आयुर्वेद के अनुसार जड़ी बूटियों की रानी ‘सोमलता’ पौधे
के आकार की एक अनूठी लता होती है ! यह हिमालय और केरल के घाटों
में ही
उपलब्ध होती है
! इसमें
ठीक १५ पत्तियाँ होती हैं ! ये पत्तियाँ पूर्णिमा
के दिन ही देखी जा सकती है, यानी
पूर्णिमा की धवल
कौमुदी में ही इसकी पत्तियाँ दिखाई देती हैं ! पूर्णिमा के अगले दिन जैसे-जैसे
‘सोम’ यानी
चाँद हर
दिन घटता जाता है,
सोमलता की
पत्तियाँ
भी
एक-एक करके गिरनी शुरू हो जाती
हैं ! हर दिन एक पत्ती गिरती है और उधर इस तरह १५ दिन में
चाँद का कृष्ण पक्ष आ जाता है और सोमलता बिना पत्तियों की हो
जाती
है ! लेकिन नए
चाँद की
जैसे ही नई यात्रा शुरू होती है, यानी पुन: चाँद बढ़ना शुरू होता है – सोमलता
पर
हर रोज एक नई पत्ती आनी शुरू हो जाती है ! चन्द्रमा के घटने और बढने के साथ सोमलता
की
अद्भुत पत्तियाँ सोमरस को अपने में संजोए उगती और झरती हैं
! इन
पत्तियों का रस
सोने की सुई
से बड़ी सावधानी से निकाला जाता है ! जिसका प्रयोग 'सोम
यज्ञ'
और ‘रसायन’ उपचार
में किया जाता है ! 'रसायन' एक
आयुर्वेदिक इलाज होता है, जो
‘कायाकल्प’ करता
है ! यानी वार्धक्य और मृत्यु की ओर जाते शरीर के चक्र को पुनरावर्तित
कर देता है ! It
rewinds
the life cycle . A person who had lost
energy, vitality & charm due to sickness or
ageing, he regains it or we
may say it rejuvenates a person.
It compensates what the human
system lacks at every
stage of life.
This‘Kayakalp’
treatment is often misinterpreted as
Geriatrics or old age care,
but it is a process of
rejuvenation – a technique for reversing
age. Reversing is not a myth,
it is a reality.
‘चन्द्रमा
और सोमलता’
के इस अद्भुत अन्योन्याश्रित चुम्बकीय सम्बन्ध में हमने एक शाश्वत
'अमर
प्रेम'
की परिकल्पना की है ! यह परिकल्पना ही हमारी कविता का आधार है !
(इसके अलावा प्रेम का आधार मन होता है और मन का कारक या स्वामी
चंद्रमा होता है ! यह बात भी परोक्ष रूप से इस कविता में समाहित है
)
'अमर प्रेम'
आसमां के
तले भी
आसमां था
वितान सा
रुपहला इक तना था
तिलस्मे-ज़ीस्त यूं पसरा हुआ था
चाँद पूरी तरह निखरा हुआ था
प्रणय के खेल हंस-हंस खेलता था
सोमरस ‘सोमा’ पे उडेलता था;
इधर इक ‘सोमलता’ धरती पे थी
देख कर चाँद को जो खिल उठी थी
प्रिय के प्रणय से सिहरी हुई सी
सिमटती, मौन, सहमी - डरी सी
लहकती, लरजती,कंपकपी से भरी थी
सराबोर शिख से नख तक, खडी थी;
ना कह पाती-''नही प्रिय अब संभलता
करो बस,मुझ से अब नही सम्हलता''
समोती झरता अमिय पत्तियों
में
सिमट जाती मिलन
प्रिय-प्रणयों में .
सिमटती दूरियां, धरती व अम्बर
महकते वक़्त के, मौसम के तेवर;
मिलन की बीत घड़ियाँ कब गई, और
दिवस बिछोह का आ बैठा सर पर
लगा दुःख से पिघलने
चाँद नभ पर
परेशान, विह्वल, सोमा धरा पर
'जियूंगी बिन पिया कैसे ?' विकल थी
पल इक-इक था ज्यूं,युग-युग सा भारी;
थाम कर सोमा की तनु-काय न्यारी
अनुरक्ति से बाँध बाहुपाश प्यारी
चाँद अभिरत, तब अविराम बोला
हृदय की विकलता का द्वार
उसने खोला;
''मैं लौटूंगा प्रिय देखो तुरत ही
तुम्हारे बिन ना रह पाऊँगा मैं भी ...
के तुम प्रिय मेरी, प्राण सखा हो,
के मेरे हर जनम की आत्म ऊर्जा
हो;"
तभी से चाँद हर दिन-दिन है घटता
लता 'सोमा' का तन पीड़ा से कटता
ज्यूं पत्ती इक इक कर गिरती जाती
जान उसकी तिल-तिल निकलती
जाती
दिवस पन्द्रह नज़र आता न चंदा
तो तजती
पत्तियाँ 'सोमा' भी पन्द्रह
उजड़, एकाकी सी बेजान
रहती
दिवस पन्द्रह
पड़ी कुंठा ये सहती;
तभी नव-रूप धर चन्दा फिर आता
खिला अम्बर पे झिलमिल मुस्कुराता
झलक पाकर प्रियतम की सलोनी
हृदय सोमा का भी तब लहलहाता
रगों में लहू प्राणाधार बन कर
दौड़ता ऊर्जा का संचार बन कर
फूट पड़ती तभी कोमल सी पत्ती
लड़ी फ़िर दिन ब दिन पत्तों
की बनती;
उफ़क पर चाँदजब बे-बाक़ खिलता
चैन सोमा
को तब धरती
पे मिलता
सफ़र पूरा यूं होता पन्द्रह दिनों का
प्रणय - उन्मत्त चाँद गगन में चलता
छटा सोमा की तब होती निराली
ना रहती विरह की बदरी भी काली;
सिमटते चाँद संग पत्ती का झरना
निकलते चाँद पर पत्ती का भरना
लखा किसने अनूठा ये समर्पण
ये सोमा -चाँद की निष्ठा का दर्पण
देन अद्भुत
अजब मनुहार की ये
है दुःख -हरनी कहानी प्यार की ये !