाज में समरसता की स्थापना कर विषमता का निराकरण करे। हृदय व बुद्धि के इस समन्वयकी आज के युग को सर्वाधिक ज़रुरत है। बौद्धिकता के साथ भावों और विचारों कासमन्वय हो तो समाज में समरसता का संचार होगा।यह तर्कमयी, तू श्रद्धामय, तू मननशील कर कर्म अभयसब की समरसत्ता का प्रचार, मेरे सुत सुन माँ की पुकार(दर्शन सर्ग)तदोपरान्त कवि ने व्यष्टिपरक चिन्तन के फलस्वरूप उत्पल, विश्रृंखलता, पीड़ा, आराजकता, मूर्च्छा, व पराजय के प्रतीक मनु का एक बार पुनः सदवृत्ति की प्रतिमा व हृदय की प्रतीक "श्रद्धा" से उद्धार करवाया है। श्रद्धा पराजित व पीड़ित मनु को खोज लेती है। इस विश्व में नृत्यरत शिवशक्ति का अद्भुत दर्शन कराती है। पीड़ित व दुखी मनु के मन पर श्रद्धा की उदात्त, उत्तम बातों का इतना प्रभाव होता है कि वह शिव की शरण में पहुँचने को आतुर हो जाता है। श्रद्धा के सहयोग से मनु की "चेतना उर्ध्वगामिनी" होती है। श्रद्धा मनु से कहती है -ज्ञान दूर कुछ क्रिया मिल, इच्छा क्यों हो पूरी मन कीएक दूसरे से न मिल सके, ये विडम्बना है जीवन की(रहस्य सर्ग )अर्थात् सत, रज और तम के क्रमशः प्रतीक ज्ञान, इच्छा और क्रिया की पृथकता ही, अलगाव ही जीवन में विषमता का कारण है और यह विषमता ही दुख का आधान करती है। आज के समाज में इस अलगाव, इस विषमता का ही प्राधान्य है इसलिए दुख, विषादऔर कष्ट ही कष्ट नज़र आता है। प्रसाद जी शैव धर्मानुयायी थे। अतः उन्होने कामायनी द्वारा प्रत्यभिज्ञा दर्शन की प्रतिष्ठापना की है।श्रद्धा की स्मिति से दोनों लोक सम्बद्ध होते हैं और फिर भस्म हो जाते हैं। स्वप्न, सुषुप्ति (स्वाप) और जागरण, इन तीनो अवस्थाऒं व ज्ञान (सत्), इच्छा (रज) कर्म (तम) इन तीनों गुणों से ऊपर उठ कर अर्थात् अवस्थात्रयातीत व त्रिगुणातीत होकर, शक्ति व शक्तिमान के अभेद की अनुभूति करते हुए, दिव्य अनाहत नाद में, श्रद्धा और मनु दोनों लीन हो जाते हैं -स्वप्न, स्वाप, जागरण भस्म हो गए, इच्छा क्रिया ज्ञान मिल लय से,दिव्य अनाहत पर निनाद में, श्रद्धायुत मनु बस तन्मय थे(रहस्य सर्ग)कामायनी में प्रस्तुत प्रसाद जी का प्रत्यभिज्ञादर्शन मात्र दर्शन के रूप में ही प्रतिपादित नहीं हुआ है वरन् वह प्रत्येक युग के समशील है। समसामयिक जीवन व समाज के सन्दर्भ में सार्थक सिद्ध हुआ है। ज्ञान, इच्छा और क्रिया के समन्वय की वर्तमान युग मेंअत्यधिक ज़रूरत है। यदि आज ज्ञान, इच्छा और क्रिया में सामंजस्य स्थापित किया जाए, तो समाज की विषम परिस्थितियाँ और उससे उपजे विध्वंसकारी परिणामों पे विराम लगाया जा सकता है। अन्त में आनन्द सर्ग में मनु सारस्वतवासियों का सप्रेम मार्ग दर्शन करते है -हम अन्य न और कुटुम्बी, हम केवल एक हमी हैंतुम सब मेरे अवयव हो, जिसमें कुछ नहीं कमी है(आनन्द सर्ग)मनु समष्टि का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं - सब की सेवा न पराई, वह अपनी सुख संसृति हैअपना ही अणु अणु कण कण, द्वयता ही तो विस्मृति है(आनन्द सर्ग)श्रद्धा अपनी स्थिति से इड़ा, मानव व सारस्वतवासियों का भी भावान्तरण करती है। अन्त में मनु, इड़ा, मानव सहित सारस्वत देशवासियों की अलौकिक अनुभूति की सम्पन्नता, दिव्य परमानन्द की प्राप्ति में होती है, जो द्वन्द्व रहित है, सर्वोच्च है व अन्तिम है -समरस थे जड़ या चेतन, सुन्दर साकार बना थाचेतना एक विलसति, आनन्द अखण्ड घना था(आनन्द सर्ग)'कामायनी' में प्रतिपादित मूल्य, दृष्टि व चिन्तन, वर्तमान समाज में व्याप्त एकांगी दृष्टि व चिन्तन का प्रतिकारी है। आज के व्यष्टिवादी समाज को चाहिए कि वह श्रध्दा का सन्देश आत्मसात करे।१- कामायनी की दृष्टि सुखवाद के विरोध में आनन्दवाद का निरूपण करती है। क्योंकि सुख में द्वन्द्व का भाव है। सुख के साथ दुख आबद्ध है जैसे दिन के साथ रात, बसन्त के साथ पतझड़। अतएव सुख की लालसा से अभिभूत मानव दुख पाने के लिए स्वतः ही प्रकृति द्वारा बाध्य होता है। इन्द्रियों और विषयों के संयोग से प्राप्त सुख की सीमा समाप्त ही नहीं होती। मनुष्य को जितना सुख, ऐश्वर्य मिलता जाता है, उतनी ही उसकी इच्छा और बढ़ती जाती है। आज का समाज, मानव जीवन इसका प्रमाण हैं। प्रकृति का यह स्वभाव, यह दुर्बलता आज की नहीं, युगों - युगों पुरानी है। इड़ा सर्ग में कवि ने कहा है-नर तृष्णा वह ज्वलनशील गतिमय पतंग(इड़ा सर्ग)जीवन कभी समाप्त न होने वाली तृष्णाओं से भरा है।ओ जीवन की मरू मरीचिका, कायरता के अलस विषाद(चिन्ता सर्ग)जिन सांसारिक विषयों से मानव को सुख मिलता है और जिन स्थूल इन्द्रियों से वह उसका अनुभव करता है, वही सुख-सीमा का अतिक्रमण करने पर, दुख का कारण बन जाता है। आज समूचे संसार में इन्द्रिय - सुख की लालसा में मनुष्य न जाने कितने घृणित पाप कर रहा है।सब कुछ भी हो यदि पास भरा,पर दूर रहे सदा तुष्टिदुख देगी यह संकुचित दृष्टि(इड़ा सर्ग)किन्तु यदि व्यक्ति जीवन में दुख व कष्टों से मुक्ति चाहता है, तो उसे इन्द्रिय संवेद्य भौतिक सुख की परिधि से ऊपर उठकर अतीन्द्रिय परमानन्द की ऒर उन्मुख होने का प्रयास करना चाहिये। वह परम् आनन्द, परम् अनुभूति द्वन्द्व रहित है, अखण्ड है, घनी है व चरम है। उसके परे कुछ नहीं है। कवि यही सन्देश आनन्द सर्ग की इन पँक्तियों में दे रहा है -वैसे अभेद सागर में, प्राणों का सृष्टि क्रम हैसब में घुल मिल कर रसमय रहता ये भाव चरम है(आनन्द सर्ग)इस आनन्द की प्राप्ति व्यक्तिवादी , एकांगी दृष्टिकोण व प्रवृत्ति से परे होकर चराचर जगत के प्राणियों के साथ तादात्म्य स्थापित करने पर ही हो सकती है।२- 'कामायनी' की दृष्टि समष्टिवादी है। आज का समाज व्यष्टिवादी है। आधुनिक मानव घोर व्यक्तिवादी हुआ, अपने स्वार्थों तो उपरत है।प्राणी निज भविष्य चिन्ता मेंवर्तमान का सुख छोड़ेदौड़ चला है बिखरता साअपने ही पथ में रोड़े(निर्वेद सर्ग)आज व्यक्ति अपने सुख के आगे समाज का, दूसरे का सुख तुच्छ समझता है। जब - जब मनु का दृष्टिकोण व्यष्टिवादी, स्वार्थोपरत होता है, तो वह विकल, अशान्त व उद्भ्रान्त होता है व अन्त में पराजय व पीड़ा का भागी होता है। किन्तु उसके दुख का निराकरण श्रद्धा का समष्टिवाद व मानवतावाद करता है। अतः कवि ने श्रद्धा की समष्टिवादी दृष्टि द्वारा, आहत मनु का उद्धार करा के, समष्टिवाद का सुन्दर सन्देश दिया है। आज के युग में यह दृष्टि, यह विचारधारा अत्यधिक अपेक्षित है।जीवन का सन्तोष अन्य का रोदन बन हँसता क्यों?दुर्व्यवहार एक का कैसे अन्य भुला पायेगा(कर्म सर्ग)x x x x x x x x x x x कौन उपाय गरल को कैसे अमृत बना पायेगा ? (कर्म सर्ग)जैसा कि निर्वेद सर्ग में ने महाकवि ने कहा है -तुमने हँस हँस मुझे सिखाया,विश्व खेल है खेल चलोसबसे करते मेल चलो(निर्वेद सर्ग)३-'कामायनी' वर्तमान समाज में व्याप्त उपयोगितावाद को नकार कर सर्वमंगलवाद की प्रतिष्ठापना करती है। आज का व्यक्ति, आज का समाज उपयोगितावाद को ही सर्वोच्च मानता है। उपयोगिता के आधार पर ही व्यक्ति का, वस्तु का चुनाव आज के समाज में होता है। व्यक्ति का अस्तित्व, उसकी उपयोगिता पर निर्भर है, वरना उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता है। वह समाज द्वारा उपेक्षित होता है। आज की इस उपयोगिता व सुविधा भोगी दृष्टि के विपरीत, कामायनी ऐसी सर्वमंगल की भावना से ऒत-प्रोत दृष्टि देती है जो अपना पराया, सबका भला, सबका हित, सबका मंगल चाहती है। 'कामायनी' की 'श्रद्धा' स्वयं ही सर्वमंगल का स्वरूप है। मनु का यह कथन -हे सर्व मंगले ! तुम महती, सबका दुःख अपने पर सहती,कल्याणमयी वाणी कहती, तुम क्षमा निलय में रहती(दर्शन सर्ग)'कामायनी' गरलसम हिंसा, क्रोध, अनुदारता, अकर्मण्यता, कुरूपता व असहिष्णुता कोनकार कर प्रेम, उदारता, कर्मठता, सुन्दरता, सहिष्णुता व कल्याण भाव काप्रतिपादन करती है, जो वर्तमान जीवन में वरेण्य है। तभी आज के मानव का, समाजका उद्धार सम्भव है। समष्टिवाद हमें यह विस्तृत दृष्टि देती है किरचनामूलक सृष्टि-यज्ञ-यहयज्ञपुरूष का जो हैसंसृति सेवा मार्ग हमाराउसे विकसने को है (कर्म सर्ग) यह संसार परमचैतन्य का यज्ञ है। इस यज्ञ रूपी संसार में हम प्राणियों का एक महान कर्त्तव्य है - संसार की सेवा, सबके सुख आनन्द हित के भाव से युक्त होना हैतथा इन सुन्दर भावों से समन्वित संसृति सेवा द्वारा ही संसार विकसित होकर आनन्दमय बनेगा।बढ़ती है सीमा संसृति की बन मानवता धारा(कर्म सर्ग)अर्थात् संसार, समाज का विकास, प्रसार - मानवतावाद, समष्टिगत भावों से ही सम्भव है।सुख अपने सन्तोष के लिए, संग्रह मूल नहीं हैउसमें एक प्रदर्शन जिसको देखे अन्य, वही है(कर्म सर्ग)तात्पर्य स्पष्ट है कि सुख संचित करने के लिए ही नहीं है, वरन् उन्हें दूसरों में भी वितरित करना चाहिए।जब चला द्वंद्व था असुरों में,प्राणी की पूजा का प्रचारसुर वर्ग कह रहा था पुकारमैं स्वयं सतत आराध्यआत्म मंगल उपासना में विभोर (इड़ा सर्ग)देवताओं का यह अंहकार कि हम देवों को दूसरे के सहारे की क्या आवश्यकता - उनके नाश का कारण बनता है -एक पूजता देह दीनदूसरा अपूर्व अहंता में अपने को समझ रहा प्रवीण(इड़ा सर्ग)x x x x x x x x x xउनका संघर्ष चला, अशान्त वे भाव रहे अब तक विरूद्ध (इड़ा सर्ग)देवों की विजय, दानवों की हारों का होता युद्ध रहा(लज्जा सर्ग) मौन, नाश विध्वंस अँधेराशून्य बना जो प्रकट अभाववही सत्य है ! अरी अमरते ! तुमको यहाँ कहाँ अब ठाँव (चिन्ता सर्ग )इसलिए थोथे अंहकार और दम्भ से हम मनुष्यों को दूर रहने का संकल्प करना होगा,तभी जीवन में मच्चे अर्थों में आनन्द का आधान होगा।४- 'कामायनी' में प्रसाद जी ने कल्याण समन्वित विज्ञान को अपनाने का शिवम् सन्देश दिया है। यंत्र मानवता की बलि के लिए नहीं, वरन् उसकी प्रगति व विकास के लिए है -तुम जड़ता को चैतन्य करो,विज्ञान सहज साधन उपाय,यश-अखिल लोक में रहे छाय(इड़ा सर्ग)निज पैरों चल, चलने कीजिसको रहे झोंकउसको कब कोई सके रोक (रहस्य सर्ग) मुझे याद है कि हाइस्कूल से बी. ए., एम. ए. तक हमने न जाने कितनी बार "विज्ञान जीवन का वरदान या अभिशाप "- इस विषय पर परीक्षा के लिए निबन्धतैयार किए होगे, क्योकि इस विषय पर विचारशील लोग हमेशा से विचार करते रहे हैंतथा स्कूल में अध्ययनरत भावी पीढ़ी को छोटी कक्षाओं निबंध लेखन के माध्यमसे इस विषय पर सोच विचार करने के लिए प्रेरित करते रहे हैं। अतएव यह हमेशा से एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है।आज प्रत्येक देश एटम बम जैसे विस्फोटक पदार्थों का, शस्त्रों का अनुसंधान कर मानव समाज को विनाश के गर्त में भेजने को तत्पर है, ऐसी ध्वंसात्मक परिस्थितियों में 'कामायनी' का संकेत कल्याणकारी है। कवि ने पश्चिमी आधुनिक सभ्यता की संरचना में भारतीय आध्यात्मिकता, एकता, अद्वैतता की दृष्टि को समाहार रूप में प्रस्तुत किया है।५- 'कामायनी' आज के समाज में हर ऒर व्याप्त विषमता के नकारकर समरसता का आधान करती है। आज का समाज घोर पूँजीवादी है। मनुष्य की दृष्टि अधिकाधिक धन कमाने तक सीमित है। उपभोक्ता लाभार्जित करने की उत्कट लालसा से श्रमिकों व समान्य जन का शोषण करता है जिससे दुख दायी व असन्तुलित व्यवस्था उत्पन्न होती है। शीघ्रातिशाघ्र धन कमाने की लालसा में आज का युवा वर्ग मूर्खतावश अपहरण, क़त्ल,फिरौती माँगना, दूसरों के खातों से नित नई तरकीबों से धन निकाल लेना, ए.टी.एम मशीनों से धनराशि ले लेना आदि अपराध कर स्वयं के लिए दुख व कष्टों की खाई खोदते है। इस प्रकार उनके जीवन में अभाव और पश्चाताप के कुछ भी शेष नहीं रहता।जगती तल का सारा क्रन्दन, यह विषमयी विषमता,चुभने वाला अंतरंग छल,अति दारुण निर्ममता(कर्म सर्ग )x x x x x x x x x x xअग्रसर हो रही यहाँ फूटसीमाएँ कृत्रिम रहीं टूट ।(दर्शन सर्ग)यह विष जो फैला महाविषम, निज कर्मोंन्नति में करते सम(दर्शन सर्ग)यहाँ निःसन्देह प्रसाद जी आज की भौतिकवादी व्यवस्था की ऒर संकेत करते हैं। उसका विरोध करते हैं - उससे उत्पन्न विषमताएँ व समस्याएँ दिखाकर। इस विषमता का निराकरण ज्ञान, इच्छा व क्रिया का समन्वय कर, समरसता का आवाहन करने पर ही सम्भव है। जीवन में समरसता व परस्पर सहयोग को अपना कर ही किया जा सकता है- संघर्ष व प्रतिस्पर्धा के बल पर नहीं। दार्शनिक लेखक ने समरसता का निरूपण मात्र प्रत्यमिज्ञादर्शन के सार रूप में नहीं किया है, वरन वह हर युग के हर समाज को समरसता की दृष्टि, जीवन के विकास, जीवन में शान्ति व आनन्द प्राप्ति के लिए देना चाहता है। परोक्ष रूप से 'तत्त्वमसि' का ही प्रतिपादन कवि कर रहा है, अर्थात् 'वह तू है' यानी हम सब उस विराट् चैतन्यरूपा सत्ता का ही अंग हैं, फलस्वरूप हम एक दूसरे के सहयोगी और पूरक बने तथा द्वन्द्व, संघर्ष एवं विध्वंस को समाप्त कर जीवन को समरस बनाएँ।बुराई से , शुभ इच्छा की है बड़ी शक्ति(इड़ा सर्ग)काम के शाप और संघर्ष में, प्रजा के उद्गारों के माध्यम से, वर्तमान सभ्यता के मूलभूत दोषों की ऒर प्रसाद जी ने स्पष्ट संकेत किया है।रोकर बीते सब वर्तमान क्षण, सुन्दर सपना हो अतीत पेंगों में झूले हार जीत(इड़ा सर्ग) द्वेषभाव की निरन्तर बढ़ती भावना वर्ग संघर्ष, वर्ण व जातिगत वैमनस्य व आतंकवाद को जन्म देकर जीवन को विषमय बना रही है। जिससे वर्तमान रोकर व्यतीत होता है और जीवन संग्राम बन कर रह जाता है। अमेरिका, दिल्ली और मुम्बईपर हुए आतंकवादी हमले इसी विषमयी सोच के परिणाम है।जीवन सारा बन जाए युद्ध, उस रक्त अग्नि की वर्षा में, बह जाए सभी जो भाव शुद्ध (इड़ा सर्ग) अभेदता, समरसता की प्रतिष्ठापना हेतु प्रसाद जी की यें पँक्तियाँ स्मरणीय हैं-अपने सुख दुख से पुलकितये मूर्त विश्व सचराचरचिति का विराट वपु मंगलहै सत्य, सतत, चिर सुन्दर (आनन्द सर्ग)कवि द्वारा मानव जाति को यह सीख, समरसता की स्थापना हेतु ही है -सब भेद भाव भुलवाकरदुख-सुख को दृश्य बनातामानव कह रे, यह मैं हूँयह विश्व नीड़ बन जाता(आनन्द सर्ग)x x x x x x x x x x x स्पर्धा में जो उत्तम ठहरे, वे रह जावेंसंसृति का कल्याण करे, शुभ मार्ग बतावें(संघर्ष सर्ग)अर्थात् हे मानव, तू जनता के, जीवन के , सारे भेदभाव भुलाकर, सुख - दुख को तटस्थ भाव से दर्शक बनकर देख और इस अवस्था को प्राप्त करके, इस बात की घोषणा कर कि - यही मेरा सच्चा रूप है (अभेद रूप) ! यदि तू ऐसा कर सके तो सारा संसार ही एक घोंसला बन जाए, एक हो जाए !!इस प्रकार कामायनी वर्तमान युग के भौतिकवाद व्यष्टिवाद, उपयोगितावाद, विद्वेष व विविध द्वन्द्वों से पूर्ण, विज्ञान के दुरूपयोग में रत, विषमताऒं से आवृत, त्रस्त व विकल आज के मानव को समरसता, समष्टिवाद, कल्याण समन्वित विज्ञान, आनन्दवाद व सर्वमंगल की,सबके कल्याण की शिवम् दृष्टि देती है। जिस जीवन शैली,जीवन दृष्टि को अपनाने का प्रकारान्तर से सुझाव कवि ने दिया है, यदि उसे हम अपने जीवन में छोटी छोटी बातों व कार्यों में उतारना प्रारम्भ करें व औरों को भी प्रेरित करें तो हम उद्देश्य विहीन मार्ग से भटके हुए, मूल्य हीन, अव्यवस्थित, निरूपाय, फलतः दुखी व हताश निराशा के अंधकार में डूबे व्यक्तियों को संगठित कर, उन्हें उनकी विषमता,मूल्यविहीनता से उबार कर श्रद्धा, बुद्धि, प्रेम व कल्याणयुक्त कर्म करने की प्रेरणा देकरइस धरती को आनन्द भूमि बनाने में समर्थ हो सकते हैं।

2 comments:

  1. इतने लम्बे लेकिन रोचक और वैचारिक लेख के लिए बधाई

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  2. आज का समाज घोर पूँजीवादी है।
    पुरे आलेख का मुख्य कारक पुन्जीवाद होना ही है। आपने सुन्दर समिक्षा की-आभार्

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