इंसान आज तरक़्क़ी कर, बुलन्दियों पे जा पहुँचा है
आकाश में उड़ कर, चाँद पे जा पहुँचा है
ऊँची तालीम हासिल कर, ऊँचे ओहदे पे जा बैठा है !
पर क्या उसकी तालीम ने इंसानियत का भी पाठ पढ़ाया है ?
उसने दो और दो चार करना तो जाना,
पर क्या उसने एक और एक का ग्यारह होना भी जाना है ?
उसने संख्या जोड़ना तो सीखा
पर क्या उसने घर जोड़ना भी सीखा है ?
उसने अक्षर-अक्षर जोड़कर शब्द बनाना तो सीखा
पर क्या उसने भाई को भाई से जोड़कर परिवार बनाना भी सीखा है ?
वह आकाश की ऊँचाऊयों को छू आया
पर क्या वह सँस्कारों की ऊँचाईयों को भी छू पाया है ?
उसने समन्दर की गहराई को तो मापा
पर क्या उसने मां के प्यार की गहराई को भी नापा है ?
वह नफ़रत की आग बनकर भड़का
पर क्या वह कभी प्यार की बरसात बनकर भी बरसा है ?
उसने ईंट से ईंट जोड़कर मज़बूत इमारत की नींव डाली
पर क्या उसने कभी इंसान को इंसान से जोड़कर मजबूत समाज की भी नींव डाली है ?
उसने हाथ उठाना तो सीखा,
पर क्या उसने प्यार से हाथ मिलाना भी सीखा है ?
वह धन बटोरने की तलाश में रहा
पर क्या उसने कभी दूसरों का दुख दर्द भी तलाशा है ?
उसने अपनों के साथ सियासत करना सीखा
पर क्या उसने अपनों के साथ रियायत करना भी सीखा है ?
उसने अपनी हवेली में उजाले भरे
पर क्या उसने कभी ग़रीबों की बस्ती के अंधेरे भी दूर किए है ?
उसने रुतबे के सामने सिर झुकाया
पर क्या उसने बुज़ुर्गों के सम्मान में सिर झुकाया है ?
उसने मुंह फेर कर जाना सीखा
पर क्या उसने पलट कर गले लग जाना भी सीखा है ?
उसने धरती का चप्पा-चप्पा भरपूर निचोड़ा
पर क्या उसने उसके पनपने के लिए भी कहीं कुछ छोड़ा है ?
उसने गीता, क़ुरान, बाइबिल पढ़ना सीखा
पर क्या उसने कभी राम, रहीम और रोमी के दिलों को भी पढ़ा है ?
इंसान आज तरक़्क़ी कर, बुलन्दियों पे जा पहुँचा है
पर क्या उसकी तालीम ने इंसानियत का भी पाठ पढ़ाया है ?