Tuesday, December 25, 2012


माँ के जाने बाद ’


तू   मेरी   माँ,  तू   ही   पिता   थी
इसलिए  लगा  मैंने  दो  जन को खोया
आँखें  थी  बरसी, दिल  ज़ार-ज़ार  रोया
अनगिनत    कितनी     मासूम   यादें 
प्यारी - प्यारी   वो   ढेर  सारी   बातें
डर  लगने पर मैंने ‘माँ’ कह  के पुकारा
बन  भगवान  मेरी, तूने  भय से उबारा
    दर्द  में  नाम तेरा लिया  तो
भूली   मैं   पीड़ा,  दर्द   मेरा  भगाया
जब  भी  हुई  मैं  असुरक्षित ज़रा  भी 
तेरा   वजूद    साया    बन   मंडराया
उंगली   पकड़,   डग   भरना  सिखाया
डगमगाई,  गिरी   तो   उठना  सिखाया
माँ,   पापा,   नानी,  मामा  और ताया
शब्दों   से   रिश्तों   का  पाठ  पढाया
बालों  में  मेरे, जब तूने  रिबिन लगाया
नन्हा  सा  मेरा  तन -  मन  इठलाया
  खिलौना टूटा तो बांहों में भर कर
मुझको   हंसाया  और   हाथों   झुलाया
तपी  जब  भी ज्वर  से, रात में कभी मैं 
गोदी  में   लिए,  मीठी   नींद  सुलाया
   आई  सर्दी और बर्फ पड़ी  तो
पशमीने  में  दुबका  सीने  से लिपटाया
   तपती गरमी में बिजली गई तो
हाथों    से    घंटों    पंखा    झलाया
फ्राक   सिला,  कभी   स्वेटर   बनाया
   किताबी  सवालों को  ही  नहीं
जीवन के  सवालों को भी, तूने सुलझाया
  
याद   है   दिल  जब   चिटका   था  मेरा 
दरारों  को  भर  तूने,  मेरा  जीवन  बनाया
रिश्तों    की    सीवन  उधडी   कभी  तो,
बखिया  कर,  उन्हें  पक्का  करना सिखाया....
   कभी कवच, तो कभी ढाल बनी तू 
मुसीबतों  में   हिम्मत   का  पाठ पढ़ाया
   संस्कारों, भावों,विचारों की संपत्ति
   दे  कर  मुझे  संपन्न   बनाया
तूने   मुझे   धडकने, साँसे   दीं  कितनी
इसका    हिसाब    कभी       लगाया
छोटी - बड़ी    तेरी    ढेर   सी   बातों  से 
रिश्ते   के  आँचल  को  और गाढा  पाया
मेरा   वजूद    ये    अक्स    है   तेरा
तू   मेरे  जीवन  का  अनमोल  सरमाया !

Sunday, September 16, 2012


प्रिय साथियों   और   (विशेष रूप  से)   कविता जी !

             शब्द के  अर्थ, रूप  आदि को लेकर जब कोई चर्चा होती है  तो   अपनी  बात कहने  के बाद, यदि  विपक्षी  स्वीकार  न करे, तो, उस स्थिति  में,  दूसरा कदम   है -  उसे   प्रमाण  सहित  समझाने  का प्रयास करना  !  इस  व्यवस्थित   प्रक्रिया  के तहत  अब मैं  कविता  जी को बताना चाहूंगी  -
१)  अनेक शब्दकोश ऐसे हैं  जिसमें  एक  शब्द   के  दो स्वीकृत  रूपों   का  उल्लेख  नहीं  होता - जगह  व  पृष्ठ संख्या को   नियंत्रित  रखने के लिए !
अतएव  ऐसे   शब्दकोश  और उनके  बनाने  वाले  कम   ही  मिलेगें  जो  एक शब्द  के  दोनों  रूपों   का  बाकायदा  उल्लेख करें  तथा   उनके  अधिकतम  और सूक्ष्म  से सूक्ष्म  अर्थ  भी  दें !  इसका  तात्पर्य  यह  नहीं  कि  जिनमे  दोनों रूप  नहीं, वे शब्दकोश  प्रामाणिक  नहीं  हैं !

२)  मेरे पास   श्री  कालिका  प्रसाद, राजवल्लभ  और  मुकुंदीलाल  श्रीवास्तव  द्वारा  तैयार  किया गया, ज्ञानमंडल, वाराणसी  का  'वृहत्  हिन्दी शब्दकोश '  है,  जिसे मैंने  अपने गुरु  के परामर्श से  बड़ी सोच समझ  के बाद  ख़रीदा  था   तथा  जिसमें संस्कृत-हिदी के तत्सम,  तद्भव,  इनके अलावा   देशज,  प्रांतीय,  स्थानीय बोलियों  आदि  के अधिकतम  शब्द   विस्तार  एवं   बारीकी  के  साथ   दिए गए   हैं  !  सुधीजनों की मांग पर इसके   चार  संस्करण  निकल  चुके   हैं  ! बहुत  ही मान्य  और  हर तरह  से  प्रामाणिक   शब्दकोश  है !   प्रामाणिक   यूं  तो  सभी   कोश  हैं लेकिन  इसमें विस्तार  बहुत  है !

३)  अधिक  न  कह  कर कम शब्दों में अपनी बात कहना  चाहूँगी - फिर  भी विस्तार  तो  थोड़ा   बहुत  होगा क्योंकि   कारण  सहित शब्द   की बारीकी  में  जाना   है !  आप  इस  कोश  के  पृष्ठ  २६९  पर  पहले  'कोटि'  शब्द   देखे ! इसके  अनेक अर्थ  आपको मिलेगें  जिनमे  एक अर्थ  है - करोड !  इसके बाद  अगले  पृष्ठ  २७०  पर देखें , जिस पर  ईकार  के साथ - कोटी  शब्द है !

पृष्ठ  २६९  पर  देखें :
कोटि -  स्त्री० ( सं०) धनुष  की नोक, सिरा, किसी चीज़  का सिरा, किसी हथियार की नोक, दर्ज़ा, वर्ग, वाद  का पूर्व पक्ष, परमोत्कर्ष, आखिरी दर्ज़ा,
करोड की संख्या,  अर्द्ध  चन्द्र  का सिरा, राशि चक्र  का तीसरा अंश, ९० अंश  के चाप  के  दो समान  भागों  में  से  एक ! 
पृष्ठ  २७०  पर देखें :
कोटी -  स्त्री० ( सं०)  दे ०  कोटि !  (  दे०  =   देखे   'कोटि'  शब्द)  -  इस निर्देश  का   सीधा   तात्पर्य  है  कि  जितने  अर्थ   'कोटि'   रूप  के  अंतर्गत लिखे   गए   हैं , वे ही सब  'कोटी'  के  भी   अर्थ    हैं !  कोटि   और  कोटी -  दोनों   के  समान अर्थ है !  दोनों   शुद्ध  हैं ! दोनों  प्रामाणिक   हैं !  दोनों ही  संस्कृत  निसृत  हैं !

इसी तरह  दो रूपों वाले  आपको  और भी शब्द  मिलेगें  जैसे :
कोश
कोष
दोनों के समान अर्थ है !  दोनों   शुद्ध  हैं ! दोनों  प्रामाणिक   हैं !  दोनों ही  संस्कृत  निसृत  हैं ! 
 ४)  लोग  एक रूप  का  ही  प्रयोग  होने के  करण  दूसरे रूप  को  या  तो भूल जाते   है  या अशुद्ध   मान लते हैं  ! यहाँ तक कि   न जाने  कितने  हिन्दी    के  जानकार,   एक  ही  शब्द  के  दो   शुद्ध   और  प्रामाणिक   रूपों  के  से  अनभिज्ञ  होते  हैं  क्योंकि  जब एक शब्द  से  काम चलता है तो उसके   दूसरे रूप को    वे   प्राय: भूल जाते हैं , जो स्वाभाविक  भी है !  न उसके बारे में जानने  की उत्सुकता शेष रहती हैं !  वह   'भूला हुआ शब्द'  तब  सामने आता  है , जब उसका  कोई  प्रयोग  कर बैठे  जैसे  की   हाल  ही में,  विश्व  हिन्दी सचिवालय, मारीशस  ने  किया !  तब  उस शब्द  को  विस्मृत  कर देने वालों को  वह शब्द  अशुद्ध   ही नहीं अपितु  अस्तित्वहीन  भी लगता है  !  जबकि उसका  अस्तित्व  भी होता है  और अर्थ  भी  !

५) अगर  कुछ  लोगों को  किसी शब्द के बारे में विस्मृति  हो गई हैं  और वे  किसी  दूसरे  से उस शब्द की  प्रामाणिकता, रूप, अर्थ के बारे में  सुनते  हैं  तो  कविता  जी,  अनेक ज्ञानीजन  ऐसे  धीर, गंभीर  भी   हैं  जो  शांति से   उसे सुनेगें  और  प्रमाण सहित  उस  शब्द  के अस्तित्व  व   अर्थ का उल्लेख  करने पर, उसे  स्वीकारेगें   भी !  आपकी   तरह  हठधर्मिता  नहीं दिखाएगें !

६) मैं   अपनी   तरफ  से  ' कोटी'   शब्द   गढ  नहीं  रही !  यह  बाकायदा प्रामाणिक   वृहत् शब्दकोश  का हिस्सा है !  संस्कृत  - हिन्दी के  वैयाकरणों  द्वारा  'सिद्ध'  शब्द  है,  जिसे   उन  प्रचीन  समर्पित  भाषाविदों  ने   अपने  शब्दकोश  का हिस्सा  बनाया   जो  एक शब्द  के  यदि   दो रूप  हैं  -  तो  दोनों  को   उद्धृत   करने  में विश्वास  करते थे !  बदलते  समय के साथ यह  चलन  हो गया है  कि  अब  एक शब्द के दो  रूपों  को   देने  का  कोई   कष्ट   नहीं   करता  और  न  वाजिब  समझता  है  (पसंद  अपनी-अपनी, ख्याल अपना-अपना)  !  भाषाविद - आज  के भी और  पहले  के  भी -  सभी एक  से बढकर  एक  हैं  - सिर्फ  चलन  और  प्रवृत्ति  का  अंतर  हो गया है !  इससे  और  कुछ  नहीं , सिर्फ  भ्रान्तियाँ  उपजती  है  तथा  भ्रान्तियाँ   चर्चा  को   जन्म  देती    हैं !

ये  तो  चलिए  एक  ही शब्द  के  दो शुद्ध  और  प्रामाणिक  रूपों की बात हैं !  आने वाले समय में  जब एक कहेगा कि  'उपर्युक्त'   शब्द   सही है और  दूसरा  कहेगा  की  नहीं - 'उपरोक्त'   सही   हैं !  तब क्या  होगा ? क्योकि  इनमे  एक शब्द  ही   शुद्ध  है  और  दूसरा  रूप  वाकई अशुद्ध  है !

उपर्युक्त  =  उपरि + उक्त  ( यण  संधि  से  'रि'  की  'इ '  को  'य'   आदेश  हुआ  और  इ  के  उ में  मिलने पर  शेष  बचा  आधा र् , 'य 'पर  लग गया )
यहाँ  दोनों शब्द  तत्सम है !   याद   रहे कि   संधि  दो तत्सम  या   दो  तद्भव  शब्दों में ही होती है ! ये नहीं कि एक तद्भव  और एक  तत्सम

'उपरोक्त'   यदि  इस  शब्द का विच्छेद  करें  तो  -
उपरोक्त' = उपर + उक्त 
अब आप  सोचे कि   'ऊपर '  शब्द  तो   हिन्दी  में  होता  है  लेकिन   'उपर'  शब्द   होता  है क्या ??  (या फिर संस्कृत  का शुद्ध ' उपरि'  है )   तो फिर   'उपर'   (एक अशुद्ध  शब्द  जो न  संस्कृत में है और न हिन्दी  में ) उसे   'उक्त' ( संस्कृत के तत्सम शब्द )  से  बिना  किसी  नियम  के जोड़ कर  'उपरोक्त '  शब्द  बना दिया गया  और  हिन्दी पर थोप दिया गया  केवल कुछ लोगों की सुविधा के कारण !
  राजभाषा  विभाग ने  सरकारी महकमों में  लिपिकों  के हिन्दी के  कम ज्ञान की वजह  से  - उनके द्वारा  अशुद्ध रूप   उपरोक्त, उपरोक्त, उपरोक्त  बार-बार  लिखे जाने पर, उनकी सुविधा  के चलते, इसे स्वीकृती दे दी ! 

भाषा संबंधी  इस तरह  की बहुत भ्रान्तियाँ  हैं कविता जी  जिनके चलते   आप  और  हम जैसे  शुद्ध  भाषा के  समर्थक  बहस में पड़ जाते हैं  सिर्फ  इसलिए  कि   दो  चर्चाकारों  में  से  एक  ने   दो  समान  रूपों  और  समानार्थी  शब्दों की  बारीकियाँ  दिलो-दिमाग  में संजो कर रखी   हैं   और   दूसरे   ने   नहीं !

हम   सभी  परस्पर  यदि  एक  दूसरे  से  किसी शब्द  को स्वस्थ  और  सही तर्क  के तहत  सीख  लेते   हैं   तो   इसमें  हानि  ही  क्या है ?  भाषा   की गरिमा  ही  बढती  है  और  हमारी जानकारी बढती है !

सादर,
                                                                दीप्ति







Saturday, September 15, 2012


 'डा.'   कविता जी,
                     आप  जिस  शब्द  को  लेकर इतना  'हाहाकार'    मचा  रही   हैं   और    शर्म  से  अपनी  गर्दन   झुका-झुका कर  नीची कर रही हैं , साथ  ही   दूसरों की  गर्दन  की भी   चिंता    करके  घुटी  जा  रही  हैं ,  दरअसल  वह  'कोटी'   शब्द  सही है ! 

सचिवालय  की  ये   शुभकामनाएँ    हमारे  पास  भी  आई   थी   और  कोटी  लोगों  के   पास  गई   होगीं ! 

आप अपनी  यह नक्कार खाने  वाली  शैली  और  हाहाकारी  भाषा  कब त्यागेगी  ?  दूसरे   को   ललकारने  से  पहले  अपने  ज्ञान  की जांच  कर लिया   कीजिए  ! दूसरों   को   जो  आप   मास्टरनी    बन   कर  पाठ   पढ़ा    रही   हैं   कि  उनका  हिन्दी का   ज्ञान भी   प्राईमरी   स्तर   का   है ,  नैट  पर  खोज  लेते   वगैरा,  वगैरा .....लेकिन  उससे  पहले,  आप  अपने   ज्ञान  पर   पर  भी    तो  एक  नज़र  डाल  लेती ,  शब्दकोश  खंगाल   लेती,  नैट  पर  खोज  लेती  !  इसलिए  बुजुर्ग  कह   गए   हैं  कि  दूसरे  पर  उंगली  उठाने  से पहले, अपने  गिरेबान  में झाँक  कर भी देख  लेना  चाहिए  !

 कविता  जी,   आप  कोई   भी  शब्दकोश   उठा कर  देखें , आपको  कोटि   और  कोटी  दोनों  शब्द  मिलेगें !     दोनों शब्द   स्वीकृत   हैं  और  पूर्णतया  शुद्ध  हैं !   जैसे  सूची   और  सूचि  दोनों  शब्द  आपको  शब्दकोश   में   मिलेगें ! किसी  भी शब्द  के  दो  रूप   प्रचलित  होने पर  शब्दकोश  उन्हें  दो बार अलग-अलग  देता  है  जिससे पाठक  यह जान ले   कि   दोनों   रूप  सही  हैं, स्वीकृत  हैं  और  प्रचलित   हैं !

२)  कविता  जी,   आप किसी   की  गलती पर  इस तरह   शोर  क्यों  मचाया   करती  हैं  कि  जैसे  बड़ा भारी अनर्थ  हो गया  हो !   कई  बार  आपको  इस   तरह   हो-हल्ला  करते  देख  चुकी   हूँ   और  उस  के बाद  आपको  गलत  सिद्ध  होते  भी देख  चुकी   हूँ !   गलती   कोई   इस  तरह  की भयंकर   होती  कि  चिंता    को  चिता  लिख दिया  गया  होता  या    मातृ छाया  को   मृत्यु छाया  लिखा दिया  होता -   तब   इतना  हल्ला   मचाना   एकबारगी    गले  उतर  भी  जाता ,   लेकिन  यहाँ  तो  आपको  भ्रान्तिवश   इ   और ई  की गलती नज़र  आई  और  आप   लगी   अपने  शाब्दिक  नगाड़े  पीटने लगी !  जबकि   सचिवालय  की  गलती   भी   नहीं   थी  ! खुद आप  ही गलत  निकली  !
अब  आपका   अपनी  गलती  पर  साँस लेना  तो  दूभर   नहीं   हुआ  जा  रहा ? ।  आपकी  हाइपर  अभिव्यक्तियाँ  ''मेरे साँस घुटी न रह जाए, कम से कम इतनी तो अनुकंपा करें''  इतनी  हास्यास्पद  होती  हैं  कि  हमें लगता है - न  जाने  क्या क़यामत  आ गई !   सो   इस तरह  हाइपर  होना  छोडिए, दूसरों  पर   अकारण  ही उंगली  उठाना  बंद  कीजिए  !  क्योंकि    हडबडी  में   की   गई   इस तरह  की गडबडी   हमेशा  आप पर   ही  भारी   पडती   आई  है,  इसलिए  गरिमा  को बनाए  रख    कर  अपने  ज्ञान  की जांच परख  करके  विरोध  करना  सीखिए ! 
   सद् बुद्धि (सद्बुद्धि)   की   शुभकामना  के साथ

                                                                                      दीप्ति

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प्रमाण  स्वरूप  कुछ उदाहरण :


                                संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश (कवर्ग)
            

                                         कोटी --- 1 करोड़, 10 लाख
                                         कोटि ----1 करोड़, 10 लाख
         
संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश (कवर्ग) - Wiktionary sa.wiktionary.org/wiki/संस्कृत-हिन्दी_शब्दकोश_(कवर्ग)
... शब्दकोश (कवर्ग). Wiktionary इत्यस्मात्. गम्यताम् अत्र : पर्यटनम्, अन्वेषणम्. मूल पृष्ठ पर चलें - संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश ..... कोटी --- 1 करोड़, 10 लाख )

           २)  बेसरि अरु गददह लष्ख इति का महिसा कोटी ।—कीर्ति०, पृ० ९४ ।

           ३)   उ०—कोटी करै वारै पतसाई ।—राम० धर्म०, पृ० १९९ ।

         

      हृदयांजलि: संतकवि रसखान की अनुपम कृति hrudyanjali.blogspot.com/2011/08/blog-post_02.html 2 अगस्त 2011 ...
 

                    जा छवि को रसखान विलोकत, बारत काम कलानिधि कोटी


नमस्ते,

आज आपकी हिन्दी दिवस की शुभकामनाओं वाला ईमेल मिला। धन्यवाद। आप को भी अलग से उसके उत्तर में शुभकामनाओं का एक ईमेल मैंने भेजा था, पुनः शुभकामनाएँ !!

यह ईमेल  एक विशेष प्रयोजन से एक भूल की ओर  ध्यान दिलाने के लिए लिख रही हूँ। 

आप द्वारा भेजे शुभकामना वाले ईमेल में एक चित्र बना था जिस पर अंकित था -   "कोटी कोटी कंठों की भाषा, जन गण की मुखरित अभिलाषा"

मैं ध्यान दिलाना चाहूँगी कि "कोटी कोटी" शब्द पूर्णतः अशुद्ध है। जिसने भी यह बैनर बनाया है, उसे मूल कवि की पंक्तियाँ तो सही सही नहीं ही पता, ऊपर से हिन्दी का ज्ञान भी प्राईमरी स्तर का है, अन्यथा उसे पता होता कि करोड़ के लिए हिन्दी में कोटी  (अशुद्ध ) नहीं अपितु  कोटि (शुद्ध ) शब्द होता है। मजे की बात यह है कि सचिवालय में किसी ने इसे जाँचने तक का कष्ट नहीं उठाया।  

मजे की बात यह है कि लक्ष्मीमल सिंघवी जी की यह कविता तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन में बोधगीत के रूप में प्रस्तुत की गई थी और निस्संदेह सचिवालय के रिकॉर्ड में उपलब्ध होगी, किसी ने उस से मिलान करने का कष्ट तक नहीं किया। और कुछ नहीं तो नेट पर सर्च ही कर लेने पर इसका सही पाठ उपलब्ध हो जाता। 


विश्व हिन्दी सचिवालय द्वारा हिन्दी दिवस पर शुभकामना संदेश तक में हिन्दी की ऐसी वर्तनी मेरी गर्दन झुका कर बहुत नीची कर देती है और मेरे लिए साँस लेना तक दूभर हो जाता है। इसलिए कृपया निवेदन है कि मेरे साँस घुटी न रह जाए, कम से कम इतनी तो अनुकंपा करें। मेरी तरह जाने किस-किस की गर्दन इस बैनर ने नीची की होगी उन सब की ओर से भी ... 

आपकी अतीव आभारी रहूँगी। 

शुभेच्छु
(डॉ.) कविता वाचक्नवी
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इनलाइन चित्र 1





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विश्व हिंदी सचिवालय 
फोन: 6761196, फैक्स 6761224




Monday, April 23, 2012


आयुर्वेद के अनुसार जड़ी बूटियों की रानी सोमलतापौधे के आकार की एक अनूठी लता होती है ! यह हिमालय  और केरल के घाटों में  ही उपलब्ध होती  है !  इसमें  ठीक १५ पत्तियाँ होती हैं !  ये पत्तियाँ  पूर्णिमा के दिन ही देखी जा सकती है, यानी पूर्णिमा की  धवल कौमुदी में ही इसकी पत्तियाँ दिखाई देती हैं ! पूर्णिमा के अगले दिन  जैसे-जैसे सोमयानी चाँद  हर दिन घटता जाता है, सोमलता  की  पत्तियाँ  भी  एक-एक करके गिरनी शुरू हो  जाती हैं ! हर दिन एक पत्ती गिरती है  और उधर  इस तरह १५ दिन में चाँद का कृष्ण पक्ष आ जाता है और सोमलता  बिना पत्तियों  की  हो जाती  है ! लेकिन नए  चाँद  की जैसे ही नई यात्रा शुरू होती है, यानी पुन: चाँद बढ़ना शुरू होता है सोमलता पर  हर रोज एक नई पत्ती आनी शुरू हो जाती है ! चन्द्रमा के घटने और बढने के साथ सोमलता  की  अद्भुत पत्तियाँ सोमरस को अपने में संजोए उगती  और झरती   हैं ! इन  पत्तियों का रस  सोने की सुई  से बड़ी सावधानी से निकाला जाता है !  जिसका प्रयोग 'सोम यज्ञ और रसायनउपचार में किया जाता है ! 'रसायन' एक आयुर्वेदिक इलाज होता है, जो कायाकल्पकरता है ! यानी वार्धक्य और मृत्यु की ओर जाते शरीर के चक्र को पुनरावर्तित  कर देता है ! It   rewinds  the  life cycle . A  person   who   had  lost  energy, vitality & charm  due  to  sickness   or  ageing,   he  regains  it   or  we  may  say  it   rejuvenates   a  person. It  compensates  what  the   human     system    lacks  at  every  stage  of    life.
This‘Kayakalp’  treatment  is  often   misinterpreted   as  Geriatrics  or  old  age   care,   but   it is  a  process   of  rejuvenation – a   technique   for   reversing   age. Reversing   is  not  a  myth,   it  is  a  reality.

चन्द्रमा और सोमलता के इस अद्भुत अन्योन्याश्रित चुम्बकीय सम्बन्ध में हमने एक शाश्वत 'अमर प्रेम' की परिकल्पना की है ! यह परिकल्पना ही हमारी कविता का आधार है !

(इसके अलावा प्रेम का आधार मन होता है और मन का कारक या स्वामी चंद्रमा होता है ! यह बात भी  परोक्ष रूप से इस कविता में समाहित है )





              
'अमर प्रेम'

आसमां    के    तले    भी    आसमां   था  
वितान  सा   रुपहला  इक तना था
तिलस्मे-ज़ीस्त  यूं  पसरा  हुआ था  
चाँद  पूरी  तरह  निखरा  हुआ  था 
प्रणय  के खेल हंस-हंस  खेलता था      
सोमरस  ‘सोमा’  पे   उडेलता  था;
                     
इधर  इक   ‘सोमलता’ धरती पे थी
देख  कर चाँद  को जो खिल उठी थी
प्रिय  के  प्रणय से  सिहरी  हुई सी
सिमटती,  मौनसहमी -  डरी  सी 
लहकती, लरजती,कंपकपी से भरी थी
सराबोर  शिख से नख तक, खडी थी;   

ना कह पाती-''नही प्रिय अब संभलता  
करो  बस,मुझ से अब नही सम्हलता''
समोती   झरता  अमिय  पत्तियों  में
सिमट  जाती मिलन प्रिय-प्रणयों  में .
सिमटती   दूरियां,  धरती व  अम्बर
महकते वक़्त  के, मौसम  के  तेवर;   

मिलन की  बीत घड़ियाँ कब गई, और
दिवस बिछोह  का  आ  बैठा सर पर 
लगा दुःख से पिघलने  चाँद  नभ पर  
परेशानविह्वल,   सोमा   धरा  पर 
'जियूंगी बिन पिया कैसे ?' विकल थी 
पल इक-इक था ज्यूं,युग-युग सा भारी;

थाम  कर सोमा की तनु-काय  न्यारी    
अनुरक्ति
  से  बाँध   बाहुपाश  प्यारी   
चाँद  अभिरततब  अविराम  बोला
हृदय की विकलता का द्वार उसने खोला;

''मैं   लौटूंगा  प्रिय   देखो  तुरत ही
तुम्हारे बिन  ना  रह पाऊँगा मैं  भी ...
के तुम  प्रिय  मेरीप्राण  सखा हो, 
के मेरे हर जनम की आत्म ऊर्जा हो;"

तभी  से चाँद हर दिन-दिन  है  घटता 
लता 'सोमाका  तन पीड़ा  से कटता
ज्यूं  पत्ती  इक इक  कर गिरती जाती 
जान उसकी तिल-तिल निकलती जाती
दिवस  पन्द्रह  नज़र  आता  न  चंदा
तो  तजती  पत्तियाँ  'सोमा' भी पन्द्रह
उजड़,  एकाकी   सी   बेजान   रहती 
दिवस  पन्द्रह   पड़ी  कुंठा ये  सहती;
   
तभी नव-रूप  धर चन्दा  फिर  आता 
खिला अम्बर पे  झिलमिल मुस्कुराता
झलक  पाकर  प्रियतम  की  सलोनी 
हृदय  सोमा  का  भी  तब लहलहाता
रगों  में  लहू   प्राणाधार  बन   कर   
दौड़ता  ऊर्जा   का  संचार  बन  कर
फूट  पड़ती  तभी  कोमल  सी  पत्ती 
लड़ी फ़िर दिन ब दिन पत्तों की बनती

उफ़क  पर  चाँदजब  बे-बाक़ खिलता
चैन  सोमा  को  तब धरती  पे  मिलता
सफ़र पूरा  यूं  होता  पन्द्रह दिनों का 
प्रणय - उन्मत्त  चाँद  गगन में चलता
छटा  सोमा   की  तब  होती निराली
ना  रहती  विरह की  बदरी भी काली;

सिमटते  चाँद  संग   पत्ती  का  झरना
निकलते  चाँद  पर   पत्ती  का  भरना
लखा   किसने   अनूठा   ये   समर्पण
ये  सोमा -चाँद  की  निष्ठा  का  दर्पण
देन  अद्भुत   अजब  मनुहार  की  ये
है  दुःख -हरनी कहानी  प्यार  की  ये !