Friday, October 2, 2009

रचनात्मक लेखन

मेरी कहानियाँ, कविताएँ मात्र लेखन नहीं, वरन् जीवन हैं। वह जीवन और समाज से जुड़ा हैं। कहानियों और कविताओं में जीवन को बुनना कोई सरल कार्य नहीं है। सरल लग सकता है, पर है नहीं। क्योंकि जो चीज़ जैसी लगती है, वैसी होती नहीं। जीवन और समाज से जुड़े अपने अनुभवों को, आँखों देखी घटनाओं को, अपनी प्रतिक्रियाओं, संवेदनाओं, भावनाओं और विचारों के साथ एकरस कर, समाज के प्रति अपने दायित्व को जीते हुए, मानव जीवन को पीड़ा, निराशा, हिंसा और हताशा के चक्रवात से निकाल कर, सकारात्मक दिशा देते हुए, विचारात्मक गहराई और गम्भीरता के ऐसे स्तर पे ले जाना, जहाँ पहुँच कर, कहानी के पात्रों के साथ पाठक भी जीवन के सच्चे अर्थों को फिर से समझ कर, उस स्तर पर पहुँच सके - जहाँ पहुँचने पर जीवन, जीवन नहीं अपितु एक सम्वेदना बन जाता है, एक पवित्र भावना में रुपान्तरित हो जाता है। जहाँ पहुँचकर मन का सारा कलुष धुल जाता है। मात्र रह जाता है एक स्वीकृति का, सकारात्मकता का भाव। जहाँ पहुँचकर जीवन एक संकल्प, एक सद्भावना बन जाता है। ऐसा लेखन ही सच्चे अर्थों में ‘रचनात्मक लेखन’ कहलाता है। यानी के जो रचना करे, सृजन करे। जो ध्वंस - विध्वंस, हिंसा, तहस - नहस, तोड़ - फोड़, मारकाट से व्यक्ति को दूर कर उसे सकारात्मकता की ओर मोड़े। ध्वंस - विध्वंस, हिंसा, तहस - नहस तो मानव हर रोज़, हर पल देख ही रहा है - और दिन - रात यह सब देख कर परोक्ष रूप से अवचेतन में प्रेरित भी हो रहा है। इस रुग्णता का प्रतिकार ज़रूरी है -इस पर विराम ज़रूरी है। अन्यथा लोग विक्षिप्त हो जायेगें, भावनात्मक चोटें, अनवरत पीड़ा और उससे उपजा सघन अवसाद उन्हें ले डूबेगा। वे विचार शून्य हो जायेगें, मनोरोगी हो जायेगें। बल्कि कहिए कि हो ही रहें हैं। जीवन के ऐसे निर्मम और हैवानियत के चक्र से मानव जाति को उबारना ज़रूरी है, वरना मानव जाति विनष्ट हो जायेगी। सो मनुष्य को मनुष्य बने रहने की प्रेरणा देने वाला, सही दिशा, स्वस्थ दृष्टि
देने वाला लेखन ही रचनात्मक लेखन होता है। यथार्थवादी लेखन उदंड, उग्र और स्थूल होने के कारण, दिल और आत्मा की सूक्ष्म परतों में टिक ही नहीं पाता। इसलिए थोड़े समय ही चल पाता है। अन्तत: यथार्थ के हथौड़े से ही चकनाचूर हो जाता है। सूक्ष्म भावनाओं को पकड़ने वाली, मन और आत्मा को अपनी तरल- सरल अद्भुत शक्ति से सिक्त कर देने वाली रचनाएँ कभी चुकती नहीं; भुलाए नहीं भूलती पर, संवेदनाओं पर एक शाश्वत छाप बन जाती हैं। प्रेमचन्द, प्रसाद, महादेवी वर्मा ऐसे ही सरल, सहज, संवेदनशील रचनाकार थे, जिनकी रचनाओं ने सदैव समाज को एक स्वस्थ दिशा दी। इसलिए ही उनकी रचनाएँ, उनका लेखन आज तक जीवित है।

जैसे प्रकृति को बसन्त बनने से पूर्व संपूर्ण धरती को हराभरा करना होता है, रंग - बिरंगे फूलों में खिलना होता है, फूलों में पराग बन कर महकना होता है, मन्द - मन्द बयार बन कर प्रवाहित होना होता है, खेतों में सरसों बन लहलहाना होता है,अमलतास और गुलमोहर के रूप में प्रस्फुटित हो हल्दी - कुंकुम का तिलक बन जाना होता है - तब जाकर ऐसी पुष्पित, पल्लवित,झूमती प्रकृति बसन्त कही जाती है, इतनी कठिन प्रक्रिया से गुजरने के उपरान्त वह बसन्त की उपाधि से शोभायमान होती है।

इसी तरह एक नन्हें से बीज को एक हरा - भरा पेड़ बनने से पूर्व, धरती में गहरे धंसना होता है। पाताल के अंधेरों में अपने अस्तित्व को मिटा देना होता है। तब कहीं जाकर धरती, उसकी मिट्टी उसे स्वीकार कर पोषण देना शुरु करती है। तदनन्तर धैर्य से एक लम्बी प्रतीक्षा के बाद वह एक हरियाले पौधे में पनप कर धरती से बाहर श्वास लेने का सुख पाता है। ज़मीन से बाहर आकर, पुन: उसकी अगली ‘तप यात्रा’ शुरू होती है। अनेक आँधी, तूफ़ानों, सूरज की तेज़ तपिश, तो कभी सूखा, तो कभी मूसलाधार बारिश को झेलते हुए, निरन्तर उर्ध्वगामी होता जाता है, अबाध विकास यात्रा की ओर बढ़ता जाता है। जब - जब उसमें शाखा, प्रशाखाएँ फूटती हैं, उसे एक दर्द से गुज़रना पड़ता है। किन्तु हर पीड़ा के बाद उसमें कुछ न कुछ जुड़ता जाता है - शाखा, प्रशाखाएँ, कोंपलें, कलियाँ, फूल और फिर फल और इस तरह कुछ वर्ष बाद वह एक पूर्ण विकसित, हरा - भरा, भरपूर ऐसा घना छायादार वृक्ष बन जाता है जो अन्य प्राणियों को शीतल छाया और मीठे फल देता नहीं थकता। तो ऐसी सुन्दर यात्रा सृष्टि से जुड़े हम सभी की होती है। हमारा प्रयास उस जीवन यात्रा में अपने जीवन को बेहतर से बेहतर बनाना होना चाहिए। टूटना बड़ा आसान है, गिरना बहुत आसान है, पर गिर कर सम्हल जाने में ही समझदारी है, जीवन की सार्थकता है।

अपने लेखन के माध्यम से मैंने हमेशा ऐसा ही कुछ कहना चाहा है। खोए मूल्यों को खोज कर फिर से स्थापित करने का मेरा एक विनम्र सा प्रयास रहा है।
Love's Ecstasy

An icy wind whipping across
the grey water of the lake
Rain poured solidly
Rainy season was her delight
She loved to sit by the lake side
Tossing pebbles in the water
Probably reliving her past or
reshaping her future .
Cool wind ruffled her hair
made her cold but filled her
heart with a rare warmth !
That was the strange thing
She had never before wanted
life to rush along
She always savoured it
lingering over the lively bits.
She had never minded
the dullest period
nor longed for it to pass.
And here she is longing
for days to be done
months to be over, year to pass
for
her thoughts seem to belong to him
who has been for her a piece of luck
a thing of happiness
a touch of warmth in this cold world
And she thought of him
amidst the very calm & peaceful setting
she thought of him and wished him
all the best there is .
A feeling of wonder & gratefulness
overcame her
as she sat amidst nature
she felt glad that she knew him
and they are friends.
In that tender cool evening
se wished him joys and
oceans of happiness
and felt thankful that
somewhere along the line
She met him and they grew close !



अन्तर्यात्रा
क्या तुमने कभी अन्तर्यात्रा की है ?
नहीं ................ ???
तो अब करना !
अपने अन्दर बसी एक – एक जगह पर जाना;
किसी भी जगह को अनदेखा, अनछुआ मत रहने देना !
तुम्हें अपने अन्दर की........., खूबसूरत जगहें,
खूबसूरत परतें, बड़ी प्यारी लगेगीं सुख – सन्तोष देगीं,
तुम्हें गर्व से भरेगीं,
पर गर्व से फूल कर वहीं अटक मत जाना
अपने अन्दर बसी बदसूरत जगहों की ओर भी बढ़ना.......,
सम्भव है; तुम उन पर रूकना न चाहो,
उन्हें नजर अन्दाज कर आगे खिसकना चाहो,
पर उन्हें न देखना, तुम्हारी कायरता होगी,
तुम्हारे अन्दर की सुन्दरता यदि – तुम्हे गर्व देंगी,
तो तुम्हारी कुरूपता तुम्हें शर्म देगी ! तुम्हारा दर्प चकनाचूर करेगी,
पर.., निराश न होना,
क्योंकि – अन्दर छुपी कुरूपता का,
कमियों का, खामियों का......,
एक सकारात्मक पक्ष होता है –
वे कमियाँ, खामियाँ हमें दर्प और दम्भ से दूर रखती हैं;
हमारे पाँव जमीन पर टिकाए रखती है,
हमें इंसान बनाए रखती है !
‘महाइंसान’ का मुलअम्मा चढ़ाकर, चोटी पे ले जाकर
नीचे नहीं गिरने देती,
जबकि अन्दर की खूबसूरत परतों का, गुणों का, खूबियों का
एक नकारात्मक पक्ष होता हैं –
वे हमे अनियन्त्रण की सीमा तक कई बार
दम्भी और घमंडी बना देती हैं,
अहंकार के नर्क में धकेल देती हैं........,
आपे से बाहर कर देती हैं......!
सो, अपनी अन्तर्यात्रा अधूरी मत करना !
अन्दर की सभी परतों को,
सभी जगहों को खोजना; देखना और परखना-
तभी तुम्हारी अन्तर्यात्रा पूरी होगी !
ऐसी अन्तर्यात्रा किसी तीर्थयात्रा से कम नहीं होती,
वह अन्दर जमा अहंकार और ईर्ष्या, लोभ,
मोह, झूठ और बेइमानी का कचरा छाँट देती हैं !
हमारे दृष्टिकोण को स्वस्थ और विचारों को स्वच्छ बना देती है;
हमारी तीक्ष्णता को मृदुता दे,
हम में इंसान के जीवित रहने की सम्भावनाएँ बढ़ा देती है....!
काशी और काबा से अच्छी और सच्ची है यह यात्रा....!
जो हमें अपनी गहराईयों में उतरने का मौका देती है !
घर बैठे अच्छे और बुरे का विवेक देती है !!

"नदी "

हाल ही में मैंने शमोएल अहमद का उपन्यास नदी पढ़ा जिसने मुझे बहुत अधिक प्रभावित किया। इस उपन्यास में लेखक की सबसे बड़ी ख़ूबी यह है कि उन्होंने नारी मन की विविध परतों को जिस कुशलता से खोला है और उनमें समाए कोमलतम भावों को जिस बरीकी से अंकित किया है, वह नारी मन के भावों और नारी मनोविज्ञान पे उनकी गहरी पकड़ का परिचायक है। उन्होंने उपन्यास नायिका के दिलो – दिमाग़ में अलग –अलग परिस्थितियों में उभरते प्यार, घृणा, सुख, दुख, उत्साह, निराशा, कौतुक, आश्चर्य, विषाद, अवसाद और अकेलेपन को बड़ी ही सहजता और स्वभाविक ढंग से चित्रित किया। नारी मन को जिस बेबाकी से उन्होंने उकेरा है वह नि:सन्देह अतिसराहनीय है। सबसे बड़ी बात यह कि शमोएल अहमद ने समूचे उपन्यास में कहीं भी नायिका को पति के साथ ग़लत समझौते के लिए विवश नहीं किया है। जहाँ नायक रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में नियमों से हठधर्मिता की हद तक बँधा एक भावनाशून्य इंसान है, वहीं दूसरी ओर नायिका जीवन को सहजता से, किसी भी तरह की शर्त और नियमों के बंधन से मुक्त होकर जीने वाली भावुक और संवेदनशील नारी है। वह सृष्टि के कण-तृण से जुड़ाव महसूस करती है। प्रकृति के सौन्दर्य पे मुग्ध होकर, उससे एकात्म हो उठती है। सुहानी भोर, रुपहली चाँदनी,तारों भरी रुमानी रात उसे जब-तब लुभाती है। सृष्टि के उन अलौकिक क्षणों को वह भरपूर जीना चाहती है, मानो सांसों में उतार लेना चाहती है और ऐसे ख़ूबसूरत रूमानी पलों के एहसास को वह नायक के साथ जीकर अपने दिल में संजो लेने को आतुर रहती है, लेकिन संवेदनहीन नायक ऐसे पलों के अनूठेपन को महसूस न कर, हमेशा नायिका के साथ रूखेपन और कठोरता से पेश आता है। एक बार, दो बार, और बार–बार उसकी यह शुष्कता शनै: - शनै : कुरूपता में बदलती जाती है। नायिका नियमों, बन्धनों से परे होकर भी बेतरतीब और उलझी हुई नहीं है। सुलझी सोच से भरी है। पति द्वारा छोटी – छोटी बात पे उपेक्षित और अपमानित ज़रूर महसूस करती है, फिर भी पति के रंग में रंगना चाहती है, समझौता करने को तैयार रहती है, पर पति की तर्कहीन हठधर्मिता के कारण उसकी इस रिश्ते के प्रति बची खुची स्निग्धता भी जैसे सूखने लगती है। वह उमड़ती नदी की मानिन्द जीवन्त है, अठखेलियों से भरी है, प्रेम की तरंगों और लहरों से भरी है और अपने प्यार भरे प्रवाह की अंतिम मंज़िल समन्दर के साथ एक हो जाना मानती है। हांलाकि नायक का पौरुष से भरपूर व्यक्तित्व उसे रिझाता है और यह पौरुष ही उसके नज़दीक आने का कारण भी बनता है। लेकिन मन के स्तर पर लगातार नायक की यही परुषता दोंनो के बीच अलगाव का कारण बनती है। वह जीवनसाथी बनकर, हर पल, हर क्षण कठोरता से ही पेश आता है – यहाँ तक कि प्यार के भावनात्मक, नाज़ुक पलों में भी वह निहायत रूखा और यान्त्रिक बना रहता है। उसके व्यक्तित्व मे कभी भी कोमलता, भावनात्मक गरमाहट उभरकर ही नहीं आती। हर समय वह हठधर्मी की तरह अपने नियम और हठ पे अड़ा रहता है। जीवन की सुकोमल परतों से अछूता, निहायत ही पथरीला सा व्यक्ति है वह। न व्यक्तित्व में, न सोच में, न दिनचर्या में, कहीं भी लचीलापन नहीं.....पत्नी का दिल रखने के लिए भी वह न बातें करता है, न कॉफ़ी पीने में साथ देता है। जीवन की ख़ूबसूरतियों से महरूम, एक सपाट सा इंसान है जिसकी दिनचर्या नियमों से शुरू होती है और नियमों पे ख़त्म। उसमें किसी की – यहाँ तक कि अपनी नई नवेली दुल्हन की दख़लअंदाज़ी भी उसे पसन्द नहीं। उसके एकरस नियम - प्यार, अपनेपन, जीवन के ख़ूबसूरत लम्हों के ऊपर हैं। ऐसा जकड़ा सा, बंधा - बंधा इंसान न ख़ुद जीता है और न दूसरे को जीने देता है। उसके जीवन मे सपाट ज़न्दगी से उपजी जो कठोरता और रूखापन है, वह पूरी तरह उसके व्यक्तित्व में छाया हुआ है। वह तमतमाए सूरज की भाँति सदा पत्नी को झुलसाता रहता है, कभी भी गुनगुनी धूप बनकर, उसे सुखद एहसास से नहीं भरता। समर्पण के मखमली क्षणों में उसका यंत्रवत व्यवहार पत्नी को इस कदर कचोटता है कि वह उसे एक ‘’उत्पीड़क’’ नज़र आता है। जैसे वह खाना खाने के बाद, जी भर कर कई गिलास पानी पीता है, वैसे ही वह कामक्षुधा तृप्त करके, करवट लेकर जी भर के सोता है – उसकी बला से पास लेटी पत्नी, कुछ पलों के लिए उसके प्यार भरे स्पर्श को तरसे या उसकी बाहों के घेरे में सुकून से सोना चाहे। नायक स्वार्थी होने की हद तक भावनाहीन, सिर्फ़ अपने लिए जीने वाला प्राणी है, जबकि नायिका ठीक इसके विपरीत जीवन को पल-पल जीना चाहती है. सृष्टि की हर छोटी से छोटी चीज़ उसे खींचती है, लुभाती है – फूल, लताएँ, चाँद, तारे, नदी, नदी के पाट, शफ़्फ़ाक चाँदनी से भरपूर रेशमी रात – वह सबमें दिव्य सौन्दर्य, संगीत, प्यार की तरंगे- न जाने क्या – क्या ढूँढती है, अनुभव करती है, पति को इन ख़ूबसूरतियों की ओर खींचना चाहती है। पर पति की ओर से नरमाहट, किसी भी तरह की गरमाहट की कोई भी किरण न पाकर वह टूट –टूट जाती है। फिर भी नारी मन की सहज प्रवृत्ति उसे बार –बार पति से तालमेल बैठाने के लिए प्रेरित करती है कि कुछ वह झुके और कुछ पति झुके तो बीच का एक रास्ता ऐसा निकल आए कि दोंनो उस पर सम्भाव से जीवन भर साथ साथ चल सके। लेकिन पति तो रोबोट की तरह अपने में फ़ीड किए प्रोग्रामों से इस क़दर जुड़ा है कि उसके पास समझौते की कोई गुंजाइश ही नहीं, तो आहत नायिका का पिता के घर लौटना जैसे उसकी नियति बन जाता है। वह पत्नी है तो क्या हुआ, उसका अपना एक व्यक्तित्व है, अपनी एक पहचान है, उस पर वह, मननशील और चिन्तनशील स्वभाव की है, उसकी भी पसन्द –नापसन्द है। इतना होने पर भी जीवन साथी की ख़ातिर कई बिन्दुओं पर समर्पित होने को तैयार रहती है। पर पति को तो कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता, वह उसके साथ रहे या न रहे,उसे क्या अच्छा लगता है, क्या बुरा लगता है, वह कब ख़ुश होती है, चहकती है, कब फफक पड़ती है ?? यह मानसिक उत्पीड़न, पति का भावनात्मक ठन्डापन उसकी भावनाओं को कुचल देता है. पति द्वारा पहले वह बैडरूम से दूसरे बैडरूम में विदा कर दी जाती है, फिर उस घर से पिता के घर विदा हो जाती है जो अन्तत: पति के जीवन से उसकी विदाई का संकेत है।
कोई भी जीवन साथी – चाहे वह पुरुष हो या नारी अपने भावनात्मक रूखेपन, ठन्डेपन, स्वार्थीपन और हठधर्मिता से अंजाने किस तरह जीवनसाथी को अपने से दूर कर देता है, इस पर शमोएल अहमद ने बड़े ही मनोवैज्ञानिक ढंग से क़लम चलाई है। बीच – बीच में प्राकृतिक चित्रण खूबसूरत बन पड़े हैं। नारी जीवन को उन्होंने बड़े क़रीब से जाना और परखा है। भाषा सहज, सरल, पारदर्शी, निखरी –निखरी,भावप्रवण और प्रवाहपूर्ण है। पाठक को अंत तक बाँधे रखने की क्षमता से भरपूर है। हर भाव, हर विचार सीधे दिलो दिमाग़ में उतरता चला जाता है।
इतने ख़ूबसूरत उपन्यास के लिए शमोएल अहमद की जितनी भी सराहना की जाए कम है। आशा है कि भविष्य में इसी तरह और भी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ने को मिलती रहेगीं तथा वे अपनी क़लम से साहित्य को सम्पन्न बनाते रहेगें।