हाल ही में मैंने शमोएल अहमद का उपन्यास नदी पढ़ा जिसने मुझे बहुत अधिक प्रभावित किया। इस उपन्यास में लेखक की सबसे बड़ी ख़ूबी यह है कि उन्होंने नारी मन की विविध परतों को जिस कुशलता से खोला है और उनमें समाए कोमलतम भावों को जिस बरीकी से अंकित किया है, वह नारी मन के भावों और नारी मनोविज्ञान पे उनकी गहरी पकड़ का परिचायक है। उन्होंने उपन्यास नायिका के दिलो – दिमाग़ में अलग –अलग परिस्थितियों में उभरते प्यार, घृणा, सुख, दुख, उत्साह, निराशा, कौतुक, आश्चर्य, विषाद, अवसाद और अकेलेपन को बड़ी ही सहजता और स्वभाविक ढंग से चित्रित किया। नारी मन को जिस बेबाकी से उन्होंने उकेरा है वह नि:सन्देह अतिसराहनीय है। सबसे बड़ी बात यह कि शमोएल अहमद ने समूचे उपन्यास में कहीं भी नायिका को पति के साथ ग़लत समझौते के लिए विवश नहीं किया है। जहाँ नायक रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में नियमों से हठधर्मिता की हद तक बँधा एक भावनाशून्य इंसान है, वहीं दूसरी ओर नायिका जीवन को सहजता से, किसी भी तरह की शर्त और नियमों के बंधन से मुक्त होकर जीने वाली भावुक और संवेदनशील नारी है। वह सृष्टि के कण-तृण से जुड़ाव महसूस करती है। प्रकृति के सौन्दर्य पे मुग्ध होकर, उससे एकात्म हो उठती है। सुहानी भोर, रुपहली चाँदनी,तारों भरी रुमानी रात उसे जब-तब लुभाती है। सृष्टि के उन अलौकिक क्षणों को वह भरपूर जीना चाहती है, मानो सांसों में उतार लेना चाहती है और ऐसे ख़ूबसूरत रूमानी पलों के एहसास को वह नायक के साथ जीकर अपने दिल में संजो लेने को आतुर रहती है, लेकिन संवेदनहीन नायक ऐसे पलों के अनूठेपन को महसूस न कर, हमेशा नायिका के साथ रूखेपन और कठोरता से पेश आता है। एक बार, दो बार, और बार–बार उसकी यह शुष्कता शनै: - शनै : कुरूपता में बदलती जाती है। नायिका नियमों, बन्धनों से परे होकर भी बेतरतीब और उलझी हुई नहीं है। सुलझी सोच से भरी है। पति द्वारा छोटी – छोटी बात पे उपेक्षित और अपमानित ज़रूर महसूस करती है, फिर भी पति के रंग में रंगना चाहती है, समझौता करने को तैयार रहती है, पर पति की तर्कहीन हठधर्मिता के कारण उसकी इस रिश्ते के प्रति बची खुची स्निग्धता भी जैसे सूखने लगती है। वह उमड़ती नदी की मानिन्द जीवन्त है, अठखेलियों से भरी है, प्रेम की तरंगों और लहरों से भरी है और अपने प्यार भरे प्रवाह की अंतिम मंज़िल समन्दर के साथ एक हो जाना मानती है। हांलाकि नायक का पौरुष से भरपूर व्यक्तित्व उसे रिझाता है और यह पौरुष ही उसके नज़दीक आने का कारण भी बनता है। लेकिन मन के स्तर पर लगातार नायक की यही परुषता दोंनो के बीच अलगाव का कारण बनती है। वह जीवनसाथी बनकर, हर पल, हर क्षण कठोरता से ही पेश आता है – यहाँ तक कि प्यार के भावनात्मक, नाज़ुक पलों में भी वह निहायत रूखा और यान्त्रिक बना रहता है। उसके व्यक्तित्व मे कभी भी कोमलता, भावनात्मक गरमाहट उभरकर ही नहीं आती। हर समय वह हठधर्मी की तरह अपने नियम और हठ पे अड़ा रहता है। जीवन की सुकोमल परतों से अछूता, निहायत ही पथरीला सा व्यक्ति है वह। न व्यक्तित्व में, न सोच में, न दिनचर्या में, कहीं भी लचीलापन नहीं.....पत्नी का दिल रखने के लिए भी वह न बातें करता है, न कॉफ़ी पीने में साथ देता है। जीवन की ख़ूबसूरतियों से महरूम, एक सपाट सा इंसान है जिसकी दिनचर्या नियमों से शुरू होती है और नियमों पे ख़त्म। उसमें किसी की – यहाँ तक कि अपनी नई नवेली दुल्हन की दख़लअंदाज़ी भी उसे पसन्द नहीं। उसके एकरस नियम - प्यार, अपनेपन, जीवन के ख़ूबसूरत लम्हों के ऊपर हैं। ऐसा जकड़ा सा, बंधा - बंधा इंसान न ख़ुद जीता है और न दूसरे को जीने देता है। उसके जीवन मे सपाट ज़न्दगी से उपजी जो कठोरता और रूखापन है, वह पूरी तरह उसके व्यक्तित्व में छाया हुआ है। वह तमतमाए सूरज की भाँति सदा पत्नी को झुलसाता रहता है, कभी भी गुनगुनी धूप बनकर, उसे सुखद एहसास से नहीं भरता। समर्पण के मखमली क्षणों में उसका यंत्रवत व्यवहार पत्नी को इस कदर कचोटता है कि वह उसे एक ‘’उत्पीड़क’’ नज़र आता है। जैसे वह खाना खाने के बाद, जी भर कर कई गिलास पानी पीता है, वैसे ही वह कामक्षुधा तृप्त करके, करवट लेकर जी भर के सोता है – उसकी बला से पास लेटी पत्नी, कुछ पलों के लिए उसके प्यार भरे स्पर्श को तरसे या उसकी बाहों के घेरे में सुकून से सोना चाहे। नायक स्वार्थी होने की हद तक भावनाहीन, सिर्फ़ अपने लिए जीने वाला प्राणी है, जबकि नायिका ठीक इसके विपरीत जीवन को पल-पल जीना चाहती है. सृष्टि की हर छोटी से छोटी चीज़ उसे खींचती है, लुभाती है – फूल, लताएँ, चाँद, तारे, नदी, नदी के पाट, शफ़्फ़ाक चाँदनी से भरपूर रेशमी रात – वह सबमें दिव्य सौन्दर्य, संगीत, प्यार की तरंगे- न जाने क्या – क्या ढूँढती है, अनुभव करती है, पति को इन ख़ूबसूरतियों की ओर खींचना चाहती है। पर पति की ओर से नरमाहट, किसी भी तरह की गरमाहट की कोई भी किरण न पाकर वह टूट –टूट जाती है। फिर भी नारी मन की सहज प्रवृत्ति उसे बार –बार पति से तालमेल बैठाने के लिए प्रेरित करती है कि कुछ वह झुके और कुछ पति झुके तो बीच का एक रास्ता ऐसा निकल आए कि दोंनो उस पर सम्भाव से जीवन भर साथ साथ चल सके। लेकिन पति तो रोबोट की तरह अपने में फ़ीड किए प्रोग्रामों से इस क़दर जुड़ा है कि उसके पास समझौते की कोई गुंजाइश ही नहीं, तो आहत नायिका का पिता के घर लौटना जैसे उसकी नियति बन जाता है। वह पत्नी है तो क्या हुआ, उसका अपना एक व्यक्तित्व है, अपनी एक पहचान है, उस पर वह, मननशील और चिन्तनशील स्वभाव की है, उसकी भी पसन्द –नापसन्द है। इतना होने पर भी जीवन साथी की ख़ातिर कई बिन्दुओं पर समर्पित होने को तैयार रहती है। पर पति को तो कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता, वह उसके साथ रहे या न रहे,उसे क्या अच्छा लगता है, क्या बुरा लगता है, वह कब ख़ुश होती है, चहकती है, कब फफक पड़ती है ?? यह मानसिक उत्पीड़न, पति का भावनात्मक ठन्डापन उसकी भावनाओं को कुचल देता है. पति द्वारा पहले वह बैडरूम से दूसरे बैडरूम में विदा कर दी जाती है, फिर उस घर से पिता के घर विदा हो जाती है जो अन्तत: पति के जीवन से उसकी विदाई का संकेत है।
कोई भी जीवन साथी – चाहे वह पुरुष हो या नारी अपने भावनात्मक रूखेपन, ठन्डेपन, स्वार्थीपन और हठधर्मिता से अंजाने किस तरह जीवनसाथी को अपने से दूर कर देता है, इस पर शमोएल अहमद ने बड़े ही मनोवैज्ञानिक ढंग से क़लम चलाई है। बीच – बीच में प्राकृतिक चित्रण खूबसूरत बन पड़े हैं। नारी जीवन को उन्होंने बड़े क़रीब से जाना और परखा है। भाषा सहज, सरल, पारदर्शी, निखरी –निखरी,भावप्रवण और प्रवाहपूर्ण है। पाठक को अंत तक बाँधे रखने की क्षमता से भरपूर है। हर भाव, हर विचार सीधे दिलो दिमाग़ में उतरता चला जाता है।
इतने ख़ूबसूरत उपन्यास के लिए शमोएल अहमद की जितनी भी सराहना की जाए कम है। आशा है कि भविष्य में इसी तरह और भी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ने को मिलती रहेगीं तथा वे अपनी क़लम से साहित्य को सम्पन्न बनाते रहेगें।
Friday, October 2, 2009
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