शब्द के अर्थ, रूप आदि को लेकर जब कोई चर्चा होती है
तो अपनी बात कहने के बाद, यदि विपक्षी स्वीकार न करे, तो, उस
स्थिति में, दूसरा कदम है - उसे प्रमाण सहित समझाने का प्रयास
करना ! इस व्यवस्थित प्रक्रिया के तहत अब मैं कविता जी को बताना
चाहूंगी -
१) अनेक शब्दकोश ऐसे हैं
जिसमें एक शब्द के दो स्वीकृत रूपों का उल्लेख नहीं होता - जगह व पृष्ठ संख्या को नियंत्रित रखने के लिए !
अतएव
ऐसे शब्दकोश और उनके बनाने वाले कम ही मिलेगें जो एक शब्द के
दोनों रूपों का बाकायदा उल्लेख करें तथा उनके अधिकतम और
सूक्ष्म से सूक्ष्म अर्थ भी
दें ! इसका तात्पर्य यह नहीं कि जिनमे दोनों रूप नहीं, वे
शब्दकोश प्रामाणिक नहीं हैं !
२)
मेरे पास श्री कालिका प्रसाद, राजवल्लभ और मुकुंदीलाल
श्रीवास्तव द्वारा तैयार किया गया, ज्ञानमंडल, वाराणसी का 'वृहत्
हिन्दी शब्दकोश ' है, जिसे मैंने अपने गुरु के परामर्श से बड़ी सोच
समझ के बाद ख़रीदा था तथा जिसमें संस्कृत-हिदी के तत्सम, तद्भव,
इनके अलावा देशज, प्रांतीय, स्थानीय बोलियों आदि के अधिकतम शब्द
विस्तार एवं बारीकी के साथ दिए गए हैं !
सुधीजनों की मांग पर इसके चार संस्करण निकल चुके हैं ! बहुत ही
मान्य और हर तरह से प्रामाणिक शब्दकोश है ! प्रामाणिक यूं तो
सभी कोश हैं लेकिन इसमें विस्तार बहुत है !
३)
अधिक न कह
कर कम शब्दों में अपनी बात कहना चाहूँगी - फिर भी विस्तार तो थोड़ा
बहुत होगा क्योंकि कारण सहित शब्द की बारीकी में जाना है ! आप
इस कोश के पृष्ठ २६९ पर पहले 'कोटि' शब्द देखे ! इसके अनेक
अर्थ आपको मिलेगें जिनमे एक अर्थ है - करोड ! इसके बाद अगले पृष्ठ
२७० पर देखें , जिस पर ईकार के साथ - कोटी शब्द
है !
पृष्ठ २६९ पर देखें :
कोटि
- स्त्री० ( सं०) धनुष की नोक, सिरा, किसी चीज़ का सिरा, किसी हथियार की
नोक, दर्ज़ा, वर्ग, वाद का पूर्व पक्ष, परमोत्कर्ष, आखिरी दर्ज़ा,
करोड की संख्या, अर्द्ध
चन्द्र का सिरा, राशि चक्र का तीसरा अंश, ९० अंश के चाप के दो समान भागों में से एक !
पृष्ठ २७० पर देखें :
कोटी
- स्त्री० ( सं०) दे ० कोटि ! ( दे० =
देखे 'कोटि' शब्द) - इस निर्देश का सीधा तात्पर्य है कि
जितने अर्थ 'कोटि' रूप के अंतर्गत लिखे गए हैं , वे ही सब
'कोटी' के भी अर्थ हैं ! कोटि और कोटी - दोनों के समान अर्थ
है ! दोनों शुद्ध हैं ! दोनों प्रामाणिक हैं ! दोनों ही संस्कृत
निसृत हैं !
इसी तरह दो रूपों वाले आपको और भी शब्द मिलेगें जैसे :
कोश
कोष
दोनों के समान अर्थ है ! दोनों शुद्ध हैं ! दोनों प्रामाणिक हैं ! दोनों ही संस्कृत निसृत हैं !
४)
लोग एक रूप का ही प्रयोग होने के करण दूसरे रूप को या तो भूल
जाते है या
अशुद्ध मान लते
हैं ! यहाँ तक कि न जाने कितने हिन्दी के जानकार, एक ही
शब्द के दो शुद्ध और प्रामाणिक रूपों के से अनभिज्ञ होते
हैं क्योंकि जब एक शब्द से काम चलता है तो उसके दूसरे रूप को वे
प्राय: भूल जाते हैं , जो स्वाभाविक भी है ! न उसके बारे में जानने की
उत्सुकता शेष रहती हैं ! वह 'भूला हुआ शब्द'
तब सामने आता है , जब उसका कोई
प्रयोग कर बैठे जैसे की हाल ही में, विश्व हिन्दी सचिवालय,
मारीशस ने किया ! तब उस शब्द को विस्मृत कर देने वालों को वह शब्द अशुद्ध ही नहीं अपितु अस्तित्वहीन भी लगता है ! जबकि उसका अस्तित्व भी होता है और अर्थ भी !
५) अगर कुछ लोगों को किसी शब्द के बारे में विस्मृति हो गई हैं और वे किसी दूसरे से
उस शब्द की प्रामाणिकता, रूप, अर्थ के बारे में सुनते हैं तो कविता
जी, अनेक ज्ञानीजन ऐसे धीर, गंभीर भी हैं जो शांति से उसे
सुनेगें और प्रमाण सहित उस शब्द के
अस्तित्व व अर्थ का उल्लेख करने पर, उसे स्वीकारेगें भी !
आपकी तरह हठधर्मिता नहीं दिखाएगें !
६)
मैं अपनी तरफ से ' कोटी' शब्द गढ नहीं रही ! यह बाकायदा
प्रामाणिक वृहत् शब्दकोश का हिस्सा है ! संस्कृत - हिन्दी के
वैयाकरणों द्वारा 'सिद्ध' शब्द है,
जिसे उन प्रचीन समर्पित भाषाविदों ने अपने शब्दकोश का हिस्सा
बनाया
जो एक शब्द के यदि दो रूप हैं - तो दोनों को उद्धृत करने
में विश्वास करते थे ! बदलते समय के साथ यह चलन हो गया है कि अब एक
शब्द के दो रूपों को देने का कोई कष्ट नहीं करता और न
वाजिब समझता है (पसंद अपनी-अपनी, ख्याल अपना-अपना) ! भाषाविद - आज
के भी और पहले के भी - सभी एक से बढकर
एक हैं - सिर्फ चलन और प्रवृत्ति का अंतर हो गया है ! इससे और
कुछ नहीं , सिर्फ
भ्रान्तियाँ उपजती है तथा भ्रान्तियाँ चर्चा को जन्म देती
हैं !
ये
तो चलिए एक ही शब्द के दो शुद्ध और प्रामाणिक रूपों की बात हैं !
आने वाले समय में जब एक कहेगा कि 'उपर्युक्त' शब्द सही है और
दूसरा कहेगा
की नहीं - 'उपरोक्त' सही हैं ! तब क्या होगा ? क्योकि इनमे एक
शब्द ही शुद्ध है और दूसरा रूप वाकई अशुद्ध है !
उपर्युक्त = उपरि + उक्त ( यण संधि से 'रि' की 'इ ' को 'य' आदेश हुआ और इ के उ में
मिलने पर शेष बचा आधा र् , 'य 'पर लग
गया )
यहाँ
दोनों शब्द तत्सम है ! याद रहे कि संधि दो तत्सम या दो तद्भव
शब्दों में ही होती है ! ये नहीं कि एक तद्भव और एक तत्सम
'उपरोक्त' यदि इस शब्द का विच्छेद करें तो -
उपरोक्त' = उपर + उक्त
अब आप सोचे कि 'ऊपर ' शब्द तो हिन्दी में होता है लेकिन 'उपर' शब्द होता है क्या ?? (या फिर संस्कृत का शुद्ध ' उपरि' है ) तो फिर 'उपर' (एक अशुद्ध शब्द जो न संस्कृत में है और न हिन्दी में ) उसे 'उक्त' ( संस्कृत के तत्सम शब्द ) से बिना किसी नियम के जोड़ कर 'उपरोक्त ' शब्द बना दिया गया और हिन्दी पर थोप दिया गया केवल कुछ लोगों की सुविधा के कारण !
राजभाषा विभाग ने सरकारी महकमों में लिपिकों के हिन्दी के कम ज्ञान की वजह से - उनके द्वारा अशुद्ध रूप उपरोक्त, उपरोक्त, उपरोक्त बार-बार लिखे जाने पर, उनकी सुविधा के चलते, इसे स्वीकृती दे दी !
भाषा संबंधी इस तरह की बहुत भ्रान्तियाँ हैं कविता जी जिनके चलते आप और हम जैसे शुद्ध भाषा के समर्थक बहस में पड़ जाते हैं सिर्फ इसलिए कि दो चर्चाकारों में से एक ने दो समान रूपों और समानार्थी शब्दों की बारीकियाँ दिलो-दिमाग में संजो कर रखी हैं और दूसरे ने नहीं !
हम सभी परस्पर यदि एक दूसरे से किसी शब्द को स्वस्थ और सही तर्क के तहत सीख लेते हैं तो इसमें हानि ही क्या है ? भाषा की गरिमा ही बढती है और हमारी जानकारी बढती है !
सादर,
दीप्ति