Thursday, October 6, 2011


WALLS SPEAK

Walls tell a story of their own

They absorb the vibrations & rays

of the people living within them

They soak deep the emotions

the sentiments, expressed

in their presence.

Day to day happenings

good or bad incidents

get etched on them !

They become one with the people

who live with them .

They become people's part

and people become their part .

Walls reflect smiles & laughter

tears and disaster .

They project sanity & insanity

They reflect much - much more

only our heart can understand

their language.

With each passing day, they

become old , hackneyed and

mysterious !

Their grave silence allures the

onlooker, they grip their heart

and soul and whisper coolly

all that - they went through.

So, no doubt, walls are great

They have imprints of bygone

days, tales of generations,

griefs and despair of the aged

enjoyment and festivity of

youngesters.

Walls, long live walls !

Even, when they get old

and porous and they start

falling down, still they continue

to stand, how they manage to

stand and stay for ages…!!

Recognized

(Reviewed & Awarded by Fanstory.com)


मौत

बोलो कहाँ नहीं हो तुम ?

बोलो कहाँ नहीं हो तुम ?

सोई मौत को जगाया मैने कह कर यह -

बोलो कहाँ नहीं हो तुम !

बोलो कहाँ नहीं हो तुम !

अचकचा कर उठ बैठी वह,

देखा मुझे चकित होकर कुछ,

बोली - मैं तो सबको अच्छी लगती हूँ - सुप्त-लुप्त

मुझे जगा रही क्यों तुम ?

मैं बोली - जीवन अच्छा,

बहुत अच्छा लगता है

पर, बुरी नहीं लगती हो तुम

बुरी नहीं लगती हो तुम !

ख्यालों में निरन्तर बनी रहती हो तुम

जैसे साँसों में जीवन,

जीवन का ऐसा हिस्सा हो तुम,

जिसे अनदेखा कर सकते, नहीं हम,

ऐसी एक सच्चाई तुम

नकार जिसे सकते नहीं हम,

जीवन के साथ हर पल, हर क्षण,

हर ज़र्रे ज़र्रे में तुम,

बोलो कहाँ नहीं हो तुम ?

बोलो कहाँ नहीं हो तुम ?

जल में हो तुम, थल में हो तुम,

व्योम में पसरी, आग में हो तुम,

सनसन तेज़ हवा में हो तुम,

सूनामी लहरों में हो तुम,

दहलाते भूकम्प में हो तुम,

बन प्रलय उतरती धरती पर जब,

तहस नहस कर देती सब तुम,

अट्ठाहस करती जीवन पर,

भय से भर देती हो तुम

उदयाचल से सूरज को,

अस्ताचल ले जाती तुम,

खिले फूल की पाँखों में,

मुरझाहट बन जाती तुम,

जीवन में कब - कैसे,

चुपके से, छुप जाती तुम

जब-तब झाँक इधर-उधर से,

अपनी झलक दिखाती तुम,

कभी खुशनुमा जश्न को

श्मशान बना जाती तुम,

दबे पाँव जीवन के साथ,

सटके चलती जाती तुम,

कभी पालने पर निर्दय हो,

उतर चली आती हो तुम

तो मिनटों में यौवन को

कभी लील जाती हो तुम,

बोलो कहाँ नहीं हो तुम ?

बोलो कहाँ नहीं हो तुम ?

Tuesday, October 4, 2011

‘एक औरत - तीन बटा चार’ : एक अवलोकन


औरत की ज़िंदगी का दुखद सच दर्ज करती कहानी एक औरत-तीन बटा चारमेरी नज़र में....

औरत की पीड़ा और वेदना पर केंद्रित आज तक बहुत कहानियाँ मैंने पढीं, लेकिन यह एक ऎसी कहानी थी, जिसे पढ़ कर मेरे आँसू जो बहने शुरू हुए तो बहते ही रहे और अंत तक चेहरा आँसुओं से तर रहा.

हाल ही में जून माह में बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित हिन्दी की शीर्षस्थ लेखिका सुधा अरोड़ाका कहानी संग्रह एक औरत - तीन बटा चारपढ़ा. यूं तो इस संग्रह की सभी कहानियाँ जीवन के महत्वपूर्ण आयामों से जुडी हैं लेकिन जिस कहानी ने मुझे भीतर तक झकझोर दिया वह है : एक औरत - तीन बटा चार.

इस कहानी ने जिस पुरजोर ढंग से मुझे अपनी गिरफ्त में लिया, उससे बाहर निकलने में मुझे पूरे पच्चीस दिन लगे. मेरी दृष्टि में यह इस संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कहानी है. इस कहानी का शीर्षक ही नहीं अपितु शुरुआ़त भी बड़ी चुम्बकीय और जिज्ञासा जगाने वाली है -

‘ तीस बरस पुराना एक घर था. वहाँ पचास बरस पुरानी एक औरत थी. उसके चेहरे पर घर जितनी ही पुरानी लकीरें थीं.’’

इस कहानी में नायिका कहीं भी रोती बिसूरती नहीं लेकिन उसका दर्द , सिर से पाँव तक कतारबध्द हुआ, उसके समूचे व्यक्तित्व से कतरा-कतरा रिसता है. उस एकाकी औरत का दर्द मेरे दिल में ऐसा घनीभूत हुआ कि मैं उससे न सिर्फ अभिभूत हुई बल्कि बड़े कष्ट में रही. ऐसे दर्द से सामना होने पर, उससे पहचान होने की वजह से , हम अनजाने ही उसे अपने में सोखते चले जाते हैं. यह शायद तादात्म्य होने की प्रक्रिया थी. ऐसा तभी घटता है जब हमारे अंदर सूक्ष्म अनुभूति को ग्रहण करने वाली पारदर्शिता और संवेदनशीलता हो. वह मेरे अंदर शायद कहीं खामोश पडी थी, जो इस कहानी को पढते ही सक्रिय हो उठी और लेखिका द्वारा सर्जित नायिका की एक-एक चिटकन, भटकन, बोझिल धडकन के साथ एकात्म होती गई. कहानी में नायिका को पढते हुए, ब्रिटिश लेखिका Jill Briscoe की यह उक्ति The storms in my life have become workshops ’ मुझसे बार बार-बार टकराने लगी ! हर एक की ज़िंदगी के झंझावात उसे कुछ न कुछ सीख देते हैं. इस कहानी की नायिका तूफ़ान के बदले तूफ़ान उठाने के बजाय खामोश रहना सीख लेती है - घर को घर बनाए रखने की खातिर, लेकिन उसकी इस कुर्बानी के बावजूद भी, उसका घर सच्चे अर्थों में घर बना रहता है क्या ? जब घर को सहेज कर रखने वाली के दिल में न सुकून हो, न प्रफ्फुलता, उलटे भावनात्मक रुग्णता के चलते वह गहन खामोशी का शिकार बन गई हो, तो ऎसी कुर्बानी का क्या लाभ ? उस घर में सब साजो सामान के होते हुए भी एक खालीपन अखरता है. सन्नाटे के साए तले वह घर, खुद-ब-खुद ऊंची-ऊंची दीवारों वाला एक मकां बन के रह जाता है.

यह महज़ एक इत्तेफाक है कि नायिका का कहानी में कोई नाम नहीं है. मेरे अनुसार, यह इत्तेफाक यानी उसका कोई नाम न होना, कहानी के शीर्षक से पूरी तरह तालमेल में जाता है, क्योकि जो औरतें पूरी तरह घरेलू है, सिर्फ पति से ही नहीं, घर की चारदीवारी से भी उनका विवाह हुआ होता है - उनके नाम होकर भी नहींके बराबर होते हैं , वे इस्तेमाल ही कहाँ होते है ? खासतौर से एक घरेलू नारी की पहचान उसके नाम से उतनी नहीं होती जितनी कि उस पर लदे रिश्तों से होती है...किसी की बेटी , किसी की पत्नी, किसी की माँ. इन रिश्तों के खोल में वह ऎसी समाती है कि अपनी पहचान, अपना नाम सब भूल जाती है. दूसरे भी उसे , उसके नाम से न पहचान कर पिता या पति के नाम से ही पहचानते हैं. इसलिए नायिका का नाम हो या ना हो फर्क ही क्या पडता है. अनाम नायिकाकी कहानी होते हुए भी यह हर नाम की कहानी है. वह अनामपात्र कहानी में पूरी तरह छाई हुई है. इस कहानी में नायिका अपने बेतरतीब, बिखरे व्यक्तित्व के कारण पाठक मन को बेइंतहा अजीबोगरीब ढंग से अपने से बांधे रखती है. अपनी इस खूबी के कारण वह प्राणविहीन औरत कहानी का प्राण है, बिखरी होने पर भी केंद्रबिंदु है. अजीब सा विरोधाभास है लेकिन है बड़ा ख़ूबसूरत और चित्ताकर्षक ! कहानी की शुरुआत में दूसरे पैरा की ये पंक्तियाँ – ‘‘घर के साहब और बच्चों की उपस्थिति में भी उनका जहाँ-तहाँ फैला सामान उनकी बाकायदा उपस्थिति की कहानी कहता था.’’ हांलाकि ये पंक्तियाँ घर में सिर्फ बच्चों और पति के फैलाव की बात करती हैं , लेकिन इसके साथ-साथ एक शब्द मेरे ज़ेहन में उभरा कि उस फैलाव से घर में अकेले होने पर अधिक उलझती, उस फैलाव को अधिक बेडौलपन से महसूस करती - उस औरत का बिखराव घर में हावी था. आगे -

उस घर को घर बनाती हुई, यहाँ से वहाँ घूमती वह एक खूबसूरत औरत थी’’ -

कहानी की इस पंक्ति में प्रच्छन्न रूप से चलता, एक और भाव है कि वह औरत उस फैलाव के नीचे पसरे अपने स्थायी बिखरेपन को, मानो अधिक समेटना चाहती थी. उस मकां को अकेले अपनी जान लगा कर घरबनाती हुई, इस कमरे से उस कमरे में भटकती हुई, एक ऎसी औरत थी जिसकी खूबसूरती, वीरानी से एकरस हो, उदासी बन सदा के लिए सरापा उसके व्यक्तित्व पर छप गई थी.

दिल तो अकेला होता अक्सर सुना है, किन्तु जब सबके होते हुए भी जीवन अकेला हो, तो उसकी वेदना की कोई सीमा नहीं होती. वह पीड़ा आकाश की तरह बिना ओर-छोर की होती है. आखिरी उंगली पर डस्टर लपेटे - हर कोने की धूल साफ़ करती हुई, हर चीज़ को करीने से रखती हुई ’ - उस एकाकी नारी की त्रासदी ही यही है कि घर की चीजों की धूल और साहब और बच्चों के कमरे का कचरा साफ़ करते-करते, वह उसे मानो अपने में समेटती जाती है.

‘ हर चीज़ को करीने से रखने वाली वह औरत,' अपने अंदर कुछ भी करीने से नहीं सहेज पाती. अपने लिए उसे फुर्सत ही नहीं है. ‘फिर रात को सबके चेहरे की तृप्त मुस्कान को अपने चेहरे पर लिहाफ की तरह ओढ़ कर सोती हुई ’ वह निरीह सबकी मुस्कान को अपने चेहरे पर पहन कर, उसके तले अपनी पीड़ा और मन के सन्नाटे के गुबार को छिपाती हुई, सच में, कितना सो पाती है यह तो वह ही जानती होगी. कहानी में आगे की पंक्तियाँ हांलाकि घर की चीजों की, लजीज़ खाने की, ख़ूबसूरत बर्तनों की बात करती हैं, किन्तु इन सबसे जुडी घर की सबसेमहत्वपूर्ण चीज़,' किन्तु घर के लोगों के लिए नितांत महत्वहीनउस औरत के मन के भाव, उसके खामोशी से काम करते रहने के बावजूद भी, मेरे मन में इस तरह गुंजायमान होते रहे कि मैं कहानी से हट कर उस औरत के अंदर की कहानी, उसके मन के एकाकी दुःख को, भावनात्मक उजाडपन को पढती रही. दर्द पीकर, खामोशी से, एक के बाद एक काम करती जाती, वो औरत एक भी आँसू नहीं टपकाती, लेकिन मैं उसकी खामोशी, असहज एकाकीपन से असहज हो नम आँखों से कहानी पढती जाती थी - मानो मैं उससे रू-बरू थी और सामने बैठी उसे चलते-फिरते देख रही थी, उसके हर हाव-भाव से उजागर होती पीड़ा को महसूस रही थी. ‘‘इस दिनचर्या से समय निकालकर वह औरत बाहर भी जाती - बच्चों की किताबें लेने, साहब की पसंद की सब्जियां लेने, घर को घरबनाये रखने का सामान लेने !’’ यूं कोई पढ़े तो ये सामान्य पंक्तियाँ नज़र आएगीं लेकिन एक ओर मुझे इन शब्दों की पोर-पोर में बसी अकुलता ने विचलित किया तो दूसरी ओर ढेर वीरानियों के साथ जीती उस औरत के साहस ने भी प्रभावित किया कि पथरीले दर्द से टूटने और घर के किसी अकेले कोने में दुबक कर रोने के बजाय, वह घर को घरबनाने में लगी रहती है. मानो किसी अदृश्य अनुशासन के तहत, वह अपने हिस्से का दर्द, अपने हिस्से की पीड़ा, खुशी से खाती-पीती है और इसी से यंत्र चालित सी, कामों को करती जाती है ! उसने अपने को समझदारी और खूबसूरती से दो हिस्सों में बाँट लिया है. जब भी वह घर से बाहर जाती है, तो एक चौथाई हिस्सा घर में छोड़ जाती है, जो उसके लिए सेफ्टी एलार्मका काम करता है. वह बाहर जाकर चाहे घर का सामान खरीद रही हो या सहेलियों के साथ चाय नाश्ता करती बैठी हो, घर में छोड़े गए, एक चौथाई हिस्से की आवाज़ सुन कर झटपट उठ खडी होती है. जैसे ही वह घर में कदम रखती है, वह एक चौथाई हिस्सा उसके तीन चौथाई से गले मिल, एक हो जाता है और उसे सुख-चैन से भर देता है. आजीवन यही सिलसिला कर्तव्यपरायण, भावुक और संवेदनशील औरतों के साथ चलता रहता है. घर लौट कर वह एकाकी औरत, स्कूल से आए बच्चों को बांहों में भर कर, ताज़ा नाश्ता देकर, साहब का इंतज़ार करती है. यह पढ़ कर एब्राहम लिंकन की यह पंक्ति एकाएक मेरे मन में कौंधी और उस एकाकी औरत पर सही उतरती लगी -
Lonely men seek companionship while lonely women sit at home and wait...!
पति के आने पर, उसकी आवभगत कर, अपना जीवन जैसे सार्थक करती है. लेकिन जब इतना ख्याल-प्यार करने पर भी उसे रूखा-सूखा व्यवहार मिलता है, तब अंदर से कितना निरर्थक महसूस करती है...! अपने लक्ष्यहीन जीवन की त्रासदी उससे बेहतर कौन जानता होगा ?

घर की खुशियों, पति की हिदायतों, बच्चों की फरमाइशों के वितान में उसे पता ही नहीं चलता कि उसके दो हिस्सों के बीच फासला कितना बढ़ गया हैं, क्योंकि हर दिन, हर रात उसका घर के लिए नियत हिस्सा (Cardiomegaly - ह्रदय रोग की तरह ) इस कदर फैलता जाता है कि वह उसके अपनी पहचान वाले तीन चौथाई हिस्से को ढांप लेता है. अपनी बेजान, कंपकंपाती पहचान को बनाए रखने की नाकामयाब कोशिश में, घबरा कर वह, दूसरों के लिए जीवंत रहने वाले, अपने एक चौथाई हिस्से को ओढती जाती है. उसे पता ही नहीं चलता कि उसका तीन बटा चार हिस्सा कब एक चौथाई में लुप्त हो गया. इस नए रूप के चलते अब वह जब भी बाहर जाती है तो वह वहनहीं होती - सिर्फ बच्चों की माँ होती या पति की आज्ञाकारी पत्नी होती या घर की केयरटेकरहोती है, जिसे बाहर निकलते ही घर लौटने की जल्दी सताने लगती है और तब तक वह बेचैन रहती है, जब तक घर नहीं लौट आती. इस मानसिकता से उसका अपना वजूद गुम होता जाता है. वह जान ही नहीं पाती - अपनी उस खोती हुई पहचान को. उसके इस पराए रूप को दख उसकी सहेलियां, नाते-रिश्तेदार खामोश रहते हैं, अनदेखा करते. घर लौटकर वह अपने उसे एक चौथाई हिस्से को ढूँढती फिरती है’ - इस अभिव्यक्ति को पढकर मेरी आँखें छलछ्ला आई. यदि आपको कभी कोई, इस कमरे से उस कमरे में, रसोई से बालकनी में, इस तरह भटकता दिखे, तो समझ लें कि आइडेंटिटी क्राइसिसहै. वह महिला उखडी हुई है और अपनी पहचान खोज रही है, जो उसे घर के किसी कोने में, न अलमारी में, न दराज़ में, कहीं भी नहीं मिल रही है. कहीं हो तो मिलेगी न ! क्योकि उसकी पहचान अन्य प्राणियों की पहचान तले दबी हुई है. औरत इसी तरह तो बँटी होती है. इसके अलावा भी उसके कई टुकड़े होते है. एक टुकड़ा बच्चों के लिए सक्रिय होता है, तो एक हिस्सा पति को समर्पित रहता है, तो एक टुकड़ा सास-ससुर की सेवा पर तैनात रहता है. जब कभी मेहमान, नाते-रिश्तेदार रहने आते हैं, तो इन टुकड़ों में से किसी तरह वह अपना एक और टुकड़ा करती है और उसे उन मेहमानों की सेवा में लगा देती है. यूं टुकड़ों में बँटी वह जीने की आदी हो जाती है .... अपने अस्तित्व से कोसों दूर चली जाती है फिर भी उफ़ तक नहीं करती. सबसे अधिक कष्ट की बात यह है कि उसका ज़रूरत के अनुसार इस तरह टुकड़े-टुकड़े होना उसकी जानकारी के दायरे में घटता रहता है फिर भी वह बिफरती नहीं. किसी को उसके इस तरह टुकड़े-टुकड़े होने की भनक नहीं पडती. जब-जब वह चिटकती है, टूटती है, बिखरती है, तो उसके आसपास रहने वाले अपनों को उसके चिटकने, टूटने की न तो आवाज़ सुनाई देती है और न उसमे पड़ती दरारें दिखाई देती हैं. इस पर भी, वह टूट कर अपने आप को जोडने की कोशिश करने में लगी रहती है. कितना मुश्किल होता है ऐसे टूटने को अंदर ही अंदर जोडना, अपने को वनपीसबनाए रखना. कितना भी जगह-जगह से अपने को तरह-तरह की झूठी तसल्ली से जोड़े, दरारे तो रह ही जाती हैं जिनसे पीड़ा धृष्टता से निकल कर - कभी उसके चेहरे पर मुर्दनगी बन कर सिमट जाती है, तो कभी आँखों में नमी बन कर तैर जाती है, फिर भी घर के लोग उसे देख नहीं पाते. वह माँ, बहू, पत्नी के धागों से कठपुतली की तरह बंधी - उन धागों के चलाने वालों के इशारे पर नाचती, सबको सुबह से लेकर रात तक खुशी की चमक से भरती है. जैसे ही घर के सूत्रधार रात के निस्तब्ध अंधेरे में सो जाते हैं, वह भी निश्चेष्ट कठपुतली बन जाती है.

वह औरत घर की चीजों से टकराते हुए, बदहवास सी होकर अक्सर, अपने एक चौथाई हिस्से को इधर-उधर बेताबी से खोजती है, जो इतना ढीला हो गया है, इतना छीज गया है कि उसे पहचानने में समय लगता है. वह एक चौथाई हिस्सा कभी प्लास्टिक के फूलों में, तो कभी घर के ओने-कोने में मिलता है. घर की औरत का घर के लिए नियत हिस्से को यों इधर-उधर ढूँढना - मेरे दिल को बार-बार बोझिल बनाने को काफी था. वह अक्सर ही अपने तीन चौथाई हिस्से को अपने में समेटे, एक चौथाई हिस्से को इधर-उधर खोजती फिरती है - बौराई सी, व्याकुल सी, कमरों में, लान में....कभी वह उसे गेंदे की क्यारी के किनारे, ईंटों की तिकोनी बाड़ पर लुढ़का हुआ मिलता है, तो कभी जूतों के बीच धूल मिट्टी खाता मिलता है. वह उसे झाड पोंछ कर, सबकी नज़रों से बचाती, अपने दुपट्टे में छिपाती, साथ लिए चलती है. बड़े हो गए बच्चे सामने पड़ जाते हैं तो उसे कुछ छिपाते देख पूछ बैठते है ‘‘यह तुमने पल्लू में क्या छिपा रखा है ?’’ अपने मरे गिरे, बेजान से एक बटा चार हिस्सेको, बेचारगी से भरी पहचान को, अपनों से ही छिपाने का दर्द कितना असहनीय हो सकता है, उसे या तो झेलने वाला जान सकता है या उस दर्द से गुज़रा व्यक्ति जान सकता है. बच्चों के पूछने पर वह और अधिक सतर्कता से उसे ढक लेती है और हकबकाई सी कहती है – ‘’कहाँ कुछ भी तो नहीं....’’ उस तीन बटा चार औरत के इन शब्दों की लाचारगी पर किसका दिल न भर आएगा ? कभी-कभी वह प्यार से उमड़ कर सबके द्वारा अनदेखे, उस एक बटा चार हिस्से के बारे में बड़े हो गए बच्चों से बात करने का साहस जुटाती है तो इतनी ही देर में कि वह कुछ बोल पाती, जीवन की रफ्तार में दौड़ते-भागते बच्चे – ‘ओ.के , समथिंग पर्सनल..कह कर आगे बढ़ लेते है. वह फिर वैसी ही अपने भोथरे हिस्से को जिसमें उसके दिल की कुछ धडकनें, कुछ संवेदनाएं, कुछ निहायत ही कोमल भावनाएँ भी जहां-तहां चिपकी हुई हैं, पल्लू में छिपाए सन्न सी खडी रह जाती है. न जाने कितनी बार इन भावनात्मक चोटों से गुज़रती है वह. किन्तु अब ये सब चोटें उसका अपना अंश बन चुकी हैं.

केनेडियन लेखिका सबरीना वार्ड हैरीसनने कहा है -“What we don't let out, traps us…… So we don't say anything. And we become enveloped by a deep loneliness.

उपेक्षा से उपजे दर्द को बाहर उगलने के बजाय खामोशी से झेलना, अपने जीवन में वीरानियों को दावत देना है. ठीक यही इस कहानी में, दो हिस्सों में बँटी औरत के साथ घट रहा है. मन की बात किसी से बाँटती ही नहीं, बाँट लेने से शायद वह खुद तो न बँटती. कभी वह साहस जुटाती भी है अपनी बात कहने का तो, कह नहीं पाती और दूसरों के पास इतना समय नहीं कि दो घडी फुर्सत के निकाल कर उससे कुछ पूछे, उसकी सुनें और इस तरह अपनों से उपेक्षित वह, ‘अकेलेपनकी परतों में लिपटती जाती है.

घर में फर्नीचर के वार्निश का बेरौनक होना, पौधे का मुरझाना, सोफे की गद्दियों की सीवनों का उधड़ना, दरवाजो, खिडकियों के कांचों का धुंधलाना, तस्वीरों के फीके पड़े रंग - ये सब तो उसे नज़र आते है किन्तु इन सबके साथ, उसका अपना एक चौथाई और तीन बटा चार हिस्सा जो दिन-पर-दिन धुंधलाता जा रहा है, वह उस पर कभी ध्यान ही नहीं देती. देती भी है तो अनदेखा करती देती है. चीजों के फीकेपन और उधडेपन में वह अपना फीका और उधड़ा अस्तित्व भूल जाती है. अपने अस्त-व्यस्त बेरौनक अस्तित्व की सिलवटों, झोल को सम्हाले वह एक धुंधली उम्मीद के साथ रोज साहब का इंतज़ार करती है कि शायद आज उसे इस तरह उखडा, उधड़ा देख कर, वे उसके बिगड़े अनुपात के बारे में कुछ पूछें, लेकिन साहब या तो दो मेहमानों के साथ घर आते हैं - मेहमानों के आने की सूचना देना भी गँवारा नहीं करते, या कभी -कभी होटल में ही खाकर देर गए लौटते हैं. फिर किसी फ़ाइल में उलझ कर घर में होने पर भी नहीं होते. इस तरह रात उतर आती है, सब चैन और सुकून से सो जाते हैं और वह अपने हिस्से में सदा के लिए आई बेचैनी से गले लग कर, उस ढीले हिस्से को थपक-थपक कर सुला देती है. कैसा अकेला, वीरान जीवन है उसका...! उसकी यह स्थिति पाठक के मन में गहरी निराशा और अवसाद को जन्म देने के साथ-साथ, उसे मिटाने का एक आक्रोश भी देती है.

इस अवसाद के तहत कहानी की नायिका कई बार मटमैले लगने वाले उस अपनेघर से कहीं दूर चली जाना चाहती है लेकिन इससे पहले कि वह पलायन करती, एक दिन साहब तेज़ दर्द से कहराने लगते हैं. जांच-पडताल के बाद हकीम,वैद्य बताते हैं कि लगातार वर्षों से बाईं ओर झुक कर काम करने की आदत के कारण, साहब की गर्दन और पीठ की शिराओं में संकुचन हो गया है, इसलिए दवाओं के बाद भी मर्ज़ लाइलाज है. किन्तु उनकी पत्नी कहलाई जाने वाली, वह अस्तित्वहीन औरत उनकी उस विवश घडी में उनका ऐसा मज़बूत सहारा बनती है कि उसके द्वारा की जाने वाली सेवा से वे ठीक होने लगते हैं. चलने के लिए एडजस्टेबल छडी मंगाई जाती है, लेकिन कमज़ोर बाँए हिस्से के लिए वह छडी व्यर्थ सिध्द होती है और दो हिस्सों में बँटी हुई निरर्थक वजूद लिए जीती वह औरत उनका सार्थक और स्थायी सहारा बन जाती है. साहब की ज़रूरत को देखते हुए उसका तीन चौथाई हिस्सा जो उसका अपना था, उसकी पहचान था, वह साहब को समर्पित हो जाता है. लेकिन इस घटना से एक बात औरत के पक्ष में जाती है; साहब के स्वस्थ होने के साथ-साथ औरत का निष्क्रिय, बेजान हिस्सा भी सक्रिय और स्वस्थ होने लगता है. हमेशा के लिए साहब के पार्श्व में उसकी जगह सहारेके रूप में स्थायी होने के कारण शायद उसे अपनी एक पहचान मिल गई थी. हालात से विवश साहब द्वारा उनके पार्श्व में अपने लिए जगह पाकर वह सुख और सुकून महसूस करती है. वह साहब के निकट संपर्क में रहने की खुशी का 'कारण' नज़रंदाज़ कर सिर्फ उनके पास बने रहने, उनको सहारा देने में अपने तीन बटा चार हिस्से के अस्तित्व की सार्थकता देखती है इसलिए ही उसका वह तीन चौथाई हिस्सा बड़ा खुश और सेहतमंद होने लगता है. इस सकारात्मक बिंदु पर कहानी अंत हो जाती है उस उपेक्षित, एकाकी औरत के जीवन में गुनगुने उजाले की कुछ उम्मीद बंधा कर.

निसंदेह यह एक कालजयी कहानी है, जो हर युग, हर काल - अतीत,वर्त्तमान और भविष्य के नारी व्यक्तित्व को किंचित परिवर्तन के साथ परिभाषित करती है और करती रहेगी. वे नारियाँ मेरी बात से ज़रा भी असहमत न होएं जो घर से बाहर काम पर या मस्त होकर, अपनी मर्जी से घूमने जाती हैं - बड़े साहस से घर-परिवार की आवाजों से परे - अपने को ये ऑटो सजेशन्सदेती हुई - ‘‘वे भी तो इंसान हैं, उन्हें भी अपनी ज़िंदगी जीने का कुछ तो हक है.’’ यदि वे भी अन्तस्तल को टटोलेगीं तो पायेगी कि ऊपर की बलात् कठोर बनाई गई परतों के नीचे घर-परिवार व बच्चों की चिंता से त्रस्त और ध्वस्त परतें ही है. बाहर रहते हुए भी बीच-बीच में न जाने कितनी बार पति का , बच्चों का ख्याल उनके मन में उठता है. वे चाह कर भी कुछ घंटों, कुछ दिनों के लिए कहाँ अपने को अलग कर पाती हैं ? कुछ दिनों के लिए दूर होकर भी उनके अस्तित्व में समाई रहती हैं, इतना ही नहीं, अगर घर के लोग उदारता से उन्हें घूमने फिरने का मौक़ा भी दें तो वे और सघनता से घर-परिवार की ओर पलट जाती हैं. समस्या तो वे खुद हैं अपने लिए. उनकी भावुकता और ममता उन्हें ले डूबती है.

कहानी यद्यपि बँटी-बिखरी औरत से शुरू होती है और उसी पर अंत लेकिन, कहानी की खासियत यह है कि वह अपनी मुख्य पात्र की तरह न कहीं बंटी हुई , न कहीं बिखरी हुई, बड़ी ही सुगठित और कसावट के साथ बुनी हुई - एक उत्कृष्ट कहानी बन पडी है ! किसी भी बिंदु , किसी भी रेखा पर कहानी भटकती नहीं बल्कि रवानगी से भरी हुई, पाठक मन पर अपनी अमिट छाप छोडती है. अनूठी अंतर्दृष्टि को संजोती, औरत से जुडी ज़मीनी सच्चाईयों को उजागर करती इस भावप्रवण कहानी के लिए सुधा जी की जितनी भी सराहना की जाए कम है.